फिर एक ज़िंदगी दांव पर लगी है। एक मासूम ज़िंदगी और मौत से लड़ रही है। हरियाणा के मानेसर में माही नाम की बच्ची बुधवार रात से एक बोरवेल में फंसी है और उसे निकालने की कोशिशें युद्ध स्तर पर जारी हैं।
यह पहली बार नहीं है। इससे पहले भी देश के कई हिस्सों से इस तरह की ख़बरें आ चुकी हैं जिनमें मासूम बच्चे खेलते−खेलते खुले बोरवैल या टूबवैल में गिर गए। ऐसे हादसों में कई जानें गईं और कुछ मामलों में कुछ बच्चों को बचाया भी गया।
देशभर में सुर्खियां तब बनीं जब प्रिंस नाम का एक बच्चा हरियाणा के ही कुरूक्षेत्र में एक बोर वैल में जा गिरा था। यह घटना 23 जुलाई 2006 की है। उसे निकालने की कोशिशों का न्यूज़ चैनलों ने बिना रुके प्रसारण किया। प्रिंस तो सुरक्षित निकाल लिया गया और उसी के बाद इस तरह की घटनाओं को ज़्यादा तवज्जो मिलने लगी। इसीलिए इन हादसों में अब मदद भी पहुँचने लगी है और कई मौकों पर सेना के जवानों ने आगे आकर कई बच्चों को मौत के मुँह में गिरने से बचा लिया है।
लेकिन, सवाल यह है कि ऐसी घटनाएं रुकती क्यों नहीं... अमूमन गांवों में लोग सिंचाई या दूसरी ज़रूरतों के पानी के लिए बोर वैल या ट्यूबवैल खुदवाने के लिए प्राइवेट ठेकेदारों की मदद लेते हैं। ये लोग काफ़ी गहराई कर खुदाई करते हैं और कई मामलों में पानी नहीं निकलने पर इन बोर वैल को बिना ढंके या भरे ही छोड़ देते हैं। अधिकांश जगहों पर ये घरों के पास ही होते हैं क्योंकि लोग पानी की ज़रूरत पूरी करने के लिए अपने घरों के पास ही इन बोर वैल को खुदवाते हैं। न तो ये ठेकेदार और न ही वे लोग इस बात की परवाह करते हैं कि ऐसे बोर वैल जिनका इस्तेमाल नहीं होना है उनका क्या किया जाए और इस लापरवाही की कीमत वे मासूम चुकाते हैं जो खेलते−खेलते या फिर अनजाने में दौड़ते−भागते इन बोर वैल में गिर जाते हैं।
ताज्जुब की बात यह है कि न तो स्थानीय प्रशासन और न ही राज्य सरकारों ने इन घटनाओं को रोकने के लिए कोई कड़े कायदे कानून बनाए हैं... और न ही ऐसे मामलों में उन लोगों या ठेकेदारों को सज़ा होती है जिनकी लापरवाही की वजह से ऐसे हादसे होते हैं।
ऐसे मामलों में भी मासूमों की हिफाजत के लिए सुप्रीम कोर्ट को आगे आना पड़ा था। 26 नवंबर 2008 को एक शख्स आर वी रमा मोहन ने सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार को पत्र लिखकर कहा था कि प्रशासन को निर्देश दिए जाएं ताकि खाली पड़े बोर वैल और ट्यूब वैल में बच्चों को गिरने से बचाया जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने इस पत्र को जन हित याचिका में तब्दील कर इसका संज्ञान लिया था।
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीधे तौर पर इस तरह की घटनाओं की ज़िम्मेदारी इलाके के कलेक्टर की तय कर दी। पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली एक बैंच ने निर्देश दिए थे कि खुले बोर वैल के आंकड़े ज़िला मुख्यालय या फिर बीडीओ पर रखे जाएं।
कोर्ट का कहना था कि अगर बोर वैल या ट्यूब वैल को किसी भी वक्त अगर खुला छोड़ा जाता है तो उसके लिए भूजल जन स्वास्थ्य नगर पालिका निगम या संबंधित निजी ठेकेदार से प्रमाणपत्र लेना होगा कि उसे बंद कर दिया गया है ताकि छोटे बच्चे उनमें न गिर सकें।
कोई हैरानी नहीं है कि कई दूसरे मामलों की तरह इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की खुली अनदेखी हो रही है। इसीलिए आए दिन बच्चों के बोर वैल या ट्यूब वैल में गिरने की घटनाएं सामने आ रही हैं।
मासूमों की ज़िंदगी से खिलवाड़ के ऐसे हादसे अकेले नहीं हैं। बच्चों को स्कूल से लाने−ले जाने के लिए बसों को लेकर भी निर्देश जारी किए गए हैं लेकिन उनका पालन नहीं होता। और न ही ऐसे बस ड्राइवरों पर लगाम कसने के लिए प्रशासन मुस्तैद दिखता है।
बच्चों की सुरक्षा के लिए इसी तरह से सुरक्षा निर्देश पार्कों में खेलने वगैरह को लेकर भी हैं लेकिन बरसों पुराने जंग खाए खेल उपकरणों से बच्चों को आए दिन चोट लगती है और उन्हें सुधारने के लिए भी प्रशासन उदासीन ही दिखता है।
लेकिन ज़िम्मेदारी आम लोगों की भी बनती है जो अपने आस−पास मौजूद इस तरह के ख़तरों को नज़र अंदाज़ करते रहते हैं। यह सोचकर कि वे अपने बच्चों का इतना ध्यान रखते हैं कि उनपर कभी इस तरह की आफत नहीं आएगी। पर वे भूल जाते हैं कि सावधानी हटते ही दुघर्टना होती है। बच्चों के बोर वैल में गिरने के मामले भी कुछ ऐसे ही हैं। अगर लोगों ने अपने घरों के आस−पास इस तरह के खुले बोर वैलों के बारे में प्रशासन को शिकायत की होती तो शायद इस तरह की दुघर्टनाओं की नौबत नहीं आती।
This Article is From Jun 23, 2012
बच्चों की जान आखिर इतनी सस्ती क्यों...?
Akhilesh Sharma
- Blogs,
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Updated:नवंबर 20, 2014 13:19 pm IST
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Published On जून 23, 2012 18:51 pm IST
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Last Updated On नवंबर 20, 2014 13:19 pm IST
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