प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मीडिया से दिवाली मिलन कई वजहों से अहम था, लेकिन शायद सबसे ज्यादा इसलिए कि इतने सालों तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए और 16 मई 2014 से अब तक जो दूरी उन्होंने बनाए रखी थी उसे कम करने की तरफ एक कदम चले हैं। दूरी बनाए रखने का सबसे बड़ा कारण है 2002 के गुजरात दंगे और दिल्ली मीडिया की उस पर रिपोर्टिंग।
नरेंद्र मोदी को अब तक किसी भी अदालत से इन दंगों के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया है, लेकिन मीडिया लागातार ऐसे ही रिपोर्टिंग करता रहा है, ये बीजेपी का आरोप रहा है और मोदी और मीडिया के बीच कड़वाहट का बड़ा कारण।
दिल्ली की गद्दी पर बैठने के पहले गुजरात के अनुभव ने मोदी को ये भी सिखा दिया कि बिना मीडिया को सीधे तौर पर शामिल किए उसका इस्तेमाल कैसे करते हैं और उन्होंने इसमें कैसी महारत हासिल की है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण उनका अमेरिकी दौरा है। मीडिया ने नॉन न्यूज़ को न्यूज़ की तरह परोसा, नौटंकी की हद तक।
चलिए, अब शनिवार की चाय पार्टी पर आते हैं। बड़े पत्रकारों से लेकर, बीजेपी बीट कवर करने वाले नए पत्रकार तक मौजूद थे यहां पर। औम तौर पर जो होता है उसके विपरीत मोदी ने छोटा सा भाषण दिया- कहा कभी मैं आपके इंतज़ार में कुर्सियां लगाता था, खुलकर बातें होती थीं, आगे और मिलने की कोशिश करेंगे।
सवाल उस पर उठ रहे हैं जो उसके बाद हुआ। पत्रकारों ने कोई सवाल नहीं पूछा, इस पर मुझे कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि ये कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं था। लेकिन मोदी पत्रकारों से मिलने स्टेज से नीचे आए और पत्रकारों में उनके साथ सेल्फी की होड़ लग गई।
इनमें वह भी शामिल थे जो घंटों टीवी पर दिखते हैं, जो लेख लिखते हैं और वह भी जो एक अदद बाइट-कोट के लिए दर-दर भटकते हैं। आप कहेंगे इसमें समस्या क्या है? क्या वह मीडिया के पीएम नहीं? सही सवाल है, लेकिन पत्रकार वहां आम नागरिक के तौर पर नहीं गए थे, अपने प्रोफेशन के कारण वहां मौजूद थे और उस प्रोफेशन की गरिमा बनाए रखना उनकी ज़िम्मेदारी थी।
गरिमा ये कि कोई बीट कवर करते हुए भी उससे ऐसी दूरी बनाए रखना जो ना सिर्फ पत्रकार को निष्पक्ष रखने में मदद दे, बल्कि निष्पक्ष दिखने में भी। राजनीतिक पत्रकारिता में जब आप किसी के होते दिखते हैं तो किसी के नहीं रहते और जिसके होने की कोशिश करते हैं वह अपना लेगा इस मुगालते में बड़े बड़े निबट गए।
खैर, मेरी राय में इसकी वजह लुट्यंस पत्रकारों में फैला वह कन्फ्यूज़न है जो मोदी के अब तक के सफर और शख्सियत को लेकर उपजा है। पिछली सरकार में हर पत्रकार किसी ना किसी का करीबी था। खबरें दाएं बाएं ऊपर नीचे से लीक हो ही जाती थीं। किनको किनका इंटरव्यू मिलेगा ये पत्रकार बिरादरी में सबको पता होता था। लेकिन अभी हालात उलट गए हैं।
मोदी ने खुद को मीडिया का विक्टिम बनाकर पेश किया। जनता ने उन्हें ऐसा सर आंखों पर बिठाया कि ज़बर्दस्त बहुमत से वह सत्ता में आए। अब इस मीडिया को समझ में नहीं आ रहा कि मोदी के दो कदम करीब जाने का उपाय क्या है?
कई पत्रकारों को अब तक हासिल एक्सक्लूज़िव और सम्मान पर तलवार लटकती नज़र आ रही है और आगे का रास्ता सूझ नहीं रहा। लेकिन समझने वाली बात ये है कि नौटंकी और सेल्फी के बीच से होते हुए इस मीडिया को मोदी को कवर करने का एक संतुलित तरीका ढूंढ़ना होगा। जहां तारीफ बनती हो वहां जम कर तारीफ करें। जहां आलोचना की ज़रूरत हो वहां रचनात्मक आलोचना करें, कोसने का कोई फायदा नहीं। इसमें पत्रकारिता की भी गरिमा है, मोदी की भी और देश की भी।
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