क्या जायज़ है महान खिलाड़ी की ऐसी विदाई!

क्या जायज़ है महान खिलाड़ी की ऐसी विदाई!

सुशील कुमार (फाइल फोटो)

हाई कोर्ट में गुरुवार और सोमवार का दिन भारतीय खेलों के लिए सबसे निराशाजनक दिनों में कहा जाएगा। गुरुवार को अदालत के अंदर भारतीय कुश्ती संघ के वकील ने कहा था कि सुशील ने देश के टैक्सपेयर्स के पैसे बरबाद किए हैं। हमने उन्हें ट्रेनिंग के लिए जॉर्जिया नहीं भेजा था। क्या इसी तरह की बात सुनने के हकदार हैं सुशील? वे सुशील, जिन्होंने देश के लिए दो ओलिंपिक मेडल जीते हैं। ऐसा काम, जो व्यक्तिगत स्पर्धा में आज तक कोई नहीं कर पाया। इस आरोप ने सुशील को हीरो मानने वाले हर दिल को तकलीफ पहुंचाई और यह सवाल उठाया कि क्या इस तरह के आरोप जरूरी थे? फिर सोमवार, जब फैसला आया। सुशील की याचिका हाई कोर्ट में रद्द कर दी गई।

क्या कहा जाए इस पूरे मामले को? एक खिलाड़ी के लिए खेल की भूख? हार न मानने की जिद? यह स्वीकार न कर पाना कि उसका वक्त खत्म हो गया है? खिलाड़ी का लालच? फेडरेशन का ईगो और सही नीति बना पाने में नाकामी? या मान लिया जाए कि हम भारतीय अपने हीरो को सहेजना नहीं जानते? आखिर क्या है यह? इन सारे सवालों के बीच ऐसे खिलाड़ी के भविष्य पर फैसला लेकर जून महीने का पहला सोमवार आया, जिसे सबसे बड़ा खिलाड़ी और सबसे बड़ा फाइटर मानने में शायद ही ज्यादा लोगों को आपत्ति हो।

आखिर कोर्ट क्यों गए सुशील
सुशील को अपने चौथे ओलिंपिक में हिस्सा लेने की ख्वाहिश रही है। इसके लिए वह कोर्ट तक चले गए। आखिर क्यों गए वह कोर्ट? उनके करीबी दोस्त योगेश्वर दत्त समेत तमाम लोगों के जेहन में यह सवाल है। क्या कोर्ट जाना ओलिंपिक में खेलने की जिजीविषा का हिस्सा है? या यह इच्छा उस ब्रैंड सुशील के साथ जुड़ती है, जो उनके ओलिंपिक में न खेलने की सूरत में बिखरने का डर लाती है। ब्रैंड वाला हिस्सा सचिन तेंदुलकर के साथ भी जोड़ा जाता था और बताया जाता था कि बाजार की ताकत है, जो उन्हें रिटायर नहीं होने दे रही। क्या सुशील उसी राह पर हैं, इसीलिए वे कोर्ट गए?

कैसा रहा है सुशील का इतिहास
कुछ साल पीछे लौटते हैं। 2008 की बात है। देर रात सुशील बीजिंग से लौटे थे। कांस्य पदक जीतकर। वे मंदिर गए। लेकिन अगली सुबह वे छत्रसाल अखाड़े में थे, जहां वे प्रैक्टिस करते हैं। उन्होंने कहा – मैं अखाड़े से दूर नहीं रह सकता। उसके कुछ समय बाद उन्हें देश के सबसे बड़े खेल सम्मान राजीव गांधी खेल रत्न के लिए चुना गया। अवॉर्ड से एक दिन पहले रिहर्सल होती है और सभी खिलाड़ी एक पांच सितारा होटल में रुकते हैं। उनसे मिलने की ख्वाहिश लिए कई पत्रकार होटल पहुंचे। मैंने भी फोन किया, ‘सुशील क्या आप होटल में हैं?’ जवाब आया – ‘ना जी, मैं तो अखाड़े में हूं। आप यहीं आ जाओ।’ सुशील ने बताया कि अखाड़े की मिट्टी के बगैर उन्हें नींद नहीं आती, ‘फाइव स्टार के गद्दों पर सो नहीं पाता। ..और फिर वहां रुकता तो एक दिन की प्रैक्टिस भी खराब होती।’

सवाल यही है कि जिस शख्स को फाइव स्टार से कोई लगाव नहीं था, वह क्या ब्रैंड बरकरार रखने के लिए यह सब कर रहा है। सुशील उस बातचीत में बताते रहे कि कैसे एक डांस शो के लिए ऑफर आया। एक कोल्ड ड्रिंक ब्रैंड का भी ऑफर आया, ‘लेकिन भाईसाब, मैं ऐसा कोई काम नहीं करता, जो दिल नहीं मानता हो। मुझे न डांस आता, न मैं कोल्ड ड्रिंक पीता। फिर मैं क्यों उधर जाऊं। मैं तो देसी ड्रिंक पीता हूं।’ फिर उन्होंने आवाज लगाई, ‘अरे, भाईसाब को अपना कोल्ड ड्रिंक पिला।’ इसी के साथ एक विशालकाय स्टील के गिलास में ‘ड्रिंक’ आ गया, जो जाहिर है, देसी था।

क्या वाकई ‘बदल’ गए हैं सुशील
कुछ लोग कहते हैं कि उस सुशील में पिछले कुछ समय में फर्क आया है। प्रो रेसलिंग लीग के समय उनका यह बदलाव दिखा भी था, जब वे अचानक रोडीज का हिस्सा हो गए थे। उन्हें रोडीज के साथ जुड़ते देखना थोड़ा चौंकाने वाला था, क्योंकि यह सुशील के मिज़ाज जैसा शो नहीं था। वह प्रो रेसलिंग लीग से हटे। उन्होंने कई प्रतियोगिताएं छोड़ीं। वह चोटिल भी रहे। तमाम लोगों ने उनके व्यवहार में बदलाव देखा। अखाड़े और रागिनी (लोक संगीत) की दुनिया में मस्त रहने वाले सुशील अब व्यावसायिक नजरिए से भी दुनिया को देखने लगे थे। इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन यह उस सुशील से अलग था, जिसे खेल दुनिया अब तक जानती समझती आई थी।

क्या हमें अपने हीरो को सहेजना नहीं आता
शायद यह व्यावसायिक समझ ही उन्हें कोर्ट ले गई। लेकिन अगर ऐसा है भी, तो भी किसी को देश के महानतम पहलवान के बारे में यह कहने का कोई हक नहीं कि उन्होंने टैक्सपेयर्स के पैसों को बरबाद किया है। अगर फेडरेशन सितंबर में तय कर लेती कि सुशील नहीं, नरसिंह रियो जाएंगे, तो हालात यहां तक नहीं पहुंचते। अब कोर्ट ने तय किया है कि सुशील को नहीं, नरसिंह को जाना चाहिए। हो सकता है कि सुशील सिंगल बेंच के बाद डबल बेंच और फिर सुप्रीम कोर्ट चले जाएं। लेकिन अभी तो ऐसा लग रहा है कि महान खिलाड़ियों को खराब तरीके से विदाई देने वाली फेहरिस्त में एक और नाम शामिल हो गया है।

हमें घिसट-घिसट कर कपिल देव का विश्व रिकॉर्ड बनाना याद है। अपने आखिरी ओलिंपिक में धनराज पिल्लै का रोना याद है। अपने आखिरी ओलिंपिक में मोहम्मद शाहिद के साथ बदसलूकी याद है। सुशील को भी याद करने पर दो पदक के साथ आखिरी दौर में कोर्ट की लड़ाई याद रहेगी। ब्रैंड बरकरार रखना हो या ओलिंपिक में जीत की जिजीविषा, जिस वजह से भी यह लड़ाई लड़ी गई, कड़वाहट ही लाई। काश, जब भी सुशील कुमार के बारे में लिखा जाए, पिछले दो महीने वाला हिस्सा न शामिल हो। काश, वह सुशील ही याद रहे, जिनके लिए छत्रसाल अखाड़े की पथरीली जमीन फाइव स्टार से बेहतर थी। जिसका ओलिंपिक पदक इस देश में कुश्ती की तस्वीर बदलने वाला साबित हुआ। जिसके सपने सच हुए, तो हजारों आंखों में ओलिंपिक के सपने पलने लगे। लेकिन इतिहास बड़ा बेरहम होता है। ...और उजले कपड़ों पर एक छोटा-सा धब्बा भी बहुत बड़ा नजर आता है। फैसला यह कीजिए कि वह धब्बा किसी ने सुशील पर लगाया है, या खुद उनकी गलती उन्हें आज यहां ले आई। जो भी हो, अदालत ने जो भी तय किया हो, सुशील इस देश में कुश्ती के सबसे बड़े हीरो थे... आज भी हैं और आगे भी रहेंगे।

(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्‍ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार है)

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