असल मुद्दों को सोशल मीडिया में कितनी जगह मिलती है?

आप भी सोचिए कि भारत के युवाओं को आखिर कौन सा टॉपिक दिया जाए जिससे वे रोजगार के सवाल से भटक जाएं. इसमें दोष युवाओं का नहीं है, उनके रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप का है. जिनका काम हर दिन चीन और पाकिस्तान को पराजित करने के बाद विश्व गुरु बनाने की महानता के डोज़ सूरज उगने से पहले भेज देना होता है. आप किसी से भी पूछिए वो रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप से परेशान है.

भारत के युवा हमेशा ही निराश करते हैं. उनसे उम्मीद थी कि वे नरेंद्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम को लेकर डिबेट में डूब जाएंगे लेकिन वे नौकरी पर डिबेट की मांग करने लगे. भारत इंग्लैंड टेस्ट मैच के दूसरे दिन का खेल शुरू होने से पहले इन युवाओं ने नौकरी की बात शुरू कर दी. Someone should have told them that this is not the way to ask for a job. You can't just leave the hindu-muslim debate like this. आप भी सोचिए कि भारत के युवाओं को आखिर कौन सा टॉपिक दिया जाए जिससे वे रोजगार के सवाल से भटक जाएं. इसमें दोष युवाओं का नहीं है, उनके रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप का है.

जिनका काम हर दिन चीन और पाकिस्तान को पराजित करने के बाद विश्व गुरु बनाने की महानता के डोज़ सूरज उगने से पहले भेज देना होता है. आप किसी से भी पूछिए वो रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप से परेशान है. राजनीति शास्त्र के प्रोफेसरों और रिसर्चरों को रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप और सांप्रदायिक नागरिकता के घरेलु संस्कार पर काम करना चाहिए. यह अच्छा नहीं है कि कोलंबिया से लेकर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट को रिसर्च का आइडिया मैं ही दूं. क्या उनके व्हाट्सएप ग्रुप में रिश्तेदार सक्रिय नहीं हैं. ऐसा कैसे हो सकता है. रिश्तेदारों के इन्हीं ग्रुप में लोकतंत्र को खत्म करने के लिए ज़रूरी ख़ास किस्म के नागरिकों के निर्माण की प्रक्रिया चलती रहती है. सबसे पहले मैंने नेशनल टीवी पर रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप की प्रासंगिकता की बात की है. आपने पिछली दो पंक्तियों में दो बार मैं मैं सुना होगा. स्टेडियम का नाम रखने से प्रेरित हो गया हूं. जो लोग अपने रिश्तेदारों के प्रयास के बाद भी सांप्रदायिक नागरिक होने से बच गए वो मेरा भी शुक्रिया अदा कर सकते हैं. तीसरी बार मैं आ गया. आज हो क्या रहा है मेरे साथ.

ख़ैर इसमें से निकल कर उस चराचर जगत की तरफ प्रस्थान करते हैं जहां भारत के लोकल युवा ट्विटर पर रोज़गार नाम की छोटी मोटी समस्या को ग्लोबल ट्रेंड करा रहे हैं. यह विश्व गुरु भारत की छवि को ख़राब करने वाला कदम तो है ही, युवाओं के परिवारों में रिश्तेदारों के घटते प्रभाव का भी द्योतक है. बेरोज़गारी का मुद्दा युवाओं के रिश्तेदारों की नाकामी का समानुपाती है. रिश्तेदार जितने नाकाम होंगे, बेरोज़गारी का मुद्दा उतना प्रमुख होगा. नौजवान मुझसे चर्चा मांग रहे हैं, मुझे टैग कर रहे हैं. इस बात पर फिर इंग्लिश बोलने का मन कर रहा है लेकिन रहने देता हूं.

25 फरवरी का दिन जब घड़ी की बड़ी सुई छोटी सुई को क्रमांक 12 पर छोड़ आगे बढ़ती है, तब हिन्दू मुस्लिम डिबेट में रमने वाले युवाओं ने मैसेज भेजना शुरू किया है कि #Modi_job_do दुनिया में नंबर वन ट्रेंड कर रहा है. और भारत में #go_back _modi दूसरे नंबर पर ट्रेंड कर रहा है. प्रधानमंत्री मोदी के साथ साथ अन्य पत्रकारों के साथ साथ मैं भी टैग-टूग हो रहा था. जैसे बेरोज़गारी के तक्षक ने मुझे भी बांध लिया हो. मेरे सपने में आने वाले नीम के पेड़ ने पहले ही चेतावनी दे दी थी कि ट्विटर से दूर रहा करो. एक ग्लोबल ट्रेंड और दूसरा इंडिया ट्रेंड. युवाओं ने आज दूरदर्शिता का परिचय दे ही दिया. मोदी से रोज़गार मांग रहे हैं यह बात दुनिया को बता रहे हैं लेकिन रोज़गार न देने पर मोदी को वापस जाना होगा केवल भारत को बता रहे हैं. इन युवाओं को आज दोपहर 12 बजे तक साठ लाख ट्वीट करने की क्या ज़रूरत थी. वे क्या समझते हैं कि इससे कल के सारे अखबारों में पहली हेडलाइन बन जाएंगे? कोटा के एक मास्टर साहब रवि मोहन तो बकायदा बता रहे हैं कि हैशटैग कैसे ट्रेंड कराना है, इसी को टूलकिट कहते हैं. दुआ कीजिए इनके घर में ED छापे न डाले और पुलिस फरज़ी केस में न फंसा दे.

#मोदीरोज़गारदो यह मात्र ट्रेंड नहीं है. यह उस सामूहिक बेचैनी, हताशा और क्रोध की अभिव्यक्ति है जिसमें सिर्फ केंद्र सरकार की परीक्षाएं और भर्तियां ही नहीं हैं, बल्कि तमाम राज्यों की भर्ती परीक्षाएं हैं. बिहार, बंगाल, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक। तभी तो साठ लाख ट्वीट कर रहे हैं. टाइमली एगज़ाम, टाइमली रिज़ल्ट, इंक्रीज़ वेकेंसी ये सब भी भारत के भीतर टॉप टेन में ट्रेंड कर रहा था.

परीक्षा, रिज़ल्ट और नियुक्ति के साथ साथ गायब होती भर्ती ये भारत का इतना बड़ा मसला है कि मुझे कई बार घोषणा करनी पड़ती है कि नहीं करेंगे क्योंकि आप कर ही नहीं सकते. हर राज्य में घोटाले घपले की इतनी कहानियां हैं कि इसके लिए अलग से किसान चैनल की तरह भर्ती चैनल की ज़रूरत है. वैसे किसान आंदोलन के दौरान आप लोगों ने एक बार भी किसान चैनल की बात नहीं की. ये बात मैं आतंरिक रुप से बता रहा हूं. अभी इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस ए बोबडे ने कहा कि प्रश्न पत्र लीक देश की शिक्षा प्रणाली को बर्बाद कर रहा है. यह उस समय की खबर है जब भारत विश्व गुरु हो चुका है, बताइये. और प्रश्न पत्र है कि लीक हुआ जा रहा है. 

मामला कर्नाटक का था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मध्य प्रदेश के व्यापम जैसे मामले शिक्षा प्रणाली को खराब कर रहे हैं. चीफ जस्टिस ने तो यह भी कह दिया कि हम जानते हैं कि मध्य प्रदेश में व्यापम मामले में क्या हुआ था. यह कोई साधारण बात तो नहीं है. कर्नाटक में 2016 में रसायन शास्त्र के प्रश्नपत्र लीक का मामला सामने आया था. जिसके एक आरोपी को हाईकोर्ट से ज़मानत मिल गई। और सह आरोपी आरोप मुक्त हो गया. बिहार में तो पेपर लीक के मामले में आए दिन विपक्ष के नेता सवाल उठाते रहते हैं. सवाल उठाने से पेपर लीक बंद नहीं होते ये बिहार ने साबित किया है.

सरकारी नौकरियां कम हो रही हैं. निकलती हैं तो कभी पूरी नहीं होती हैं. एकाध पूरी होंगी बाकी अधूरी रह जाती हैं. यही पैटर्न आपको सभी राज्यों में दिखेगा. राहुल गांधी ने भी इस मामले में ट्विट करते हुआ है कि फेल सरकार, महंगाई की मार, बेरोज़गारी की सब हदें पार, #modi_job_do.

बुधवार को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में अलग अलग जगह पर सैकड़ों कि संख्या में युवा रोज़गार के मुद्दे पर सड़क पर उतरे. सुबह 11 बजे बालसन चौराहा से यह प्रदर्शन शुरू हुआ. ये छात्र खाली पड़े पदों पर जल्दी भर्ती की मांग कर रहे हैं. पुलिस ने यह कहकर उन्हें हटा दिया कि पत्थर गिरजाघर धरना स्थल बनाया गया है और छात्र वहां पर चले जाएं. इसके बाद छात्र पत्थर गिरजाघर पहुंचे. छात्रों का आरोप है कि जब वो शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे थे तब प्रशासन ने ज़बरदस्ती बलपूर्वक गिरफ्तार कर लिया. कुल 27 लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से नौ महिलाएं थीं. गुरुवार 2 बजे तक यह छात्र रिहा नहीं हो पाए थे.

दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं ने भी इलाहाबाद के सलोरी में सभाएं की. इस दौरान जुलूस निकाला गया जिसमें सैकड़ो युवाओं ने भागीदारी की. रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने, निजीकरण को रोकने, सभी खाली पदों को भरने, नए पदों का सृजन करने और नई शिक्षा नीति को रद्द करने जैसी मांगे रखी गई.

प्रधानमंत्री परीक्षा पर चर्चा करते हैं. 10वीं और 12वीं के छात्रों के साथ. मगर 12वीं के बाद के युवाओं को भी परीक्षा के तनावों से गुज़रना होता है. यह तनाव कोर्स के पूरा होने और तैयारी का ही नहीं है. पेपर लीक होने से लेकर रिज़ल्ट के आने का भी तनाव होता है जिसने न जाने कितने युवाओं की ज़िंदगी बर्बाद कर दी है और इस तनाव के लिए युवा ज़िम्मेदार नहीं हैं. सिस्टम ज़िम्मेदार है. बहरहाल परीक्षा के तनाव से ग्रस्त जिन युवाओं ने ट्रेंड का रास्ता चुना है वो इस वीडियो को देख सकते हैं. शिक्षा मंत्री ने आज ही इस वीडियो को ट्विट किया.

साठ लाख ट्वीट के बाद तो केंद्र सरकार को प्रेस कांफ्रेंस करनी चाहिए थी. युवाओं को कुछ बताना चाहिए कि अभी निजीकरण करना है. सरकारी नौकरी का दौर नहीं है. यह सब ठीक से बताने में क्या हर्ज है. सिर्फ आज नहीं ट्रेंड हुआ है. रविवार को भी हुआ और सोमवार को भी हुआ था. अब मेरा युवाओं से कुछ प्रश्न है. उन्हें क्यों लगा कि 35 और 60 लाख ट्वीट करने से रोज़गार पर बात होने लगेगी?

युवा भी सरकार के साथ साथ खुद से यह सवाल करें, 93 दिनों से भारत के करोड़ों किसान आंदोलन पर हैं, क्या उनके बीच किसान आंदोलन को लेकर बात हुई? किसान आंदोलन के प्रति उनकी राय क्या वही है जो गोदी मीडिया ने बनाई है? ऐसा हो सकता है कि किसानों के आंदोलन के प्रति आप गोदी मीडिया देख कर राय बनाएं और अपने हैशटैग के कवर न करने पर आप गोदी मीडिया का मज़ाक भी उड़ाए? अगर गोदी मीडिया हैशटैग आंदोलन कवर कर देता है तो क्या वह पाक साफ हो जाता है? अगर इतनी सीमित और तात्कालिक सोच है तो फिर युवाओं को जलेबी बांटनी चाहिए कि उनका आंदोलन सफल रहा क्योंकि किसी मंत्री या गोदी मीडिया ने उन्हें किसानों की तरह आतंकवादी नहीं कहा. आंदोलन का मतलब केवल साहस नहीं होता है. आंदोलन के कारणों को लेकर साफ समझ बहुत ज़रूरी होती है और उस समझ का व्यापक होना बहुत ज़रूरी होता है.

यह सवाल इसलिए किया क्योंकि बहुत सारे ट्विट को पढ़ते ही साफ नहीं हो सका कि ये युवा किसान आंदोलन के बारे में क्या सोचते हैं? न तो किसानों के प्रति समर्थन दिखा और न उनके मुद्दों का ज़िक्र. इसका मतलब यह नहीं कि हैशटैग ट्रेंड करा देना बेमानी हो गया. क्या वाकई ट्विटर पर ट्वीट की संख्याओं का कोई खास मतलब होता है, इस सवाल पर क्या युवा सोचना चाहेंगे? कौन ट्वीट करता है उस पर निर्भर करता है या केवल संख्या से तय होता है? अगर साठ लाख ट्वीट की संख्या का महत्व होता तो आज तो बहुत बात होती रोज़गार पर? एक साल पहले 17 सितंबर 2020 को भी रोज़गार को लेकर 35 लाख ट्वीट हुए थे, प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर. क्या हुआ? अच्छी बात है कि युवाओं ने हार नहीं मानी और अपनी आवाज़ उठाने के इस सबसे सुरक्षित माध्यम पर बार बार लौट कर आए. कार्यक्रम की शुरूआत में मैंने सांप्रदायिक नागरिकता का इस्तमाल किया उसे भूल मत जाइयेगा.

ट्विटर पर ट्रेंड कराने के लिए बनाए गए ये मीम युवाओं की बेचैनी का प्रदर्शन करते हैं, उनकी हताशा भी झलकती है, वे प्रधानमंत्री पर कटाक्ष करते हैं, कभी-कभी सरकार को ललकारते हैं. आईटी सेल ने इन युवाओं को जिस तरह की अभिव्यक्ति दी है उसी शैली में जवाब दे रहे हैं. इससे आप देखेंगे कि कोई अलग असर पैदा नहीं होता है. कई दिनों तक लाखों ट्वीट करने के बाद भी रोज़गार का सवाल केवल परीक्षा और नियुक्ति पत्र तक सिमट जाता है. मुमकिन है युवा खुद को गैर राजनीतिक दिखाना चाहते हों लेकिन रोज़गार का सवाल तो राजनीतिक है. इसके लिए सरकार और विपक्ष पर समान रूप से दबाव बनाना पड़ता है और उनसे रिजल्ट नहीं रोज़गार की नीतियों के बारे में पूछना होता है. तब युवाओं को उन आर्थिक नीतियों को लेकर सवाल करने होंगे जो जीडीपी के आंकड़े तो देते हैं मगर रोज़गार के आंकड़े नहीं देते हैं. अपना देखने और कतरा कर निकल जाने की आदत हमारे युवाओं को इस हद तक संकुचित कर चुकी है कि लाखों ट्वीट में आपको उनके ही बीच की एक युवा दिशा रवि और नौदीप कौर को लेकर कोई राय नहीं दिखेगी. जबकि ट्रेंड कराने के लिए इन युवाओं ने भी वही टूलकिट बनाए जिसके आरोप में दिशा रवि 7 दिनों तक जेल में बंद रही. अपने समय के राजनीतिक प्रश्नों से कटने की यह सावधानी मां-बाप को पसंद तो आएगी लेकिन इससे हासिल कुछ नहीं होता है. अगर सारा प्रयास इस बात को लेकर है कि कहीं छप जाए और दिख जाए तो फिर उन्हें इसका मूल्यांकन करना चाहिए कि जहां छपना है या दिखना है उस प्रेस की क्या हालत है. उसकी विश्वसनीयता भारत और दुनिया में क्या है.

क्या युवाओं से आर्थिक नीतियों के आर पार देख लेने की उम्मीद करनी चाहिए? क्या उसके बग़ैर रोज़गार का प्रश्न इस राजनीति में स्थापित होगा? प्रधानमंत्री ने लोकसभा में निजीकरण और सरकारी नौकरी को लेकर जो बात कही उस पर भी ट्रेंड के दौरान गंभीर प्रतिक्रिया नहीं दिखी. जबकि पकौड़ा तलने से लेकर आईएएस भी हवाई जहाज़ उड़ाएगा वाली बात सबके सामने कही गई है. उम्मीद है इस बयान से प्रभावित मां बाप बच्चों को आईएएस की तैयारी छोड़ देने के लिए कहेंगे.

सरकारी नौकरी का सपना देखना कोई खराब सपना नहीं है. प्राइवेट सेक्टर अगर नौकरी दे पा रहा होता तो युवा सरकारी नौकरी की तरफ कम देखते. महामारी के दौरान करोड़ों लोग प्राइवेट सेक्टर से ही बेरोज़गार हुए. नौकरी और सैलरी की शर्तें खराब हो चुकी हैं. व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में रिश्तेदारों के ग्रुप बच्चों को डांट रहे हैं कि प्राइवेट सेक्टर रोज़गार देता है. निजीकरण ज़रूरी है. किस वेल्थ क्रिएटर ने कितना रोज़गार दिया, कोई आंकड़ा नहीं है. सरकार ने कितना रोज़गार दिया, कोई आंकड़ा नहीं है. किस तरह का रोज़गार दिया है इसका भी आंकड़ा नहीं है. इसका आंकड़ा तो है कि हमारे देश के कुछ सबसे अमीर वेल्थ क्रिएटर्स की वेल्थ में कोरोना महामारी के दौरान 35 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ. लेकिन इसका आंकड़ा नहीं है कि कोरोना के कारण कितने लोग बेरोज़गार हुए. क्या इन सब प्रश्नों के बगैर किसी ट्रेंड का कोई व्यापक असर हो सकता है?

इस बीच गैस का सिलेंडर फिर 25 रुपये महंगा हो गया है. अकेले फरवरी में करीब 100 रुपया महंगा हो गया. देश की राजनीति बंगाल में जाकर जय बांग्ला और जय श्री राम में सिमट चुकी है. महंगाई से त्रस्त इस देश की यह हालत है कि चुनाव इन स्लोगनों के बोले जाने को लेकर हो रहे हैं. राजनीति को इस लेवल पर कौन लाया अब सवाल खत्म हो चुका है लेकिन इस लेवल कौन बार बार लाए जा रहा है यह भी दिखाई नहीं देता है. जनता की जेब खाली हो रही है. उसकी कमाई कम होती जा रही है.

नागरिक जीवन के तानव सिर्फ दाम और नौकरी के नहीं हैं. दंगों के भी हैं. करीब 11 महीने तक बिना सबूत के जेल में बंद कर दिए गए उन ग़रीब लोगों पर क्या गुज़री होगी. गोली मारने के नारे लगाने वाले से पूछताछ तक नहीं होती है लेकिन तीन ग़रीब बिना सबूत के दंगों के आरोप में उठाकर जेल में बंद कर दिए जाते हैं. जुनैद, इरशाद और चांद मोहम्मद के लिए भारत के युवा साठ लाख ट्वीट नहीं करेंगे, ये मैं जानता हूं. दिल्ली हाई कोर्ट ने इन्हें 19 फरवरी को ज़मानत दी, प्रक्रियाएं इतनी जटिल हैं कि बाहर आते-आते 19 से 24 फरवरी हो गया. जिस इमारत पर होने के आरोप में चांद मोहम्मद, जुनैद और इरशाद को गिरफ्तार किया गया, तीनों उस इमारत पर थे ही नहीं. उमर खालिद भी तो दिल्ली से बाहर थे, जेल में हैं, साज़िश रचने के आरोप में. परिमल कुमार की यह रिपोर्ट आप देख सकते हैं.

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दिल्ली दंगों में 53 लोग मारे गए थे. 600 से ज़्यादा घायल हुए. पुलिस कहती है कि 1800 से अधिक दंगाई गिरफ्तार हुए. इसमें से तीन तो अभी ज़मानत पर इसलिए छोड़े गए कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं था. इन दंगों में घायल हुए लोगों में लगभग दर्ज़न लोग ऐसे हैं जो विकलांग हो चुके हैं. कुछ तो ऐसे हैं जो अब भी बिस्तर पर हैं और जो कभी वापस खड़े नहीं हो पाएंगे.