22 जुलाई के इंडियन एक्सप्रेस में जॉय मज़ुमदार की एक ख़बर पहले पन्ने पर छपी है. नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइन (NBWL) की स्टैंडिंग कमेटी ने पर्यावरण मंत्रालय से कानूनी सलाह लेकर फ़ैसला दिया है कि तेल और गैस के लिए की जाने वाली ड्रिलिंग खनन की परिभाषा में नहीं आती है. राजस्थान के सरिस्का अभ्यारण्य से एक किमी दायरे में ड्रिलिंग के विरोध में मुकदमा हुआ था. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि नेशनल पार्क और अभ्यारण्य के एक किमी के दायरे में कोई खनन कार्य नहीं होगा. तो इस फैसले का काट यह निकाला गया कि माइनिंग और ड्रिलिंग की परिभाषा अलग-अलग कर दी गई जबकि रिपोर्ट में लिखा है कि ड्रिलिंग भी माइनिंग विभाग की निगरानी में होती थी. अब इस फैसले के क्या मायने हैं, पहलू हैं, हम लोग कैसे समझ सकते हैं जब स्टैंडिंग कमेटी के सदस्यों ने यह कह कर नई व्याख्या स्वीकार कर ली कि वे तो संरक्षण के विशेषज्ञ हैं, कानून के नहीं. नेता भाषण बहुत अच्छा देते हैं, उद्घाटन वृक्षारोपण का करते हैं और समापन जंगलों का हो जाता है. पर्यावरण को लेकर इतनी तो जागरूकता आ ही गई है कि हम सभी गिलोई का पौधा लगाने लगे हैं और स्कूलों में ड्राईंग कंपिटीशन बढ़ गया है. कई स्कूलों में पर्यावरण के थीम पर एक से एक कार्यक्रम भी होते हैं. इस संकट ने कल्चरल प्रोडक्शन की तादाद बढ़ा दी है मगर संकट नहीं दूर हो रहा है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2014 में 20,201 भारतीय तरह-तरह की प्राकृतिक आपदाओं में मारे गए. महानगरों का आलम यह है कि जिसे हम पहले जलभराव कहते थे वो अब बाढ़ का रूप लेने लगा है. अब बाढ़ के लिए नदी की ज़रूरत नहीं है, बारिश होने पर शहर जाम होता है और बाढ़ आ जाती है. ये शहरी बाढ़ है जो कंक्रीट के करामात से आती है. असम में बाढ़ राष्ट्रीय ख़बर नहीं है लेकिन दिल्ली का मीडिया यमुना नदी के मैदान में बाढ़ का पानी देखते ही सक्रिय हो जाता है. उसे सदमा लग जाता है जब देखता है कि जहां विश्व सांस्कृति कार्यक्रम हुआ था वहां बाढ़ का पानी कैसे पहुंच सकता है. बस रिपोर्टर जीवन सुरक्षा जैकेट पहनकर स्पाइडरमैन की भूमिका में रिपोर्टिंग करने लगता है.
बाढ़, सूखा, अगलगी अब ये सब पुराने शब्द हो चुके हैं. इनकी जगह आपदा का इस्तेमाल होने लगा है. आपदा के साथ खूबी ये है कि प्रबंधन आराम से लग जाता है. वन न रहे, पर्यावरण न रहे, नदी न रहे, तालाब न रहे मगर आपदा प्रबंधन जब तक है चिंता की बात नहीं है. पर्यावरण मंत्रालय के तहत होता तो थोड़ा भरोसा कम भी होता मगर अच्छी बात यह है कि आपदा प्रबंधन गृह मंत्रालय के तहत है. वन विभाग उन जगहों पर भी है जहां वन नहीं हैं. जहां वन के नाम पर उद्यान लगाए जा रहे हैं जबकि उद्यान विभाग भी अलग से है.
इसी महीने आपने न्यूज़ चैनलों में चंद सेकंड की ये फुटेज देखी होगी. अंटार्कटिका पेनिनसुला के किनारे का ये हिस्सा दरक कर अलग हो गया. इस छोर को लार्सन सी आइस शेल्फ़ कहते हैं. शेल्फ़ हिमखंड के उस हिस्से को कहते हैं जो समुद्र पर तैरता है. इस दरकन से दुनिया भर के वैज्ञानिकों में हलचल है. जो हिस्सा अलग हुआ है वो किनारे से 1100 फुट मोटा है, या गहरा भी कह सकते हैं और इसका फैलाव 5800 वर्ग किलोमीटर है. जिसमें दो-दो दिल्ली समा जाएं. ये आइस शेल्फ़ हज़ारों साल पुराने हैं. किस कारण से दरार आई है, ठोस जवाब नहीं है. दुनिया के ज्ञात इतिहास में आइसबर्ग के पिघलने या दरकने की ये तीसरी बड़ी घटना है.
हमारे सहयोगी सुशील बहुगुणा हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने पर कई रिपोर्ट कर चुके हैं. उनकी नज़र बराबर रहती है कि वहां की ताज़ा घटना क्या है. ग्लेशियरों की बर्फ़ का 96% हिस्सा अंटार्कटिका में है और उसके बाद 12% हिस्सा आर्कटिक इलाके में ग्रीनलैंड पर है. इसके बाद सबसे ज़्यादा ग्लेशियर हिमालय में हैं जिसे इसी वजह धरती का तीसरा ध्रुव कहा जाता है.
गंगोत्री सबसे बड़े ग्लेशियरों में से एक है जिससे निकलने वाला पानी उत्तर भारत की पचास करोड़ की आबादी की प्यास बुझाता है. लेकिन बीती एक दो सदी इस ग्लेशियर पर भारी बीती हैं, ये लगातार पीछे खिसकता जा रहा है. हालांकि ताज़ा वैज्ञानिक सर्वे बता रहे हैं कि इस ग्लेशियर के पीछे खिसकने की रफ़्तार कम हुई है. 2008 से 2016 तक के अध्ययन के मुताबिक अब ये हर साल 11 मीटर पीछे खिसक रहा है जबकि 1974 में इसके पीछे खिसकने की दर औसतन 35 मीटर प्रतिवर्ष थी. एक अन्य अध्ययन के मुताबिक 1817 से अब तक ये ग्लेशियर तीन किलोमीटर पीछे खिसक चुका है. इसमें भी ज़्यादा चिंता की बात ये है कि तीस किलोमीटर लंबे इस ग्लेशियर का बेस लगातार पतला होता जा रहा है यानी इसकी बर्फ़ की मोटाई लगातार घट रही है. भोजबासा का जंगल ही समाप्त हो गया. भोजपत्र तो आपने सुना ही होगा जिस पर प्राचीन पांडुलिपियां लिखी जाती थीं.
ये हाल यहीं नहीं है. हिमालय के पार लद्दाख इलाके में भी मानवीय गतिविधियों का असर ग्लेशियरों पर दिखने लगा है. ख़ासतौर पर लेह को पानी सप्लाई करने वाला फूचे ग्लेशियर काफ़ी सिकुड़ चुका है. इस ग्लेशियर के पानी से ही लेह के आसपास के इलाकों में ज़मीन के अंदर से पानी के कई स्रोत निकलते थे लेकिन अब ये काफ़ी कम हो गये हैं. इसी वजह से लेह इलाके को अब पानी के संकट का सामना करना पड़ रहा है.
पर्यावरण संकट की सबसे बड़ी ख़ूबी होती है कि इसके लिए नैतिक रूप से कोई ज़िम्मेदार नहीं होता है तो आप किसी का इस्तीफा नहीं मांग सकते हैं. अब आते हैं उन चीज़ों पर जो पर्यावरण संकट के कारण हमेशा के लिए धरती से मुक्त हो चुके हैं. 10 जुलाई के गार्डियन अख़बार में एक रिपोर्ट छपी कि हमारी धरती छठे मास एक्सटिंगशन की ओर बढ़ रही है. मास एक्सटिंगशन मतलब ऐसे हालात का बनना जिसमें बड़ी संख्या में जीव जंतुओं की प्रजातियां हमेशा के लिए लुप्त हो जाती हैं.
रिसर्चर का कहना है कि बहुत सारे जीव जंतु जो सामान्य तौर पर यहां वहां दिख जाते हैं वो भी अब विलुप्त होने की कगार पर हैं. प्रोफेसर Gerardo ceballos ने कहा है कि स्थिति इतनी भयावह है कि अगर कठोर शब्द का इस्तेमाल ना किया जाए तो और भी बुरा होगा. एक अमेरिकी वैज्ञानिक का कहना है कि जब तक सब विलुप्त नहीं हो जाता है तब तक एक्सटिंक्शन कहना ठीक नहीं मगर स्थिति भयावह है. पहले धरती से जीव जंतुओं को ग़ायब होने पर लाखों वर्ष लगे, मगर अब चंद वर्षों में ही कई जीव जंतु विलुप्त होते जा रहे हैं. जितने भी जीव जंतु हैं उनका आधा धरती से ग़ायब हो चुका है.
भारत में पर्यावरण और जीव जंतुओं पर काम करने वाले कुछ लोग लगातार इन चीज़ों का दस्तावेज़ तैयार कर रहे हैं. हमारी सहयोगी स्वाति त्यागराजन की लिखी एक किताब पिछले ही हफ्ते रिलीज़ हुई है. बॉर्न वाइल्ड. इसे ब्लूम्सबरी इंडिया ने छापा है. करीब 600 रुपया दाम है. बॉर्न वाइल्ड चैनलों की दुनिया में अकेला ढंग का कार्यक्रम था. अब तो चैनल ख़ुद ही वाइल्ड हो गए हैं. स्वाति ने ही मुझे प्रेरणा बिंद्रा की किताब The Vanishing पढ़ने के लिए कहा. यह किताब पेंग्विन से आई है और करीब 600 रुपये की है. आप जानते हैं कि मैं किताब का दाम और प्रकाशक ज़रूर बताता हूं. हमारे सहयोगी हृदयेश जोशी ने भी केदारनाथ आपदा के बाद एक किताब लिखी है, तुम चुप क्यों रहे केदार. हृदयेश की किताब पेंग्विन से है और 277 रुपये की है. दि वैनिशिंग को पढ़ते हुए लगा कि इसे दर्शकों के बीच ले जाना चाहिए.
आपको डायनासोर याद है? हमारे आपके बच्चे अब प्लास्टिक के डायनासोर से खेलते हैं. साढ़े छह अरब साल पहले जब धरती से एक ऐस्टेरॉइड टकराया था तब आधे जीव जंतु ग़ायब हो गए. सामान्य रूप से जीव जंतु धरती से गायब होते रहते हैं मगर उनकी रफ्तार काफी धीमी होती है. हर साल एक से पांच जीव जंतु धरती से विदा होते रहे मगर हाल के वर्षों में एक साल में एक हज़ार से लेकर दस हज़ार जीव जंतु हमेशा के लिए ग़ायब हो रहे हैं.
भारत की धरती से एशियाटिक चीता हमेशा के लिए ग़ायब हो गया. जब भारत आज़ाद हुआ तब तीन नर चीता छत्तीसगढ़ के कोरिया में मौजूद थे. लेकिन वहां के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह ने उन्हें मार दिया. राजा साहब को 1100 टाइगर मारने का गौरव हासिल है. पिछली सरकार नामीबिया से चीता आयात करना चाहती थी मगर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी.
1875 से 1915 के बीच कोई दो लाख भेड़िए, डेढ़ लाख तेंदुओं का शिकार हुआ. 1935 तक बिहार के दरभंगा में गुलाबी सिर वाली बत्तख होती थी लेकिन उसके बाद से देखी ही नहीं गयी. टाइगर यानी बाघ भी विलुप्त हो रहा था मगर इस दिशा में जो प्रयास हुए उसके कुछ तो सकारात्मक नतीजे आए हैं.
भारत में तरह-तरह के नेशनल पार्क और वाइल्ड लाइफ़ सेंक्चुअरी हैं. उनके भीतर की दुनिया में क्या बदलाव हो रहे हैं, हमें नहीं मालूम. क्योंकि हम उत्तर भारत के दस बारह नेताओं के बयान में ही उलझे रहते हैं और उनके बयान में कभी नेशनल पार्क या जीव जंतुओं के सवाल तो आते नहीं. प्रेरणा बिंद्रा ने लिखा है कि कई अभयारण्यों को फंड भी समय से नहीं मिलता है और मिलता भी है तो अब कम मिलता है.
1969 में इंडियन बस्टर्ड की पहली बार गणना की गई, तब इसकी संख्या 1260 थी. अब ये विलुप्त होने के कगार पर है. 100 के आसपास ही बची है. हंगुल भी दो सौ - तीन सौ की संख्या में बचे हैं. 1990 के बाद से अब तक हमने विकास के लिए 250 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के बराबर जंगल काट दिए हैं. तो ज़ाहिर है कि इन जीव जंतुओं का घर बार उजड़ गया होगा. तमाम फूल पत्तियां भी तो ग़ायब हो गई होंगी. ये घड़ियाल है. चंबल के इलाके में पाया जाता है मगर 22 फुट लंबा होने के बाद भी शर्मीला होता है. तस्करों ने इसे मार कर हमारे लिए पर्स और जूते बनवा दिए और जब ग़ायब होने लगा तो इसे बचाने का प्रयास हुआ. मगर अब तो घड़ियाल के रहने की जो प्राकृतिक जगह है उसका 90 फीसदी हिस्सा नष्ट हो गया है.
हम जिन जीव जंतुओं को देवी-देवता का साथी मानकर पूजते हैं वो भी नहीं बचा पा रहे हैं. दि वैनिशिंग में हाथी की हालत पढ़कर मन दुखी हो गया. क्या अब हाथी भी समाप्त हो जाएंगे?
उड़ीसा का एक वीडियो है. वीडियो में दिखता है कि बाल हाथियों की मां लक्ष्मी जितना अपने बच्चों से प्यार करती है उतना ही इन उद्दंड मानव बच्चों का भी ख्याल रखती है. जंगल ख़त्म हो गए तो चलते-चलते जानवर इंसान की आबादी तक आ जाता है. इंसान है कि घेरा बनाकर उसे मारने लगता है. इस हाथी को किस तरह छेड़ा जा रहा है और लक्ष्मी नाम की हाथी कैसे धमका कर वापस अपने बच्चों के पास लौट जा रही है. इसका घर छिन गया है मगर किसी को ख्याल नहीं. विकास के नाम पर जंगलों को बर्बाद कर दिया गया फिर इस देश में 24 फीसदी किसान ग़रीबी रेखा से नीचे हैं. ग़रीबी का आलम ऐसा है कि क्या रेखा और क्या बिना रेखा.
हम कितनी बार कहते हैं कि भारत की सड़कों पर हर साल सवा लाख से ज़्यादा लोग दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं. हमने कभी नहीं सोचा कि नेशनल पार्क के बीच या किनारे से गुज़रने वाली सड़कों पर भी हज़ारों लाखों की संख्या में जानवर कुचल कर मार दिए गए.
This Article is From Jul 28, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो: कुदरत के साथ खिलवाड़ कब तक?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
-
Updated:जुलाई 28, 2017 23:35 pm IST
-
Published On जुलाई 28, 2017 23:35 pm IST
-
Last Updated On जुलाई 28, 2017 23:35 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं