चुनावी सनसनी से अब तक बचा कैसे है गुजरात...?

देश पहली बार देख रहा है कि एक छोटे से राज्य के लिए केंद्र के दर्जनों मंत्रियों को अपना सारा काम धाम छोड़कर वहां डेरा डालना पड़ रहा है. गुजरात में ऐसा माहौल बन जाने के क्या-क्या कारक हो सकते हैं?

चुनावी सनसनी से अब तक बचा कैसे है गुजरात...?

गुजरात चुनावी सनसनी फैलाने में शुरू से मशहूर रहा है. एक समय था जब गुजरात को सांप्रदायिक विचारों के क्रियान्वयन की प्रयोगशाला कहा जाता था. गुजरात ही है जहां धर्म आधारित मुद्दों को ढूंढने और ढूंढकर पनपाने के लिए एक से एक विलक्षण प्रयोग हमें देखने को मिले. लेकिन यह भी एक समयसिद्ध तथ्य है कि चुनावी राजनीति में एकरसता नहीं चल पाती. इसीलिए हर बार बड़े कौतूहल के साथ इंतजार रहता है कि क्या नई बात की जाएगी. इस बार भी गुजरात में अबतक यही इंतजार है. लग रहा था कि वहां सत्तारूढ़ भाजपा अपनी जरूरत के मद्देनजर इस बार विकास का मुद्दा लेकर आएगी, लेकिन इस बार प्रदेश के नेता के तौर पर वहां नरेंद्र मोदी नहीं हैं. प्रधानमंत्री बन जाने के बाद वहां उनके लिए चुनावी जादूगरी दिखाने के मौके भी कम हो गए हैं. बहरहाल दो राय नहीं कि वहां भाजपा को एड़ी-चोटी का दम लगाना पड़ रहा है. देश पहली बार देख रहा है कि एक छोटे से राज्य के लिए केंद्र के दर्जनों मंत्रियों को अपना सारा काम धाम छोड़कर वहां डेरा डालना पड़ रहा है. गुजरात में ऐसा माहौल बन जाने के क्या-क्या कारक हो सकते हैं? राहुल गांधी ने वहां क्या काम किया? हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश की कितनी भूमिका रही? नोटबंदी और जीएसटी का गुजरात पर पीछे से क्या असर पड़ गया? वैश्विक मंदी के इस दौर में गुजरात मॉडल के प्रचार की क्या गत हुई? वहां बेरोजगारी की हालत कैसी है? ये वे सवाल हैं जो गुजरात के मौजूदा चुनावी हालात को समझने में मदद कर सकते हैं. लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पिछले कई चुनाव वहां ऐन मौके पर धार्मिक भावनाओं पर ही टिकाए जाते रहे हैं. सो चुनावी रणनीतियों में इस सबसे कारगर हथियार का मोह कैसे छूट पाएगा? इसका अनुमान लगाना सबसे दिलचस्प होगा.

गुजरात के बदले माहौल में कांग्रेस की भूमिका
यह भूला जा रहा है कि पिछले दिनों राज्यसभा की एक सीट के लिए अहमद पटेल के जीतने से सनसनी फैल गई थी. उस चुनाव के लिए जैसा समीकरण था, उसमें जोड़तोड़ की गुंजाइश थी. जिसके आधार पर माना जा रहा था कि भाजपा उम्मीदवार को हराना लगभग असंभव है. लेकिन अहमद पटेल की जीत ने भाजपा का वह करिश्मा तोड़ डाला था. वह पहली ऐसी घटना थी जिसके बाद यह कहा जाने लगा कि गुजरात में मोदी-शाह का तिलिस्म अब टूटने लगा. और अगर पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों को याद करेंगे तो कोई भी अनुमान लगा सकता है कि कांग्रेस वहां एक टक्कर की प्रतिद्वंदी है.

गुजरात मॉडल के प्रचार का कमजोर पड़ना
यह समय यह याद करने का भी है कि गुजरात मॉडल का प्रचार गुजरात के चुनावों के लिए नहीं, बल्कि मोदी को देश का नेता बनाने के एक उपाय के तौर पर इस्तेमाल किया गया था. उस मामले में भाजपा कामयाब हो चुकी है. सो बहुत संभव है कि उस प्रचार को बनाए रखने की जरूरत ही नहीं समझी गई हो. यहां बिहार में भी इस नारे की पराजय को याद किया जा सकता है. विकास मॉडलों के सच-झूठ का आकलन भले ही बड़ा कठिन काम होता हो, लेकिन मीडिया के प्रभुत्व वाले युग में इसके प्रचार का काम कठिन नहीं था, जिसे भाजपा पकड़े रह सकती थी.

नोटबंदी ने गच्चा दे दिया
गुजरात को व्यापारियों और कारीगरों वाला प्रदेश माना जाता है. नोटबंदी से उसे भारी झटका लग गया था. यह ऐसा संकट था जिसे प्रचार से संभाला नहीं जा सकता था लेकिन केंद्र सरकार ने उसी के सहारे इस संकट को खारिज करने की कोशिश की. आज नोटबंदी की जयंती या बरसी पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो बोला है उसमें उन्होंने गुजरात के सूरत में करघा उद्योग की तबाही का ज़िक्र एक हवाले के तौर पर किया है. उनके दिए आंकड़े एक अर्थशास्त्री के दिए आंकड़े हैं सो उन्हें ग़लत साबित करने के लिए तर्क ढूंढने में बहुत दिक्कत आने वाली है.

जीएसटी ने रही सही कसर पूरी कर दी
नोटबंदी के बाद जीएसटी ने जले पर नमक छिड़कने जैसा काम किया. खासतौर पर कपड़ा व्यवसाय पर पांच फीसदी टैक्स लग जाना.  मतदाताओं में धार्मिक भावनाएं टिकाए रखी जा सकती हैं, लेकिन तभी तक जब तक उसकी आमदनी पर कोई फर्क न पड़े. गुजरात के बहुसंख्य कपड़ा व्यापारी इस टैक्स से इतने परेशान हो गए कि पहली बार सड़क पर उतर आए थे. उन्हें कितना भी समझाया जाए कि यह टैक्स आपको नहीं बल्कि खरीददार से लेना है लेकिन वे जानते हैं कि व्यापार में किसी चीज के महंगे होने से धंधे पर कैसा घातक असर पड़ता है. हिसाब किताब रखने का झंझट अलग उन्हें परेशान कर गया. गुजरात चुनाव में अभी यह मुद्दा उतना बड़ा दिख भले ही नहीं रहा हो, लेकिन अंदर-अंदर असर बहुत कर रहा होगा.

धर्माधारित राजनीति के असर का फैक्टर
बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आधारित राजनीति को ही सांप्रदायिक राजनीति समझा जाता है. अपने देश में इसका मतलब हिंदू- मुसलमान से लगाया जाता है. लेकिन सामान्य अनुभव है कि धर्म आधारित इस राजनीति की धार इसके बहुतायत में इस्तेमाल से कुंद भी पड़ने लगती है. पिछले चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा ने अपना मुख्य चुनाव प्रचार अभियान विकास के नाम पर चलाया था, लेकिन बाद में पूरक उपाय के तौर पर ऐन मौके पर भारत-पाकिस्तान भी जोड़ दिया था. ऐसा कोई विश्वसनीय पर्यवेक्षण या सर्वेक्षण उपलब्ध नहीं है कि किसी मुद्दे का कितना असर पड़ा, लेकिन थोड़ा ही सही धर्म आधारित प्रचार का असर पड़ता ही है. राजनीति में थोड़े से को भी बहुत माना जाता है.

गुजरात में नई सनसनी, 'राम' और 'हज' का पोस्टर
गुजरात में नवीनतम सनसनी बनाने की कोशिश एक पोस्टर में दिखती है. कथित रूप से अज्ञात लोगों के लगाए इस पोस्टर में भाजपा के रूपानी, अमित शाह और मोदी के पहले अक्षरों को उठाकर राम बनाया गया है और भाजपा के जबर्दस्त प्रतिद्वंद्वियों हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के आद्याक्षरों से एक शब्द 'हज' बनाया गया है. इस पोस्टर में गुजरात के तीनों युवा नेताओं की त्रिमूर्ति को हज बनाकर राहुल गांधी और कांग्रेस से जोड़ा गया है. 'राम' और 'हज' का यह वर्गीकरण धार्मिक भावनाओं के इस्तेमाल के अलावा क्या किसी और गरज से किया काम माना जा सकता है? यहां संतोष की बात इतनी है कि पोस्टर लगाने वालों ने अपनी पहचान उजागर नहीं की है. संतोष की एक और बात यह है कि फिलहाल अपनी पहचान छुपाकर लोकलाज का ध्यान रखा गया है.

खास बातों पर गौर के बाद यह आसानी से कहा जा सकता है कि गुजरात चुनाव में इस बार आखिर तक मोदी और राहुल ही दिखेंगे. इन दोनों के ही दिखने का मतलब है कि सारी बातें गुजरात से ज्यादा देश की होंगी. देश दुनिया की इन बातों में गुजरात की जनता का दुख दर्द कितना आ पाएगा यह अभी प्रश्न ही है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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