''आत्महत्या इस दौर की सबसे बड़ी राजनैतिक सच्चाई और विरोध की अभिव्यक्ति के रूप में उभर रही है..."
- इतालवी सिद्धांतकार फ्रैंको 'बिफो' बेरार्दी
हाल में यह सवाल कई लोगों के ज़हन में उठा कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला के मन में आखिर आत्महत्या का विचार कैसे आया होगा...? वह अपनी 'जन्म की दुर्घटना' से इतना असहाय क्यों हो उठा...? आखिर वह अपने संगठन की ओर से एक राजनैतिक लड़ाई लड़ रहा था और अमूमन राजनैतिक संघर्ष लोगों को मजबूत कर देता है, उनमें व्यवस्था से लड़ने का जज़्बा भर देता है...
वहीं, देश के कई हिस्सों से लगातार आ रही किसानों की आत्महत्याओं की ख़बरें भी सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि आखिर वह क्या है, जो मजबूरियों से लड़ने के बदले आत्महत्या का विकल्प चुनने को प्रेरित कर रहा है...
किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला करीब दो दशक से लगातार जारी है और हर साल अमूमन उसमें इजाफा होता जाता है... उसका दायरा भी बढ़ता जाता है... यह उन क्षेत्रों में भी फैलता रहा है, जहां आत्महत्या की घटनाएं विरले ही सुनी जाती थीं... किसानी का संकट इतने बड़े पैमाने पर है कि उससे अब शायद ही कोई इंकार करे, मगर सवाल यह है कि वह सामूहिक आंदोलन के रूप में प्रकट क्यों नहीं हो रहा है, क्यों किसान आत्महत्या को ही आखिरी विकल्प समझ ले रहा है...?
इतालवी राजनीतिशास्त्री फ्रैंको 'बिफो' बेरार्दी के मुताबिक ये घटनाएं इतने बड़े पैमाने पर हो रही हैं कि इन्हें अपवाद मानकर खारिज नहीं किया जा सकता... अपनी नई किताब 'हीरोज़ : मास मर्डरर एंड सुसाइड' में 'बिफो' कहते हैं, ''ये अब मानसिक असंतुलन की अपवाद या हाशिये की घटनाएं नहीं रह गई हैं, बल्कि ये हमारे दौर के राजनैतिक इतिहास की बड़ी सच्चाई बनकर उभर रही हैं...'' उनके मुताबिक, ये घटनाएं ''नव-उदारवादी वित्तीय पूंजीवाद की विनाशकारी व्यवस्था और उसकी आत्मघाती प्रवृत्तियों'' की बेहद चिंताजनक सच्चाइयों का खुलासा करती हैं, ''जो लोगों को घबराहट और हिंसक प्रवृत्तियों की ओर ले जा रही हैं...''
इस साल गणतंत्र दिवस पर बुंदेलखंड में एक गांव में एक किसान की आत्महत्या की ख़बर आई तो पूरा इलाका मायूसी में डूबा था... वहां एक 30-वर्षीय युवा सूरज यादव उस आत्महत्या पर रोष भी ज़ाहिर कर रहा था, लेकिन अगले दिन लोगों ने पाया कि सूरज ने भी अपने गले में फंदा लगा लिया... तो, क्या आत्महत्या विरोध का असरकारी उपाय भी मानी जाने लगी है...? इसका एक संकेत अपेक्षाकृत कम उम्र वालों की आत्महत्याओं की घटनाओं में भारी इजाफे से भी मिलता है...
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि 15 से 29 वर्ष आयुवर्ग के लोगों द्वारा आत्महत्याएं 2004 के 35 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 41 प्रतिशत हो गईं... इन्हीं से पता चलता है कि देश में हर आयुवर्ग में आत्महत्या करने की दर वर्ष 2004 में प्रति एक लाख आबादी पर 10.5 से बढ़कर 2014 में 10.6 हो गई... इस तरह पता चलता है कि हर एक लाख भारतीयों में 10 से 11 लोग लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं... आत्महत्या करने वालों में किसानों के अलावा सबसे अधिक छात्र, युवा और महिलाएं शामिल हैं... वर्ष 2004 में देश में हुई आत्महत्याओं में छात्रों का प्रतिशत 4.9 था, जो 2014 में बढ़कर 6.1 प्रतिशत हो गया... छात्रों के अलावा दूसरे वर्गों में यह इजाफा तो 2004 के 13 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 31 प्रतिशत पर पहुंच गया...
वैसे आत्महत्याएं हमारे देश में ही नहीं, दुनियाभर में बढ़ रही हैं... विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक वर्ष 1970 के बाद से आत्महत्या की दर में 60 प्रतिशत से ज़्यादा का इजाफा हुआ है... बिफो इसे ''नाखुशी और नाराज़गी की महामारी" बताते हैं... उनके मुताबिक, भूमंडलीकरण, वित्तीय पूंजीवाद वगैरह के जरिये भीषण होड़ और निपट व्यक्तिवाद की नव-उदारवादी संस्कृति जैसे-जैसे पांव पसार रही है, सामुदायिक संबंधों और सामाजिक सुरक्षा के सूत्र तथा मानवीय संबंध टूटते जा रहे हैं... इससे हिंसक और आत्महत्या की प्रवृत्तियों में भारी इजाफा हो रहा है और अब भी इसमें इजाफे की ही आशंका अधिक है...
अमूमन विरोध की सामाजिक और सामूहिक अभिव्यक्तियां अतिरेकी भावनाओं को जज़्ब कर लेती हैं और लोगों को नाउम्मीद होकर अपराध या आत्महत्या की ओर प्रवृत्त होने से रोकती हैं, लेकिन अपने देश में ही '90 के दशक में उदारीकरण के बाद से राजनैतिक विरोध की अभिव्यक्तियों में भारी कमी आई है... मोटे तौर पर सभी राजनैतिक दल मौजूदा व्यवस्था को विकल्पहीन मानने लगे हैं... उनके पास दूसरी आर्थिक नीतियां नहीं रह गई हैं... दूसरी ओर इससे भयंकर गैर-बराबरी बढ़ी है... ग्रामीण अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है... छोटे उद्योग-धंधे ठप होते जा रहे हैं... राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 70वें दौर के सर्वेक्षण में हाल में जारी आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं, लेकिन व्यवस्था से उपजते अन्याय के प्रति विरोध को कहीं आवाज़ नहीं मिलती है...
किसानी के संकट की बातें किसान आंदोलन उठा सकते थे, लेकिन अब वे पुराने दौर की बात हो चले हैं... शिक्षा महंगी और पहुंच के दायरे से बाहर होती जा रही है, मगर ऐसे छात्र आंदोलन अब विरले ही होते हैं... ऐसे में विरोध का साधन यही बचता है कि आप अपराधी हो जाएं या अपनी जान दे दें... यह प्रवृत्ति सामूहिक हत्याओं वाले फिदायीन हमलों में भी देखी जा सकती है और माओवादी हिंसा में भी...
'बिफो' अपनी किताब में लिखते हैं, ''ऐसे लोग मौजूदा नारकीय व्यवस्था से निकलने और अपने हालात की ओर ध्यान खींचने का अपना तरीका निकाल लेते हैं... 'बिफो' इन्हें ''आज के वित्तीय पूंजीवादी नकारवाद के दौर में प्रतिरोध का नायक मानते हैं..." उनके मुताबिक, ''यह जानते हुए कि जीतना संभव नहीं है, विजयी होने का एहसास (कुछ पलों के लिए ही सही) पाने का तरीका यही है कि अपनी जान दे दी जाए या दूसरों की ज़िन्दगियां तबाह कर दी जाएं..."
ज़ाहिर है, मौजूदा व्यवस्था में विरोध की सामूहिक अभिव्यक्तियों के दायरे जितने संकुचित होते जाएंगे, अपराध और आत्महत्याओं में उतनी ही बढ़ोतरी की आशंका बनी रहेगी...
हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Feb 15, 2016
क्या है आत्महत्या का मनोविज्ञान और क्यों है इसके बढ़ने की आशंका...
Harimohan Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 15, 2016 15:31 pm IST
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Published On फ़रवरी 15, 2016 15:08 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 15, 2016 15:31 pm IST
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