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This Article is From Aug 22, 2016

मगर कश्मीर का दर्द कैसे मिटेगा जेटली जी

Harimohan Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 22, 2016 16:37 pm IST
    • Published On अगस्त 22, 2016 16:37 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 22, 2016 16:37 pm IST
जब हालात काबू में न आएं तो सब दोष बाहरी ताकतों पर मढ़ देना बेहद पुराना नुस्खा है. सो, मोदी सरकार की नैया के सबसे चुस्त खेवनहार माने जाने वाले वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एक कदम आगे बढ़कर कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी को पाकिस्तान का नया औजार बता दिया. राम जानें उनके मन में क्या चल रहा था कि वे यहीं नहीं रुके, यह भी कह गए कि ‘‘वे (पत्थरबाज) सत्याग्रही नहीं, आक्रमणकारी हैं.’’ हालांकि अभी तक उनके सहयोगी गृहमंत्री राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी घाटी के लड़कों से यही अपील कर रहे थे कि उनके हाथों में पत्थर नहीं, किताबें और लैपटॉप होने चाहिए.

यह कोई छुपी बात नहीं है कि घाटी की घटनाओं में पाकिस्तान का हाथ हो सकता है. पाकिस्तान सरकार और उसके जेहादी टट्टू तो इसका खुलकर इजहार भी कर रहे हैं. लेकिन हमें क्या सिर्फ पाकिस्तान पर दोष मढ़ कर घाटी को ऐसे ही धधकने देना चाहिए? वहां मौतों और घायलों का आंकड़ा सैकड़ों में पहुंचता जा रहा है. लगभग डेढ़ महीने से कर्फ्यू लगा हुआ है.

ऐसा लगता है कि 90 का दशक फिर उतर आया है. लगभग डेढ़ दशकों से राजनैतिक और चुनावी प्रक्रिया से जैसा वातावरण बना था, वह कहीं खो गया. उसी प्रक्रिया का नतीजा था कि पिछले चुनावों में घाटी में भाजपा समर्थक कुछ गुटों के लोग भी चुनाव जीत गए थे. तो, क्या हमें यह विचार नहीं करना चाहिए कि ऐसा क्या है कि हम बार-बार कश्मीर के लोगों को पाकिस्तान के हाथ में खेलने को छोड़ दे रहे हैं?

शायद इसी भावना के साथ संसद और बाद में सर्वदलीय बैठक में कश्मीर पर हर विचार के लोगों से बात करने और कम से कम कुछ नरम मांगों पर कदम बढ़ाने की बात सामने आई थी. मसलन, सशस्त्र बलों और पुलिस को छर्रों के इस्तेमाल पर रोक लगाने की बात तो सरकार ने भी मान ली थी. लेकिन शायद वह अपने सुरक्षा अधिकारियों को इसके लिए नहीं मना सकी. तभी तो सीआरपीएफ के महानिदेशक ने हाल में कहा कि छर्रों का इस्तेमाल न करें तो मौतें और ज्यादा होंगी. ऐसा लगता है मानो सुरक्षा तंत्र में बैठे अधिकारी निर्वाचित प्रतिनिधियों के बस में नहीं हैं या फिर सरकार बोलती कुछ और है और करती कुछ और. सरकार संसद और सर्वदलीय बैठक में अपने वादे के विपरीत लगातार सख्त नीति को जारी रखे हुए हैं.

शायद इसी नीति का विस्तार है बलूचिस्तान और पीओके के मामले उठाना. हालांकि अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने बलूचिस्तान के मामले में भारत के बोलने के अधिकार को जायज बताया तो भारत के मौजूदा विदेश नीति के नियंताओं को कहीं से समर्थन मिलता नजर आया. वरना हर कोई यही समझने की कोशिश कर रहा था कि 2012 में मिस्र के शर्म अल शेख में बलूचिस्तान का जिक्र करके तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कुछ फंस-से गए थे तो मौजूदा प्रधानमंत्री के बलूचिस्तान और गिलगित-बाल्टीस्तान के संघर्षों की बात उठाने का मतलब क्या हो सकता है?
विदेश और रक्षा नीति के स्वयंभू पंडित तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से भाषण में बलूचिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) की चर्चा के न जाने क्या-क्या कयास लगा चुके हैं. कुछ तो यहां तक इशारा कर रहे हैं कि मोदी सरकार पीओके को ही नहीं, बलूचिस्तान को भी पाकिस्तान से मुक्त कराने के लिए बांग्लादेश जैसा दूसरा अभियान छेड़ने की सोच रही है. हालांकि शर्तिया तौर पर शायद इतना ही कहा जा सकता है कि सरकार ने पाकिस्तान नीति के तेवर बदल दिए हैं और टकराव के नए मोर्चे खोलने को तैयार लगती है.

इसके मायने घरेलू राजनीति का दबाव कम करना भी हो सकता है क्योंकि मोदी सरकार अभी भी लगभग हर मोर्चे पर फंसी हुई है. न महंगाई काबू में आ रही है और न औद्योगिक उत्पादन में कोई गति दिख रही है. निर्यात ठंडा है और देश में रोजगार की हालत खस्ता है. ऐसे में उसे हर साल चुनावी मैदानों में भी उतरना है. अगले साल अहम उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव होने हैं. लगभग इन सभी राज्यों, यहां तक कि गुजरात में भी भाजपा के पांव डगमग हैं. ऐसे में कोई राष्ट्रीय भाव ही लोगों का ध्यान इन चीजों से हटा सकता है. बेशक, इसके लिए सबसे उकसाऊ कश्मीर में हिज्बुल मुजाहिदीन के बुरहान वानी की मौत और उसके बाद पैदा हुए हालात पर पाकिस्तान की बेहिसाब प्रतिक्रिया थी.

इसलिए कश्मीर पर पाकिस्तानी संसद, प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, फौजी हुक्मरान रहील शरीफ और जेहादी संगठनों के तेवरों से मोदी सरकार को पाकिस्तान नीति में बदलाव का मौका मुहैया हो गया. बदलाव का पहला संकेत जम्मू-कश्मीर पर सर्वदलीय बैठक में मिला. वहां प्रधानमंत्री बलूचिस्तान और पीओके में मानवाधिकारों की नारकीय स्थिति के बारे में बोले और ऐलान किया कि भारत पीओके में लोगों पर पाकिस्तानी अत्याचारों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के आगे उठाएगा. बलूचिस्तान और पीओके के जिक्र भर से हवा बदल गई.

इसके बाद ऐलान किया गया कि वित्त मंत्री अरुण जेटली सार्क देशों के वित्त मंत्रियों के सम्मेलन में इस्लामाबाद नहीं जा रहे हैं. स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने खुलासा किया कि उन्हें बलूचिस्तान और पीओके के मामले अंतरराष्ट्रीय समुदाय के आगे उठाने के लिए बलूच और पीओके के लोगों ने धन्यवाद का संदेश भेजा है. एक या दो दिन बाद पाकिस्तान के विदेश सचिव की कश्मीर का मुद्दे पर चर्चा के लिए भारतीय विदेश सचिव को इस्लामाबाद बुलावे के लिए लिखी गई चालाकी भरी चिट्ठी के जवाब में भारत ने कहा कि भारतीय विदेश सचिव इस्लामाबाद जाने को तैयार हैं लेकिन चर्चा सिर्फ पाकिस्तान की शह से जारी आतंकवाद और कश्मीर में पाकिस्तान के गैर-कानूनी कब्जे को खाली कराने पर ही हो सकती है. बाद में विदेश सचिव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि सार्क में पाकिस्तान ही इकलौता अडंग़ा लगाने वाला देश है. इसका एक संकेत यह है कि नवंबर में सार्क सम्मेलन के लिए प्रधानमंत्री इस्लामाबाद शायद न जाएं और शायद पाकिस्तान को बाहर करके सार्क के दोबारा गठन की कोशिश हो सकती है.

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इसके बाद क्या होगा. क्या भारत सिर्फ कभी-कभार बलूचिस्तान का मसला उठाएग? ऐसा तो पहले भी होता रहा है. या भारत बलूच कार्यकर्ताओं को राजनैतिक, कूटनयिक और आर्थिक मदद भी मुहैया कराएगा और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उनका सहयोग करेगा? ऐसा हुआ तो क्या होगा? बलूचिस्तान भारत से काफी दूर है और ईरान और अफगानिस्तान बलूच लोगों को अपने यहां पनाह देने वाले नहीं हैं (आखिर ईरान वाले हिस्से में भी बलूच लोग आजादी की मांग कर रहे हैं और अफगानिस्तान तो अपने ही झंझावातों में उलझा है. वहां बलूच लोगों को समर्थन देने से पाकिस्तान समर्थित आतंकियों की आमद बढ़ सकती है). तो, भारत बलूचिस्तान के संघर्ष में कैसे मदद करेगा? बांग्लादेश वाला जमाना नहीं रह गया. अब दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हैं. सो, बांग्लादेश जैसा अभियान अकल्पनीय है.

जहां तक पीओके का सवाल है तो वहां पाकिस्तान के खिलाफ लोग किसी एक आंदोलन में एकजुट नहीं हैं. ऐसा आंदोलन खड़ा करने के लिए काफी कुछ करना होगा. वरना पाकिस्तान उन्हें कुचल देगा. बलूचिस्तान में भी यही होगा. तो इन दोनों क्षेत्रों में भारत उनकी कैसे मदद करेगा. इसके अलावा पाकिस्तान के इन मानवाधिकार के घोर उल्लंघन के मामलों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने में भी काफी मुश्किलें हैं.

हालांकि कांग्रेस ने बलूचिस्तान और पीओके के मामले उठाने को सही ठहराकर मोदी की राह कुछ आसान की है. लेकिन उसने टकराव को ज्यादा बढ़ाने के खतरों के प्रति भी आगाह किया है. माकपा के सीताराम येचुरी को संदेह है कि इससे कश्मीर के मुद्दे का समाधान मुश्किल हो जाएगा. खैर! इसके नतीजे तो आने वाले समय में ही दिखेंगे.

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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