गुदरी माई, पीर बाबा और दुर्गा पूजा...

गुदरी माई, पीर बाबा और दुर्गा पूजा...

प्रतीकात्मक फोटो

"मेला जा रहे हो न? घूम के आना तो बताना इस बार क्या नया देखे, और हां मेला से लौटते वक्त पीर बाबा और गुदरी माई को चादर चढ़ा आना." हीरा काका को दुर्गा पूजा के मेले से गजब का लगाव है. गांव की दुनिया में हाट-बाजार से आगे मेला एक अड्डा होता है,जहां हर उम्र के लोग जीवन में खुशी की तलाश में पहुंचते हैं. लेकिन यहां मैं हीरा काका के सवालों के जरिए स्मृति को भी खंगालना चाहूंगा.
 
बचपन में कारी कोसी पर बने पुराने लोहे पुल को पारकर दुर्गा पूजा में लगने वाले मेले में दाखिल होने से ठीक पहले एक पुराने बरगद पेड़ पर लाल, उजले, हरे रंग के कई कपड़े टंगे दिखते थे. बैलगाड़ी से उतरकर लोगबाग आंखें मूंदकर बुदबुदाते थे और फिर कपड़े के कुछ-एक टुकड़े पेड़ की डाली में बांध देते थे. न अगरबत्ती की सुगंध न कोई दीप लेकिन इसके बावजूद यह पूजा की एक पद्धति थी, जो आज भी है. उस पेड़ का नाम था- 'गुदरी माई'.
 
पेड़ किस तरह लोगों को और गावों को जोड़ता है, हमने इसे ग्रामीण परिवेश में ही सीखा. इसी पेड़ से कुछ दूरी पर पीर बाबा की मजार है. पीर बाबा भी एक पुराने नीम पेड़ से दोस्ती किए हुए हैं. इन दोनों की छांव से आगे निकलने के बाद ही हम दुर्गा पूजा के मेले में दाखिल होते थे. मानो प्रकृति हमें पहले वृक्ष की छाया से परिचित कराती हो और इसके बाद कहती हो जाओ और मेले की चकाचौंध में खो जाओ लेकिन सावधान , "लौटकर प्रकृति की गोद में ही आना है!" एक तरफ बरगद तो दूसरी ओर नीम का पेड़.
 
आस पड़ोस के तकरीबन तीस-चालीस गांवों के लोग मेले में इकट्ठे होते थे लेकिन तब न भगदड़ मचता था और न ही भीड़ को नियंत्रित करने  के लिए पुलिस बल हुआ करता था. सब भीड़ में अपनी दुनिया तलाशते थे, अपने हिस्से की खुशियां खोजते थे. आज मेला के बहाने यही सब याद आ रहा है.
 
किशोरों के लिए जलेबी वाले रामकिशन साह की दुकान तब मेले की सबसे पसंदीदा जगह हुआ करती थी. गुब्बारे और बांसुरी वाले को बच्चे घेर लिया करते थे. इसी मेले से दीवाली के लिए हम सब सामान खरीद लिया करते थे. याद आती है बर्तन वाले बब्बन चाचा की दुकान. महिलाएं वहां खूब सामान खरीदा करती थीं. इस दुकान की बातें करते हुए मुझे प्रेमचंद के हामिद की याद आने लगी है. वही चिमटा वाला.
 
दरअसल गांव-देहात की स्मृति यही है. यहां दिखावा कुछ भी नहीं है. लोगबाग जीवन को यहां जीते हैं खेत-पथार के लिए, अन्न के लिए और इसी अन्न की बदौलत वे उत्सवों का आनंद उठाते हैं. गौर करने वाली बात यह है कि अभी भी देहाती दुनिया बाजार की माया से बची हुई है. पुराने दिनों को जब आप याद करेंगे तो पाएंगे कि उस वक्त गांव-घर और छोटे कस्बों में मेला हमारी लोक परम्पराओं, उत्सव और सामाजिक सद्भाव का 'मेल' होता था. हमारा समाज मेले में दिख जाता था, जाति-धर्म की दीवार तब नहीं दिखती थी. मेले में इस तत्व की कमी अब खूब खलती है.
 
हीरा काका बताते हैं कि दुर्गा पूजा के मेले में दाखिल होने से पहले लोगबाग पहले गुदरी माई और फिर पीर बाबा के पास पहुंच जाते थे, मन्नतें मांगने. देवी दुर्गा की विशाल प्रतिमा के दर्शन से पहले गुदरी माई और पीर बाबा गांव वालों के सामने आते थे और लोगबाग उन दोनों को अपनी अर्ज़ियां सुनाते. आज सोचता हूं कि गुदरी माई और पीर बाबा ने न जाने कितने लोगों की अर्जियां सुनी होंगी. लेकिन क्या हम बाद में उसे याद करने की भी जरूरत महसूस करते हैं?  मशीन की तरह बनती जा रही जिंदगी में क्या हमारा नाता गाछ-वृक्षों से यूं ही बना रहेगा? यह सवाल मुझे खूब तंग करता है.
 
आज हीरा काका के मेला को लेकर पूछे गए सवालों के कारण लोगबाग और अंचल की स्मृति को खंगालने लगा हूं और पता चल रहा है कि हमारे इलाके में मंदिर मस्जिद से दूर 'ऊपर वाला' गाछ-वृक्ष में वास करता आया है. मुझे रेणु के चेथरिया पीर की याद आने लगती है. यहीं आकर इतिहास स्मृति की पोथी में बैठ जाती है, जिसे खंगालना पड़ता है.

गिरींद्रनाथ झा किसान हैं और खुद को कलम-स्याही का प्रेमी बताते हैं...

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