बर्ड वॉचिंग... इन लफ्ज़ों का इस्तेमाल कॉलेज के ज़माने में हम खूब करते थे। तब छिछोरेपन का नफ़ासत से इज़हार करने का यही तरीक़ा था। फिर कॉलेज से निकलकर अख़बार में आया ही था कि एक दिन कहा गया बर्ड वॉचिंग कैंप की रिपोर्टिंग पर जाओ।
इंदौर के सिरपुर तालाब जाना था, साथ में भेजे गए फोटोग्राफर अबरार ख़ान। अबरार भाई भोपाल से इंदौर ट्रांसफ़र होकर आए थे और सिरपुर तालाब पहुंचने के बाद। पता चला कि उन्हें हर एक परिंदे का नाम पता था, वह कहां अंडे देते हैं, तरह-तरह के परिंदों की क्या ख़ासियत हैं। इन सबके बारे में उन्हें अच्छी मालूमात थी। उस दिन के बाद लौटा तो बर्ड वॉचिंग का असली मतलब समझ आ गया जो कॉलेज के ज़माने से बहुत अलग और उससे कहीं ज्यादा सुकून देने वाला था। अबरार भाई कॉलेज की कैंटीन में भी बैठे होते तो उनकी नज़र समोसे से ज्यादा परिंदों पर रहती। कभी-कभी सोचता हूं कि अबरार भाई जिस तरह और जितना परिंदों को देखते हैं इससे उनकी बीवी भी रश्क करती होंगी।
अबरार भाई ने जो लत लगाई वह आज भी बरक़रार है। हाल ही में एक रात जब कोहरा हवाओं में घुल रहा था। तब भरतपुर बर्ड सैंक्चुरी जाने के लिए चार दोस्तों के साथ निकल पड़ा। कोहरे की वजह से रुक-रुक कर आखिरकार भरतपुर की केवलादेव घना बर्ड सैंक्चुरी पहुंच ही गए। तीन कैमरे और परिंदों को निहारने को बेताब आंखे लिए हमने साइकिल और रिक्शा छोड़ पैदल जाने का फ़ैसला किया।
सैंक्चुरी के अंदर एक ग्रे हेरॉन (बगुले जैसा दिखने वाला पक्षी) नज़र आया, पानी के अंदर मछली के इंतज़ार में ऐसे खड़ा था जैसे लकड़ी का कोई ठूंठ हो। उसके आसपास पानी था, लेकिन उसके अंदर धैर्य का समंदर। दिल्ली जैसे शहर में हर रोज़ जाम लगने पर न जाने कितने लोगों का धैर्य टूटता है। कभी-कभी लगता है कि ज़माना जितना आधुनिक होता जा रहा है, धीरज उतना ही कम हो रहा है। फ़ास्ट फ़ूड के शौक़ीन बढ़ रहे हैं, लेकिन धीमी आंच में पके खाने का लज़ीज़ स्वाद भूलते जा रहे हैं।
कुछ आगे बढ़े थे ब्लैक-हेडेड आईबिस (बगुले जैसा पक्षी जिसका सिर काला और बाकी शरीर सफेद था) दिख गया, तो अमेरिका याद आ गया जहां काले-गोरे की खाई फिर गहरी होती जा रही है, ये तो काला भी था और गोरा भी। सिर से रूसी खुरचते हुए सोचा कि रंगभेद करने वाले भी अगर सोचे कि इसे किस तरफ़ रखें तो ऐसे ही सिर खुजाते देर तक सोचते रहेंगे।
फिर एक वुड पेकर जिसे हिंदी बेल्ट में कठफोड़वा कहते हैं, नज़र आया, उसे अपने आसपास लोगों की आदत थी। वह डरा नहीं और मैंने भी जीभर कर उसकी तस्वीर खींची। बाद में एक गाइड ने बताया कि ये वुडपेकर नहीं बल्कि हूपो है, जिसे हुदहुद कहते हैं। इसी के नामपर हाल के एक तूफ़ान का नाम रखा गया, लेकिन हुदहुद अपने मासूम वजूद से कोई भी बवंडर खड़ा नहीं करता।
पार्क के आखिरी छोर पर दूर कहीं कुछ रंग बिरंगे परिंदों के साथ सुर्ख़ाब नज़र आए, जिन्हें ब्राह्मणी शेल डक कहते हैं। इसके पंख सोने के रंग जैसे होते हैं, ये बड़े शहरों के एलीट की तरह आम परिंदों से दूर पार्क के एक किनारे पर यूं विराजमान थे, जैसे अपने किसी फॉर्म हाउस में कुछ चुनिंदा परिंदों के साथ हों।
बर्ड सैंक्चुरी से निकलते हुए हमें एक सुअर दिखा, जो पेड़ से खुद को रगड़ते हुए निकल गया। मोटी चमड़ी वाला...हमारे आसपास के उन लोगों जैसा जिन पर बॉस या आलोचकों की बात का असर नहीं पड़ता, अपने में मस्त... बाकी पस्त।
भरतपुर में ढेर सारे परिंदों को देखा, देशी विदेशी सब एक जगह पर... सियार, नीलगाय, सांभर, हिरण और सुअर जैसे जानवर भी दिखाई दिए। दिल बाग़-बाग़ हो गया। कॉलेज वाली बर्ड वॉचिंग से असली वाली बर्ड वॉचिंग की बात से अलग है। उन्हें निहारता रहा वह उड़ सकती थीं, लेकिन पलटकर चमका देंगी इसका ख़तरा नहीं था।