
आठ महीने पहले, एक दिन मुझे एक आइडिया आया कि माउंट एवरेस्ट की यात्रा पर फिल्म बनाई जाए। मैंने जब अपने सहकर्मियों से इस बारे में बात की, तो लगा कि प्रोजेक्ट काफी मुश्किल होगा, लेकिन मेरे लिए आश्चर्य की बात यह हुई कि हमारे चैनल हैड को आइडिया पसंद आया और उन्होंने प्रोजक्ट के लिए हामी भर दी।
काम की मंजूरी के बाद मैंने अपना रिसर्च शुरू किया। मैंने काफी लेख पढ़े, काफी डॉक्यूमेंट्री देखीं। मुझे पता चला कि सेना का एक दल हर वर्ष एवरेस्ट यात्रा पर जाता है। फिर मुझे आठ महीने लग गए, सेना को इस बात के लिए राजी करने के लिए कि वे मुझे और मेरे क्रू को अपने साथ ले चलें।

4 अप्रैल, मैं और राकेश सोलंकी, जो मेरे कैमरापर्सन हैं, ने नेपाल की फ्लाइट पकड़ी। हम दोनों के मन में यात्रा को लेकर मिश्रित भाव उमड़ रहे थे। हम इस बात को लेकर उत्साहित थे कि हम कुछ ऐसा करने जा रहे हैं, जो हमारे रोजमर्रा के काम से अलग था, जिसे करने के लिए हर कैमरापर्सन या प्रोड्यूसर को मौका नहीं मिलता।
हम काठमांडू में तीन दिन रुके। काठमांडू में घूमना भी अपने-आप में अच्छा अनुभव था। इसके बाद हम लुकला की ओर चले गए। 2,800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित लुकला वह जगह है, जहां लोग एवरेस्ट बेस कैंप पर जाने और उतरने के समय आते हैं।
अगले दिन लुकला जाने के लिए सुबह 6:30 बजे के लिए हमारी फ्लाइट बुक थी, लेकिन लुकला में खराब मौसम की वजह से वह दोपहर 2:30 बजे तक के लिए स्थगित कर दी गई। हिमालय की गोद में बसे काठमांडू से लुकला के लिए छोटे विमान में सफर करना काफी डरावना अनुभव था और यह अनुभव यहीं खत्म नहीं हुआ। यहां पर स्थित तेन्जिंग-हिलेरी एयरपोर्ट के दोनों ओर पहाड़ी हैं। यहां की एयरस्ट्रिप काफी छोटी है और यहां पर चूक की जरा-सी भी गुंजाइश नहीं है। यदि प्लेन फिसला तो सीधे खाई में...

इसके बाद, हमारी यात्रा सही मायनों में प्रारंभ हुई। हवाई हड्डे से हम ट्रेक करते हुए नामचे बाजार पहुंचे, जो समुद्रतल से करीब 3,440 मीटर की ऊंचाई पर है और देखने में स्विटजरलैंड के किसी गांव से कम नहीं। यहां पर रुके, ताकि हम मौसम के अनुरूप खुद को ढाल सकें। नामचे का बाजार काफी दिलचस्प है और आकर्षक भी। यह आखिरी पड़ाव है, जहां से आप पहाड़ पर चढ़ने के लिए जरूरी साजोसामान खरीद सकते हैं। यहां आइरिश पबों से मैं काफी इम्प्रेस हुआ। ये छोटे हैं, मगर आरामदायक हैं।
नामचे बाजार के कैफे में 3:00 बजे के बाद एवरेस्ट से जुड़ी डॉक्यूमेंट्री ही ज्यादातर दिखाई जाती हैं। यह एक अच्छा तरीका है, उन सभी पर्वतारोहियों में जोश भरने का।
तीन दिन बाद हमने ट्रेक करना फिर शुरू किया। जैसे-जैसे हम ऊपर चलते गए, तापमान गिरता गया। ट्रेक, शूट, ऊंचाई सभी काफी चुनौतीपूर्ण हैं। सस्पेंशन ब्रिजों को पार करते समय मैं तो कांपने लगा। जैसे-जैसे हम और ऊपर गए, हमने पहले नहाना छोड़ा, फिर मुंह धोना और फिर यहां तक पानी छूना।

जैसे-जैसे हम ऊंचाई की ओर चलते गए, हर सामान और महंगा, और महंगा होता गया। एक पानी की बोतल 300 रुपये, एक संतरा 100 रुपये और अपने कैमरे की बैटरी चार्ज करने के लिए डेबाउंचे में हमें एक घंटे के 500 रुपये देने पड़े।
करीब 48 घंटों की कड़ी मशक्कत के ट्रेक के बाद हम एवरेस्ट बेस कैंप पहुंच गए। वहां का नजारा देखकर मैं जैसे कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं था। चारों ओर सफेद जमीन, पहाड़ों पर जमी बर्फ, ग्लेशियर, और रंगीन टेंट। यहां पर रात का तापमान -16 डिग्री के करीब रहता है। इतनी ठंड थी कि रात को सोना भी एक भयानक सपने जैसा लगने लगा। हमने अपनी बोतलों में गर्म पानी भरा और खुद को गर्म करने के लिए उसका सहारा लेने लगे। यहां पर तमाम देशों से आए पर्वतारोहियों से मिलना और शूट करना काफी अच्छा लगा, लेकिन उतना ही चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि यहां पर तापमान शून्य से नीचे था और हवा में ठंडक इतनी थी कि किसी भी धातु की वस्तु को छूना मुश्किल हो गया था।
पहाड़ पर कुछ भी काम शुरू हो, उससे पहले एक पूजा का आयोजन होता है। माना जाता है कि पूजा का आयोजन सगरमाथा देवी से संपर्क (एवरेस्ट पर्वत) करने के लिए किया जाता है। उनसे यह प्रार्थना की जाती है कि वह सभी के लिए रास्ता बना दें। एवरेस्ट पर चढ़ने वाले शेरपा तब तक चढ़ने को तैयार नहीं होते, जब तक उन्हें आशीर्वाद नहीं
मिल जाता।

हमारे यहां पहुंचने के बाद दो दिन तक यही सब हुआ। पूजा भी काफी आकर्षक विधि से होती है। इसमें नाच और संगीत का इस्तेमाल भी होता है। पूजा के बाद कुर्की रम, बीयर और चावल और गेंहू से तैयार की जाने वाली एक प्रकार की भांग, जिसे यहां छांग कहा जाता है, को प्रसाद के रूप में दिया जाता है।
अगले दिन मैं अपने सपने को जी रहा था। मैंने जाकर ग्लेशियर को छुआ और अपने आप को मौसम के अनुरूप ढाला। अचानक एक जोरदार आवाज हुई और टनों बर्फ हम पर गिरी। मैं समझ ही नहीं पाया कि हुआ क्या है। हमारे टीम के अन्य सदस्य चिल्लाकर निर्देश देने लगे कि क्या करना है। मैं सिर्फ इतना जानता था कि मुझे सिर्फ वही करना है, जो मुझे कहा जा रहा है। कुछ मिनटों बाद जब लगा कि अब कुछ शांति है, मुझे एहसास हुआ कि हमारा सामना एक हिमस्खलन से हुआ है। बाद में पता चला कि सिर्फ हिमस्खलन नहीं था, बल्कि कई हिमस्खलनों का दौर था। हमारे दोनों ओर ग्लेशियर टूट-टूटकर गिर रहे थे।
जो हमने किया, वह था रस्सी को कसके पकड़ लिया और एक पतली-सी पट्टी पर खड़े रहे और कोशिश करते रहे कि अपनी नाक और चेहरे को ढांके रहे, ताकि हम हवा में उड़कर हमारी तरफ आ रही पाउडरनुमा बर्फ से बच सकें।
मैंने रस्सी को इतना कसकर पकड़ा था कि मैंने जो ग्लब्स पहने हुए थे, वे लगभग फटने को हो गए। मैं जो देख सकता था, वह थी सफेद बर्फ, जो हमारी ओर तेजी से आ रही थी। अब हमारे पास कोई और चारा नहीं बचा था, जिंदगी बचाने के लिए भागना था। रास्ता इतना कठिन था कि भागना भी मुश्किल था। मैंने रस्सी को जोर से पकड़ लिया था।
उस समय एक बार लगा कि अब सब खत्म। मैं नहीं चाहता था कि यह मेरा आखिरी दिन हो। मैं अपनी मां को अकेले छोड़कर जाने के बारे में सोच नहीं सकता था। मैं उनकी अकेली उम्मीद हूं। उस समय मुझे सिर्फ मेरी मां का ख्याल आया। मैंने प्रार्थना की और दूसरों के बड़बड़ाने को सुना, हरे राम हरे कृष्ण। मुझे याद नहीं कि मैंने किसी भगवान से प्रार्थना न की हो। मैं केवल इन सब से बाहर निकलना चाहता था। जब कुछ शांत हुआ, तब मुझे एहसास हुआ कि मेरे शरीर के ऊपर बर्फ की मोटी चादर आ गई है। मेरा अनुमान है कि वह करीब तीन इंच मोटी रही होगी।
हम बेस कैंप वापस आ गए। हम लगा कि वहां चीजें बेहतर होंगी, लेकिन ऐसा नहीं था। सब कुछ पूरी तरह बरबाद हो चुका था। हमारे टेंट पूरी तरह नष्ट हो चुके थे, हमारे बैगों का अता-पता नहीं था। लगभग सभी कुछ बर्फ के काफी नीचे दब चुका था। सभी शेरपा डरे हुए थे और रो रहे थे। कुछ लोग बर्फ में दब गए थे और कुछ लोग उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे थे।
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आगे क्या करूं। मैं इसके लिए तैयार नहीं था। हमने कैंप में अपने अन्य साथियों से मुलाकात की और अन्य पर्वतारोहियों की मदद में जुट गए। हिमस्खलन में हमारे एक कैमरापर्सन को चोट लग गई थी। उनके सिर में चोट लगी थी और खून बह रहा था।
बर्फ पर खून था। सफेद बर्फ में खून के दाग थे। इस हिमस्खलन में करीब 20 की मौत हो गई थी और 60 अन्य घायल थे। हमें इनकी मदद करनी थी। ऐसे में मौसम इतना खराब था कि बाहर से किसी त्वरित मदद की उम्मीद नहीं थी। हमने अपने सैटेलाइट फोन से मदद की गुहार लगाई।
मैं अपने घर पर बात करना चाहता था। यह जानते हुए कि यहां क्या हुआ है, मैं अपनी मां को बताना चाहता था कि सब ठीक है। मैं उनसे बात करना चाहता था। मैंने मेजर से बात की कि मुझे अपनी मां से घर पर बात करनी है और वह तैयार हो गए। मैंने मां को बताया कि मैं ठीक हूं और उन्हें चिंता नहीं करनी चाहिए।
मैंने वहां, बर्फ में जमीं तमाम लाशें देखीं। मैं उन्हें पहले से नहीं जानता था, लेकिन अब वे हमेशा के लिए मेरे साथ हैं।
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