लोकसभा चुनाव जीतने के लिए सभी पार्टियों ने लुभावने वायदों की बारिश कर दी है. नेताओं के चुनावी वायदों के पीछे बदलाव की विस्तृत रूपरेखा नहीं होती है इसीलिए सरकार बदलने के बावजूद सिस्टम नहीं बदलता है. चुनावों के बाद इन वायदों का क्या हश्र होता है, इसे लोकपाल मामले से समझा जा सकता है.
सिस्टम बदलने का कोई शार्टकट नहीं है
इन्दिरा गांधी के खिलाफ जेपी ने सत्ता परिवर्तन का आन्दोलन शुरू किया. जेपी आन्दोलन से निकले अधिकांश नेता सत्ता के लिए अब कांग्रेस के साथ हो चले हैं और लोकतान्त्रिक सिस्टम पहले से भी बदतर हो गया है. अन्ना हजारे ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी आन्दोलन शुरू करके लोकपाल को हर मर्ज की दवा बताया. अन्ना आन्दोलन के बाद आम आदमी पार्टी और भाजपा को दिल्ली का सिंहासन हासिल हो गया परन्तु लोकपाल फाइव स्टार होटल के कमरों में सिकुड़ गया.
फाइव-स्टार होटल में पंगु लोकपाल
चुनावी आचार संहिता को धता बताकर मोदी सरकार ने आनन-फानन में लोकपाल की नियुक्ति तो कर दी, परन्तु कोई सिस्टम नहीं दिया. डिजिटल इंडिया के पहले लोकपाल के लिए अभी तक कोई वेबसाईट भी नहीं बनी है. लोकपाल और आठ सदस्यों ने 23 मार्च को शपथ ली थी, जिसके बाद उन्हें दिल्ली के पांच सितारा होटल में 12 कमरे दे दिये गये. फाइव स्टार होटल में लोकपाल के ऑफिस में भ्रष्टाचार निवारण की बजाए चाय और बिस्कुट के बजट पर जद्दोजहद हो रही है. शिकायतों के निवारण के लिए अभी तक ना ही कोई नियम और ना ही कोई प्रक्रिया बनी है. लोकपाल के पास प्रशासन, शिकायत, जांच और अभियोजन के लिए कोई स्टाफ भी नहीं है तो काम कब शुरु होगा?
लोकपाल की नियुक्ति के पहले नियम क्यों नहीं बने
लोकपाल और सदस्यों का काम प्रक्रिया बनाना और जांच करना नहीं है तो फिर केन्द्र सरकार ने इस बारे में पहले से नियम और प्रक्रिया क्यों नहीं बनाई? लोकपाल के लिए पिछले 45 साल में दस बार संसद में बिल विफल हुआ और इस बावत 250 से ज्यादा मीटिंग हो चुकी हैं. जन दबाव से लोकपाल का कानून 2013 में यूपीए सरकार के दौर में बन गया था तो फिर उसके 6 साल बाद अभी तक नियम कायदे और कानून क्यों नहीं बने? लोकपाल कानून के तहत साठ दिनों के भीतर शिकायतों के जांच की व्यवस्था है पर लोकपाल को अपनी व्यवस्था के लिए नई सरकार के आने का इंतजार करना होगा. लोकपाल जैसे अधिकांश मामलों में ऐसी ही दुखद स्थिति देखने को मिलती है, तो फिर नेताओं के चुनावी वायदों पर जनता कैसे भरोसा करें?
लोकपाल के दर्जे पर विवाद
अटार्नी जनरल (एजी) ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सम्मुख बताया कि लोकपाल द्वारा हाईकोर्ट जजों के दर्जे की मांग की जा रही है, जिसे सरकार के लिए मानना मुश्किल है. एजी के अनुसार हाईकोर्ट जज का दर्जा मिलने से लोकपाल और सदस्यों को लुटियन्स दिल्ली में घर और सभी सुविधाएं देनी पड़ेंगी. एजी के अनुसार लोकपाल का दर्जा नौकरशाह का ही माना जाना चाहिए, क्योंकि नौकरशाहों को साल में सिर्फ एक एलटीसी की सुविधा मिलती है जबकि जजों को चार. हकीकत में लोकपाल कानून की धारा-7 के अनुसार लोकपाल को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का और सदस्यों को जज का न्यायिक दर्जा मिला है. सवाल यह है कि कानून बनाने और नियुक्ति करने के पहले यूपीए और एनडीए सरकार ने इन बारीकियों और विरोधाभास पर काम क्यों नहीं किया?
सीबीआई और सीवीसी से आगे होगा, लोकपाल का टकराव
कुछ महीनों पहले पूरे देश ने सीबीआई डायरेक्टर का विवाद देखा, जिसमें सीवीसी पर भी अनेक सवाल खड़े हुए. नई कानूनी व्यवस्था के तहत लोकपाल को सर्वोच्च दर्जा मिला है, लेकिन उन्हें कोई सिस्टम ही नहीं मिला. जबकि सीबीआई को संसद के कानून से अखिल भारतीय मान्यता कई दशकों से भले ही नहीं मिली, इसके बावजूद उनके पास अखिल भारतीय सिस्टम है. भ्रष्टाचार के खिलाफ राज्यों में लोकायुक्त और केन्द्र में सीबीआई, सीवीसी और लोकपाल के पिरामिड में आने वाले समय में अर्न्तविरोध और टकराव होना अवश्यम्भावी है तो फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग कौन लड़ेगा? गलत मार्केटिंग करके सामान बेचने वालों के लिए सजा का प्रावधान है, लेकिन झूठे चुनावी वायदे करने वालों को सत्ता हासिल हो जाती है. जनता को छलने वाले नेताओं के इस भ्रष्ट तन्त्र के खिलाफ, फाइव स्टार लोकपाल क्या कर सकेगा?
(विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के वकील और 'Election on The Roads' पुस्तक के लेखक हैं)
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