डॉ. विजय अग्रवाल का ब्‍लॉग: जिंदगी के अनुभवों का कोई विकल्‍प हो ही नहीं सकता

डॉ. विजय अग्रवाल का ब्‍लॉग: जिंदगी के अनुभवों का कोई विकल्‍प हो ही नहीं सकता

हम सबके पास अपनी-अपनी जिंदगियों के अपने-अपने अनुभवों का इतना समृद्ध और नायाब खजाना है कि इसका कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। यह हमारी अपनी-अपनी सबसे बड़ी दौलत है, बशर्ते कि हम उसे ऐसा समझें। हमारे अपने अनुभव एक ऐसा चमकदार आईना है, जिसमें हम अपने अतीत की सारी घटनाओं को घटते हुए देख सकते हैं, उनका विश्‍लेषण कर सकते हैं, और उन विश्‍लेषणों के आधार पर सही-सही निष्कर्ष निकाल सकते हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि हम दूसरों के सामने बड़े जोरदार तरीके से यह दावा तो करते हैं कि 'मैंने बाल धूप में सफेद नहीं किए हैं,' लेकिन ज्यादातर लोगों के सिर के बाल धूप में ही सफेद होते हैं। यदि कोई अपनी उन्हीं गलतियों को, जो उसने 35 साल पहले की थीं, बाद में भी दोहराता है, तो उसे आप क्या कहेंगे? इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि उन्हीं गलतियों को दोहराने के बाद भी वह उम्मीद यह करता है कि परिणाम अपने-आपको न दोहराएं। यह मनुष्य का एक बहुत ही सूक्ष्म और अन्तर्निहित स्वभाव है, जिससे उबरने के लिए चेतना में बहुत ही गहरी इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। ज्यादातर लोगों में इसकी बेहद कमी होती है।
               
यही वह कारण है, जिसकी वजह से आदमी सही मायनों में अपने अनुभवों को पकड़ ही नहीं पाता। चूंकि हम अपने अनुभवों को पकड़ नहीं पाते, इसलिए उसका फायदा नहीं उठा पाते। चूंकि उसका फायदा नहीं उठा पाते, इसलिए उसकी कीमत नहीं समझ पाते। और हम सब यह तो जानते ही हैं कि आदमी स्वभाव से ही इतना लोभी होता है कि जब तक उसे किसी चीज की कीमत का पता न लगे, तब तक वह उसकी कद्र नहीं करता है। जितनी अच्छी कीमत उतनी बड़ी कद्र। काश! कि वह अपने अनुभवों को ही अपने जीवन का पर्याय समझ पाता! जिस दिन ऐसा हो जाएगा, उस दिन से उसके कार्यों और विचारों का फोकस जीवन न होकर अनुभव हो जाएगा। वह जीवन के सुख के लिए काम न करके अनुभवों के सुहानेपन के लिए काम करने लगेगा। जाहिर है कि ऐसा करते ही उसकी बाहरी यात्रा आंतरिक यात्रा की ओर मुड़ जाएगी। मैं इस बात का दावा कर सकता हूं कि उसी दिन से उसका सब कुछ बदल जाएगा और उसका यह बदलाव उसकी बेहतरी के लिए होगा।
               
आप मेरे इस एक छोटे से किंतु बहुत व्यावहारिक सवाल के बारे में सोचकर देखिए। आपके पास अभी एक कार है, जिसकी कीमत पांच लाख रुपये है। कार का दायित्व केवल यह है कि वह आपको एक जगह से दूसरी जगह पर बिना किसी बाधा के आराम के साथ पहुंचा दे। अभी की आपकी कार अपने इस काम को अच्छी तरह अंजाम दे रही है। लेकिन एक दिन आप उस कार को बेच देते हैं और उसकी जगह एक दूसरी कार खरीदते हैं, जिसकी कीमत 12 लाख रुपये है। जाहिर है कि यदि उपयोगिता के लिहाज से देखें, तो आपकी यह कार भी वही काम करेगी, जो पहले वाली कार कर रही थी। तो मेरा सवाल यह  है कि आपने पहली वाली कार को बेचा क्यों? यह काम इसलिए नहीं किया, क्योंकि आपको उस कार की जरूरत नहीं थी। यदि ऐसा होता तो आप दूसरी कार नहीं लेते। आपने दूसरी कार खरीदी, जो पहली कार की तुलना में दोगुनी से भी अधिक महंगी थी। तो यहां आपसे मेरा सवाल केवल यह है कि आपने ऐसा किया क्यों?
               
यहां आप  मुझे भौतिकवाद का विरोधी समझने की भूल न करें। यदि मैंने यहां महंगी कार का उदाहरण दिया है, तो आप इसका मतलब यह न लगाएं कि मैं अच्छी और महंगी कारों का विरोधी हूं। आर्थिक क्षेत्र में उनकी अपनी उपयोगिता होती है। यहां मेरा संबंध इससे नहीं है। मैं तो यहां जीवन के बारे में बातें कर रहा हूँ। आपके पास मेरे इस प्रश्‍न का अपना कोई भी उत्तर हो सकता है। लेकिन मेरे पास जो उत्तर है, वह यह कि 'आपने नई कार केवल इसलिए खरीदी है, क्योंकि उसको खरीदने से आपको अच्छा लगा है।' बहुत छोटा-सा कारण मैंने दिया है- 'अच्छा लगा है।' इस जुमले का इस्तेमाल हम अपने रोजमर्रा के जीवन में न जाने कितनी बार करते हैं- अच्छा लगता है या फिर अच्छा नहीं लगता या सीधे-सीधे यह कि बुरा लगता है। हैं ये तीनों एक ही, क्योंकि इन तीनों विचारों और भावनाओं को संचालित करने वाला जो मूल केंद्र है, वह है- 'अच्छा'। तो क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि 'जीवन मात्र एक अनुभव है।'


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