लेकिन अभी इसके बाद एक पखवाड़ा भी नहीं बीता था कि उसी उत्तर प्रदेश की उसी सरकार ने इसके ठीक विपरीत तस्वीर वाले समाचार को जन्म दे दिया. समाचार था कि बुलंदशहर की उसी 34-वर्षीय श्रेष्ठा ठाकुर नामक सर्किल आफिसर को वहां से हटाकर दूरदराज बहराइच जिले में भेज दिया गया. ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि प्रमोद लोधी नाम का वह नेता कुछ विधायकों और सांसदों के साथ मुख्यमंत्री से मिला था. निश्चित तौर पर प्रशासन की पुस्तक में ट्रांसफर को सज़ा के रूप में परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन जो श्रेष्ठा ठाकुर के साथ हुआ, उसे यदि सज़ा न कहा जाए, तो फिर क्या कहा जाए...?
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इसी के बरक्स एक दूसरी ज़ोरदार ख़बर. लखनऊ में जब श्रेष्ठा के ट्रांसफर ऑर्डर पर दस्तखत हो रहे थे, लगभग उसी समय हमारे प्रधानमंत्री नई दिल्ली के एक विशाल सुसज्जित भवन में वर्ष 2015 बैच के आईएएस अधिकारियों से कह रहे थे, "आप लोगों को सामाजिक परिवर्तन का आधार बनना है और इसके लिए बोल्डनेस की ज़रूरत होती है..." जिन प्रधानमंत्री की आवाज़ भारत से 4,000 किलोमीटर दूर इस्राइल से चलकर पूरी दुनिया में पहुंच गई, उन्हीं की आवाज़ दिल्ली से लखनऊ के बीच की 554 किलोमीटर की छोटी-सी दूरी तय नहीं कर सकी. यहां गौर करने की बात यह भी है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने जो पहला कदम उठाया था, वह प्रधानमंत्री द्वारा शुरू किए गए स्वच्छता अभियान का था.
अब हम दो-तीन छोटी-छोटी घटनाओं पर आते हैं, जो इसी के आसपास हुई हैं. श्रेष्ठा ठाकुर की दबंगई और उसके स्थानांतरण के बीच ही जम्मू एवं कश्मीर में सुरक्षा प्रभाग के डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट ऑफ पुलिस मोहम्मद अयूब पंडित की लोगों ने सरेआम हत्या कर दी. उनके अलावा यूपी के बिजनौर जिले की बालीवाला पुलिस चौकी के सब इन्सपेक्टर सहजोत सिंह मलिक भी लोगों द्वारा मार डाले गए. इससे पहले एक युवा आईएएस अधिकारी अनुराग तिवारी उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मृत पाए गए थे. क्या इन सभी घटनाओं में कोई अंतर्संबंध दिखाई देता है...?
दरअसल, सामाजिक घटनाएं एकांत और इकाई के रूप में नहीं घटतीं, आगे-पीछे की न जाने कितनी घटनाओं से उनका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संबंध होता है. जहां तक प्राधिकार का सवाल है, वह यथार्थ से अधिक संकेत के रूप में काम करती है. उदाहरण के तौर पर लाल बत्ती वाली गाड़ी (जिसे खत्म कर दिया गया), और पुलिस की खाकी वर्दी. खाकी वर्दी में पुलिस के अधिकारी की मौजूदगी व्यक्ति की मौजूदगी नहीं, राजकीय सत्ता के समस्त प्राधिकार (अथॉरिटी) की मौजूदगी होती है, इसलिए किसी अधिकारी पर किए गए किसी भी तरह के प्रहार को राजसत्ता पर किया गया खुला प्रहार माना जाता है.
यहां प्रश्न यह उठता है कि किसी भी व्यक्ति में इतना साहस आता कहां से है कि वह सत्ता की शक्ति के विरोध में इस तरह अकेले खड़े रहने का दुःसाहस कर सके. निश्चित तौर पर उसे यह शक्ति राजनीतिक सत्ता से प्राप्त होती है. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में शायद इस शक्ति को प्राप्त करना बहुत आसान हो गया है, इसलिए इस तरह की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि राजसत्ता द्वारा लिए गए स्थानान्तरण जैसे निर्णय पूरे के पूरे अधिकारी तंत्र के मोराल को शून्य तक पहुंचा देने में कोई कसर उठा नहीं रखते. यहां हमें प्रधानमंत्री के आश्वासन (कथनी) तथा उनकी अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री की करनी में साफ-साफ विरोधाभास नजर आ रहा है. यदि सत्ता को इसी प्रकार के निर्णय करते रहने हैं, तो उसे चाहिए कि वह कम से कम जनता को 'जंगलराज' के स्थान पर 'उद्यानराज' के सब्जबाग का सपना दिखाना छोड़ दे.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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