भारतीय संसद भवन (फाइल फोटो)
संसद के केन्द्रीय कक्ष यानी सेंट्रल हॉल में कुछ पत्रकारों और कुछ नेताओं के बीच इस बात पर बहस छिड़ी हुई थी कि मौजूदा हालात में राहुल गांधी का राजनैतिक ग्राफ ऊपर जा रहा है या फिर प्रधानमंत्री का ग्राफ नीचे. कुछ पत्रकार इस थ्योरी को सही साबित करने में लगे थे मगर बीजेपी नेताओं को यह नागवार लग रहा था. उनका कहना था कि हो सकता है कि जिस ढंग से प्रधानमंत्री ने हाल के भाषण में अतीत को अधिक महत्व दिया हो या फिर नेहरू बनाम सरदार पटेल की तुलना की हो या फिर रेणुका चौधरी प्रकरण हो, इससे बचा जा सकता था.
बीजेपी के नेताओं का मानना था कि राफेल के मुद्दे को कांग्रेस बड़ा बना कर एक भ्रष्ट्राचार का मुद्दा बनाने की कोशिश करेगी, शायद इससे उनको थोड़ा राजनैतिक फायदा मिल भी जाए, मगर अंत में बीजेपी इसे राष्ट्रवाद से जोड़ने में सफल रहेगी और राफेल पर कुछ भी बोलने से इनकार करते हुए इसे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मामला बताती रहेगी. बार-बार कहेगी कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता करना होगा. फिर यह मामला भी आने वाले चुनाव में जीएसटी और नोटबंदी जैसे ही बन कर रह जाएगा यानी टांय टांय फिस... यानी मोदी का जादू बरकरार है और रहेगा. राहुल को अभी बहुत मेहनत करनी होगी और मोदी से बहुत कुछ सीखना पड़ेगा, खासकर किसी चीज की मार्केटिंग कैसे की जाती है और लोगों से संवाद कैसे स्थापित किया जाता है. साथ ही अपने विपक्षी पर कब सबसे तीखा प्रहार किया जा सकता है और किस प्रभावी ढंग से.
दूसरा सबसे बड़ा विषय जो सेंट्रल हॉल में चर्चा में था कि लोकसभा के चुनाव आखिर कब हो सकते हैं. अलग-अलग सांसद गुटों में एक साथ बैठे हुए थे जिसमें सभी दलों के सांसद होते हैं और उनसे चिपके हुए थे पत्रकार. कई जगह मंत्री भी सांसदों के गुट में शामिल थे. कहीं इस बात पर चर्चा हो रही थी कि चुनाव दिसंबर में कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव के साथ ही करा लिए जांएं. इससे राज्यों में होने वाले नफा नुकसान को बीजेपी कम कर सकती है. खुद प्रधानमंत्री राज्यों के साथ लोकसभा का चुनाव कराने के पक्ष में हैं. जबकि कई सांसदों का मानना था कि जिस हालात में सरकार है और जो तेवर राहुल गांधी ने अपना रखे हैं, जल्दी चुनाव कराने में एक खतरा भी है.
इन सांसदों का मानना था कि सरकार को कम से कम 6 महीने तक अपने कार्यक्रमों पर फोकस कर चीजों को संभालने की कोशिश करनी चाहिए. जबकि इसके विपक्ष में कुछ सांसदों का मानना था कि चीजें जब हाथ से निकलने लगती हैं तो वैसे ही निकलती हैं जैसे हाथ से रेत. इन सांसदों का तर्क था कि राजीव गांधी की प्रचंड बहुमत की सरकार पर पहले सिख दंगों में ढिलाई बरतने, शाहबानो मामला, अयोध्या में ताला खुलवाना, श्रीलंका में प्रभाकरण से दोस्ती फिर दुश्मनी और बोफोर्स जैसे उदाहरण तक दिए गए. इसलिए जनता को मूर्ख नहीं समझना चाहिए. जनता सब भांप लेती है कि उसे क्या करना चाहिए. आखिर उसके हाथ में ही लोकतंत्र का रिमोट कंट्रोल होता है.
अंत में सांसदों का मत था कि हमें तो चुनाव में जाना ही है, इसलिए तैयारी शुरू की जाए और चलो गांव की ओर की बात कहते हुए सांसद उठ खड़े हुए. क्योंकि संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही मार्च तक के लिए स्थगित हो गई थी और इन सांसदों को अपने क्षेत्र में भी जाना था. ये कहते हुए कि अगले महीने फिर मिलते हैं एक और चर्चा के लिए.
(मनोरंजन भारती एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एक्जीक्यूटिव एडिटर - पॉलिटिकल, न्यूज हैं)
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