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This Article is From Oct 08, 2016

तुलसीदास के गरीब नवाज़ और नवाजुद्दीन का संकट

Dharmendra Singh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 08, 2016 11:26 am IST
    • Published On अक्टूबर 08, 2016 11:26 am IST
    • Last Updated On अक्टूबर 08, 2016 11:26 am IST
खबर है कि किसी शख्स के नाम में 'नवाज़' लगा था. वह अपने गांव की रामलीला में कोई किरदार निभाए, यह उसकी हसरत थी. कुछ लोग आये. घोषणा कर गए कि 'नवाज़' के नाम का कोई शख्स जिसके साथ 'दीन' शब्द भी लगा था, रामलीला का कोई चरित्र नहीं निभाएगा. 'नवाज़' जो मारीच बनने की हसरत लिए था, वापस लौट गया. यह भी कह गया कि अगले बरस फिर से कोशिश करेगा.

मैं 'मगध' में प्रवेश कर गया.
'कभी कभी
मगध को न जाने क्या हो जाता है
सब कुछ सामान्य होने के बावजूद
न कोई बोलता है
न मुंह खोलता है
सिर्फ शकटार
जड़ को छू
पेड़ की कल्पना करता है
सोचकर सिहरता है

--------------------------
मित्रो,
जो सोचेगा
सिहरेगा!

(मगध : श्रीकांत वर्मा)

सिहरन यूं थी कि 'नवाज़' जिस रामलीला में एक किरदार न अदा कर सका, उसी रामलीला के जनक, लीला के नायक रामचरित के कथाकार तुलसीदास ने अपने 'राम' को 'गरीबनवाज़' कहा है. यह सोचना सिहरना था.

रघुबर तुमको मेरी लाज।
सदा सदा मैं सरन तिहारी तुमहि गरीबनवाज।।


मैं सोचता हूं. 'शकटार' की तरह सिहरता हूं, जिसने 'राम' के कथ्य को रचा हो. उनके चरित को लोकव्यापी बनाया हो, उस तुलसी को 'नवाज़' से चिढ़ नहीं थी! हमें है. वह मध्यकाल था. धर्म में रचा-बसा. धर्म से ही रंगा-पुता. उस मध्यकाल में रामचरित के रचयिता को 'नवाज' के अल्फ़ाज से नफ़रत नहीं थी. इस आधुनिक काल में हमें समस्या है. उसने मांग के रोटी खाई. मसीत (मस्जिद) में पनाह पाई. काश, तुलसी के जीवन का यह आत्म-वक्तव्य हमें द्रवित कर सके!

'तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचे सो कहै कछु कोहू
मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैवे को एक न दैबे को दोऊ।'


जिसने रामचरित रचा, वह तुलसी भी सत्ता प्रभुत्व का शिकार था. उसकी अपनी बिरादरी के सत्तानशीं लोग उसके पीछे पड़े थे. वह चाहते थे कि राम देवता हैं तो देवता का चरित देव-भाषा में ही हो. देव-भाषा संस्कृत थी. लोक भाषा अवधी. तुलसीदास जी ने लोक भाषा चुनी. जैसे आज का एलीट अंग्रेजी बोलकर फूला नहीं समाता, तब का एलीट संस्कृत बोलकर यही अनुभूति करता था. तुलसीदास से पहले कबीर ने कह ही दिया था; संस्किरत है कूप जल, भाखा बहता नीर. बात तुलसीदास के बहिष्कार तक आ गई थी. तुलसीदास के शिष्य रघुबरदास के लिखे हुए 'तुलसी चरित' और वेणीमाधवदास के लिखे हुए 'गोंसाई चरित' से पता पड़ता है कि तुलसीदास को तत्कालीन 'संस्कृति-निष्ठ' लोगों से अपार कष्ट झेलना पड़ा. दुःख-कातर होकर उन्हें कहना पड़ा-

धूत कहौ, अबधूत कहौ, रजपूत कहौ, जुलहा कहौ कोऊ
काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जात बिगार न सोऊ।


पता नहीं उस 'मसीत' का मौलवी कौन रहा होगा. मुमकिन है तुलसीदास का कोई दोस्त रहा हो या मामूली जान-पहचान वाला. इतना तय है कि उनको सोने के लिए वहां जगह मिल गई थी और किसी ने मुख़ालिफ़त भी न की. धर्मांधता कभी न रही हो, ऐसा कोई युग न था, पर इल्म और मोहब्बत के दिये बदस्तूर रोशन रहे. कट्टरता पर प्रहार करने वाले खुलकर बोलते, जैसे मिर्जा सौदा ने कह डाला था-

'तोड़कर बुतखाने को मस्जिद बिना की तूने शेख
ब्राह्मण के दिल की भी कुछ फ़िक्र है तामीर की'


एक-दूसरे के दिल की फ़िक्र और फिर साफ़-साफ़ 'आशना-परस्ती'

'हिन्दू हैं बुत-परस्त मुसलमां खुदा-परस्त
पूजूं मैं उस किसी को जो हो आशना-परस्त'


मेरी पीढ़ी को यकीं नहीं आता. रसखान का उच्चारण मुंह से निकलते ही जैसे जीभ का कसैलापन धुल जाता हो. सैयद इब्राहीम मूल नाम था. कृष्ण को याद किया. उसी भाव-क्षिप्रता से जैसे सूरदास ने किया. जैसे जसोदा को 'घुटुअन चलत' कान्हा की छवि आह्लादित कर देती है और सूरदास उसे निहारकर धन्य हो उठते हैं,

'चलति देख जसुमति सुख पावै
ठुमुक-ठुमुक पग धरनी रेंगत,जननी देख दिखावै'


रसखान उर्फ़ सैयद इब्राहीम भी कान्हा की बाल-छवि को देखकर कागा के 'भाग्य' को सराहने लगते हैं, जिसे कान्हा के नन्हें हाथों से रोटी छीनने का सुयोग मिला.

'खेलत खात फिरें अंगना, पग पैंजनिया कटि पीरी कछौटी
वा छवि को रसखान विलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी
कागा के भाग कहा कहिये हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।'


वही रसखान 'मानुस हों तो... बसों मिलि गोकुल गांव के ग्वारन', कहकर गोकुल में बसने की अर्जी पेश कर देते हैं. अब जब मोहल्ले और बस्तियां इंसानों के 'उपनाम' की तर्ज पर बस रहे हों, रसखान की अर्जी मुझे मेरे गाल पर तमाचे सी पड़ती है.

इधर त्योहारों का सीजन चल रहा है. पुलिस वाला हूं. रसखान की रिहायश की अर्जियों के बीचोंबीच मैं अपनी पेशेवर सूचियां तैयार कर रहा हूं. मंदिरों की सूचियां, मस्जिदों की सूचियां. आमने-सामने खड़े ईदगाह-आश्रमों की सूचियां, आजू-बाजू बने मंदिर-मस्जिदों की सूचियां. मौलवियों की सूचियां, पुजारियों की सूचियां. मज़हबी उन्माद फैलाने वालों की सूचियां. उन्माद संभालने में मददगारों की सूचियां. दशहरा के जुलुस के रास्ते पर पड़ने बाले कब्रिस्तानों-मजारों की सूचियां, मुहर्रम के जुलूसों के राह पर पड़ने वाले मंदिरों, मंदिरों के परिक्रमा-पथों की सूचियां. मस्जिदों के लाउडस्पीकरों की सूचियां, मंदिरों की आरती की टाइमिंग की सूचियां. रावण के पुतलों की संख्या की सूचियां. रामलीला की सूचियां. सूचियां... सूचियां... एक दूसरे के खिलाफ एक दूसरे की सूचियां.

मैं पुलिस वाला हूं. नफरत को बहुत पास से देखता हूं. सिहरता हूं.
मगध के 'शकटार' की तरह.

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