मौत, मेरे युग में तू 'कविता' नहीं, 'सूचना' है...

मौत, मेरे युग में तू 'कविता' नहीं, 'सूचना' है...

ये अल्फ़ाज़ गुलज़ार साहब के हैं...

"मौत, तू एक कविता है,
मुझसे एक कविता का वादा है, मिलेगी मुझको...
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे...
ज़र्द-सा चेहरा लिए, जब चांद उफ़क़ तक पहुंचे..."

मैं कई दिनों से परेशान-सा हूं... मौत एक 'कविता' है... यह नज़रिया भी कितना सुकुमार है... सही भी है, पर मेरा दृष्टिकोण शूल की तरह मेरे हृदय में गहराई तक गड़ गया है... जब पहली बार ख़ाकी वर्दी पहनी थी, उस वक्त मेरे नज़रिये से भी मौत एक कविता ही थी... कुछ-एक साल और आगे तक 'कविता' ही बनी रही... लेकिन शनैः शनैः मौत से काव्य का पहलू जाता रहा...

अब मौत मेरे लिए एक 'सूचना' है... मैं स्व-संबोधित हो रहा हूं... कानों में आवाज़ गूंज रही है - "मौत, तू एक सूचना है..."

लेकिन क्या यह फ़क़त मेरे लिए, अर्थात एक पुलिसिये के लिए ही सच है...? क्या यह 'सूचना' सिर्फ हमारे महकमे के लिए है...? क्या मौत का कविता से सूचना में रूपांतरण पूरे समाज के संवेदनहीन होने की प्रक्रिया का स्वाभाविक परिणाम है, या यह मृत्यु की बहुलता को चुपचाप स्वीकार कर लेना है... हर ओर जैसे मौत नाच रही हो... मनुजता की पीठ पर काल का दुर्दमनीय नृत्य... हज़ारों साल पहले रचे गए मिथकों में भी मृत्यु की इस विकट नियति को मनुष्य ने एक गहरी सांस भरी निरूपायता के साथ स्वीकार कर लिया था... वैसे, और चारा भी क्या था, सिवाय सरेंडर करने के...!

काल अपनी कड़ाही में करछुल (कड़छी) चला रहा है... उसके चूल्हे में लम्हों का ईंधन है, जो हर पल घटता जा रहा है... रात और दिन, महीने और साल करछुल चलती ही जा रही है, और मैं मृत्यु की कड़ाही में पड़ा खौल रहा हूं...

'अस्मिन् महामोहमये कटाहे
सूर्याग्निना रात्रि दिवेन्धनेन
मासर्तु देवां परिघटनेन
भूतानि कालः पचतीत वार्ता...

        (वनपर्व: महाभारत)

लगता है, बेचैनी चुक गई है... पहले मौत की हर ख़बर नींद पर एक करारा प्रहार थी, लेकिन अब सुन लेता हूं... पंचनामा करने का हुक्म दे डालता हूं, भूल जाता हूं... हर थाना जैसे मौत का सूचना केंद्र है... हर अख़बार एक मोर्चरी (मुर्दाघर) है... हर चैनल एक पोस्टमार्टम हाउस है, जहां चौबीसों घंटे लाशों की अमल-दरयाफ़्त बदस्तूर जारी है... मौत को दिखा भर देना है, यदि बात कैमरे के साथ हो... मौत को लिख भर देना है, यदि बात कलम के साथ हो... कलम और कैमरों के बीच मौत एक नए कलेवर में ईजाद कर ली गई है... मौत सरल है, उसकी प्रस्तुति कलात्मक कर ली गई है... मौत कुछ क्षणों का वाकया है, लेकिन उसका एपिसोड कई घण्टों का है... सो, कलम और कैमरों के बीच मौत कुछ ऐसी हो गई है...

यक़ीनन, मौत अब कविता नहीं रही... अब के समाज में, हालिया अवाम के बीच वह फिर कविता होने की लड़ाई में मसरूफ़ है... वह कविता रही होगी, जब कोई शैली (Percy Bysshe Shelley) रो उठा था...

"The cemetery is an open space among the ruins,
covered in winter with violets and daisies,
It might make one in love with death, to think,
One should be buried in so sweet a place..."

अपने 'Adonais' के लिए जब उसने अपनी उदासी को पुकारा होगा, उसकी बेचैनी ने हूक भरी होगी...

"Oh, weep for Adonais - He is dead...!
Wake, melancholy Mother, wake and weep...!
...for he is gone, where all things wise and fair,
descend - Oh, dream not that the amorous deep,
will yet restore him to the vital air,
death feeds on his mute voice,
And laughs at our despair..."

मौत तब एक कविता रही होगी, जब कोई 'निराला' संकुचित-काय पिता अपनी पुत्री को मृत्यु का अर्घ्य देकर सन्नाटों में रोया होगा...

"गीते मेरी, तज रूप नाम,
वर लिया अमर शाश्वत विराम,
पूरे कर शुचितर सपर्याय,
जीवन के अष्टादशाध्याय...

वह निःसंदेह एक कविता रही होगी, लेकिन मेरे युग की मौत कविता नहीं है... काव्य-रूपा मृत्यु मर चुकी है, नव-रूपा मृत्यु भयावह है, विकृत है, संक्षिप्त है...

मौत, मेरे युग में तू एक कविता नहीं है, तू एक सूचना है...

धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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