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This Article is From Jul 23, 2015

संसद के हंगामे पर दयाशंकर मिश्र : हंगामा राजनीति का 'सलमान खान', सब इसी के भरोसे!

  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 22, 2018 15:33 pm IST
    • Published On जुलाई 23, 2015 13:28 pm IST
    • Last Updated On मार्च 22, 2018 15:33 pm IST
जैसी आशंका थी, मॉनसून सत्र हंगामे के साथ शुरू हुआ और अंत में इसके मुकद्दर में बस हंगामा ही होगा। हंगामा, हमारी राजनीति का स्थायी भाव है, जिसमें से कुछ सार्थक निकलने की उम्मीद करना दुर्घटना हो जाने जैसा है। यह बस वैसे ही हो सकती है, बिना किसी हसरत और हरकत के।

कभी-कभी लगता है कि हम सलमान खान की कभी न खत्म होने वाली फिल्म का हिस्सा हैं, जिसमें कोई तर्क नहीं है, बस मनोरंजन है, लेकिन क्या राजनीति और सिनेमा की मंजिल एक हो सकती है...? अपने सौभाग्य और वादों की सेज पर सवार बीजेपी को व्यापमं, सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह चौहान में सब कुछ नैतिक और शुचितापूर्ण लगता है, सो, इस नाते वे हंगामे के लाभार्थी हैं। एक दशक तक दागी मंत्रियों को लेकर खामोशी की चादर ओढ़ने वाली कांग्रेस अपने विलुप्त सांसदों के साथ बस हंगामे की ओर देख रही है।

इस तरह हर किसी को हंगामे से उम्मीद है। मायावती और साल में एकाध दिन बोलने वाले वामपंथी भी हंगामे की उम्मीद से ही ज़िन्दा दिख रहे हैं। बीजेपी खुश है कि हंगामे के कारण जमीन अधिग्रहण जैसे सवाल मीडिया से गायब हो रहे हैं, उन पर बहसों से खड़े होने वाले सवालों से आसानी से जान बच गई है। बीजेपी के प्रवक्ता खासतौर पर राहत की सांस ले रहे हैं कि कुछ दिन तो शांति से बीत रहे हैं। अमित शाह अब देश के विकास के लिए 25 साल और कांग्रेस सुबह-शाम और रात को बस इस्तीफा-इस्तीफा कहती है, ताकि अखबारों के पहले पन्नों और चैनलों की चीख-पुकार में उसकी धड़कनें सुनाई पड़ती रहें।

तो, मंजिल सबकी बस एक, हंगामा है! किसानों को सैकड़ों के चेक अब भी भेजे जा रहे हैं, महाराष्ट्र में अच्छे दिनों की 'डबल सरकारों' के बाद भी आत्महत्याओं का दौर जारी है। आए दिन दंगों के डर और बवाल की खबरें हंगामों के भंवर में डूब रही हैं, तो कौन होगा, जिसे हंगामे से मोहब्बत न हो। दुष्यंत ने भले ही हंगामा खड़ा करने को लेकर निगेटिव एटीट्यूट का इज़हार किया हो, लेकिन हमारी सारी पार्टियां हंगामे को लेकर बेहद पॉजिटिव हैं और हंगामे की उम्मीद पर ज़िन्दा हैं। इसमें बीजेपी को पांच बरस शांति से गुजर जाने का फॉर्मूला दिख रहा है और कांग्रेस अपने बचे-खुचे सांसदों के साथ पर्याप्त शोर करके सुनहरे भविष्य के स्वप्न में डूबी रह सकती है। जो बाकी बचे, वे ईर्ष्या से हंगामे को निहार, सुन-देख और कोस सकते हैं। कुल मिलाकर हंगामे का करियर सही रास्ते पर है, सो, देश की चिंता को बिसार इसकी आराधना में जुटिए और सुखी रहिए।

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