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This Article is From Feb 27, 2016

बहस की भीड़ और बहस की हिंसा

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 27, 2016 01:20 am IST
    • Published On फ़रवरी 27, 2016 01:11 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 27, 2016 01:20 am IST
चारों तरफ बहसों की भीड़ लगी है। जो जिधर से आ रहा है, मुद्दा लिये आ रहा है। एक मुद्दा उठता है, उससे कुछ सवाल उठते हैं फिर जवाब में एक दूसरा मुद्दा आता है और फिर नए सवाल उठते हैं। इस तरह दो दोस्त बहस करते हुए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से दिल्ली विश्विद्यालय पहुंच जाते हैं। भूल जाते हैं कि बहस किस बात को लेकर थी। ऐसे ही तो हम सब बचपने में भटका करते थे, ऐसे ही तो हम आज भी भटक रहे हैं। जनता को भरमाने की नित नई नई कलाओं का प्रदर्शन हो रहा है। वक़्ता की शैली जवाब है। तथ्यों को भाव भंगिमाओं से भरा जा रहा है।

पिछले दस दिनों की बहसों का क्या हासिल हुआ? क्या कोई मुकम्मल जवाब मिला? पता ही नहीं चला कि कब राष्ट्रवाद पर बहस हो रही है, कब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस हो रही है। कब राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ पर तो कब रोहित वेमुला पर बहस हो रही है। जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में लगे नारे पर बहस के बीच महिषासुर और मां दुर्गा का मसला आ जाता है तो देशद्रोह के आरोप की बहस में साठ के दशक का उदाहरण दिया जाने लगता। कोई ओर छोर नहीं। लग रहा है कि सब खिचड़ी पका रहे हैं। कोई दाल डाल दे रहा है तो कोई आकर हल्दी। जैसे ही खिचड़ी पकने वाली होती है कोई एक मुट्ठी मिर्च झोंक जाता है। लिहाज़ा हम कभी पानी तो कभी नमक डाल कर फिर से खिचड़ी पकाने लगते हैं।

ये बहसें हमारे सार्वजनिक जीवन के पतन की निशानी हैं। संस्थाओं का पतन न हुआ होता तो इतने सारे सवालों की जरूरत नहीं पड़ती। वाइस चांसलर की संस्था का विकल्प सोच लिया जाना चाहिए अगर कोई व्यक्ति इस संस्था की गरिमा को बचा नहीं सकता। थाना पुलिस की गरिमा और विश्वसनीयता होती तो आर्थिक मसलों को किनारे लगाकर इन मसलों पर बहस न होती। ये तमाम मुद्दे बताते हैं कि देश में सारी बहसों का अंतिम मार्ग संसद है। वहां बोल देने और सुन लेने से समाधान हो जाता है। वहां किसी मुद्दे को पहुंचते ही मोक्ष मिल जाता है। लेकिन उन सवालों का सांस्थानिक और संपूर्ण जवाब नहीं मिलता। सिर्फ सवालों को लेकर सब नाचते रहते हैं। संस्थाओं की विश्वसनीयता जितनी पहले ख़राब थी उतनी आज भी है।

राजनीतिक दलों की आपसी कटुता बढ़ती जा रही है। नेता एक दूसरे की हैसियत बता रहे हैं। एक दूसरे पर चीख़ रहे है। यह कितना दुखद है। किसी भी बहस में दो दल के नेता मुस्कुराते हुए एक दूसरे को संबोधित नहीं करते। सोशल मीडिया के ज़रिये बेइंतहा कटुता ज़मीन पर भी पहुंचाई जा रही है। जिसे देखिये वो अपने मुद्दे को लेकर तनाव में है। भूल गया है कि वो ख़ुद इसका शिकार हो रहा है। समाज के स्तर पर बंटवारा किया जा रहा है। पक्ष विपक्ष के भाषणों और दलीलों में नौटंकी और नफरत का अतिरेक है।

इशरत का मसला आता है तो परोक्ष रूप से हिन्दू बनाम मुसलमान होने लगता है। महिषासुर का मसला आता है तो दलित-पिछड़ा बनाम अपर कास्ट होने लगता है। राष्ट्रवाद के मसले पर भी दो खेमे बन जाते हैं। मुज़फ़्फ़रनगर में जाट अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुए तो हरियाणा में जाटों की हिंसा के खिलाफ दूसरे समाज के लोग गोलबंद होकर नारे लगा रहे हैं। दिल्ली और उसके आसपास के इलाक़े की जाट एकता कमजोर हो रही है जैसे जाटों और मुसलमानों का पुराना रिश्ता कमज़ोर हो गया। धर्म और समाज के नाम पर हम बंट रहे हैं या एक दूसरे के करीब आ रहे हैं। किसी को परवाह नहीं है।

सबको सोचना चाहिए। इन बहसों से किसे क्या मिला। जो दल एक दूसरे को हराने के लिए ही बने हैं उन्हे कुश्ती करने के दो चार दिन मिल गए। क्या किसी को जवाब मिला? कभी मिलेगा? अर्थव्यवस्था की हालत ख़राब है। कोई इस मसले पर एक दूसरे को क्यों नहीं घेरता। बुनियादी सुविधाएं और जीवन स्तर में खास बेहतरी नहीं हुई है इसे लेकर संघर्ष क्यों नहीं है। वो आवाज़ कहां गई जिसका काम था असहमतियों को नफ़रत में बदलने से रोकना। कोई है या सब बहस करने चले गए हैं। सब एक दूसरे से नफरत ही करेंगे तो बहस करना एक दिन सबसे बड़ी हिंसा हो जाएगी। हो ही गई है।

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