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This Article is From Feb 24, 2015

भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में जुटे देश भर के किसान

Ravish Kumar, Saad Bin Omer
  • Blogs,
  • Updated:
    फ़रवरी 24, 2015 21:53 pm IST
    • Published On फ़रवरी 24, 2015 21:42 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 24, 2015 21:53 pm IST

नमस्कार... मैं रवीश कुमार। आपने कभी देखा है कि बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीईओ बसों में सवार होकर या सौ- दो सौ किलोमीटर पैदल चलकर जंतर मंतर पर आ रहे हैं और अपनी मांगों के लिए सरकार पर दबाव डाल रहे हैं, धरने पर बैठे हैं। ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र में उनके संघर्ष के लिए जगह नहीं है लेकिन उनकी आवाज़ बिना धरने के ही पहुंच जाती है। कितना अच्छा होता कि सीईओ भी अपनी प्रोजेक्ट की फाइल लिए जंतर मंतर पहुंच जाते और वहां आए 160 संगठनों के प्रतिनिधियों और किसानों से बहस करते। कम से कम जनता को भूमि अधिग्रहण पर दो पक्षों को सुनने का मौका मिलता।

हमेशा यही क्यों होता है कि किसान ही धरने पर बैठते हैं? कहीं यूरिया के लिए तो कहीं गन्ने के भुगतान के लिए लाठी खाते हैं। अपनी ज़मीन से विस्थापित हो जाते हैं। अभी क्यों कहा जा रहा है कि किसानों का यह प्रदर्शन विकास के विरोध में है। जबकि हर नेता अपनी चुनावी सभाओं में यही कहते हैं कि किसान खुद भूखा रह कर देश का पेट भरते हैं। क्या किसी नेता को कहते सुना है कि हमारे उद्योगपति भूखा रहकर देश का पेट भरते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि देश की तरक्की में उद्योगपतियों का योगदान किसी से कम है, लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि किसानों की बात हमेशा विकास के विरोध में ही होती है।

भूमि अधिग्रहण के मामले में हर पार्टी की सरकार का रिकार्ड एक जैसा है। उन पार्टियों की सरकारों का रिकार्ड भी अच्छा नहीं है जो आज दिल्ली में केंद्र सरकार के बिल का विरोध कर रही हैं। 2013 का कानून बीजेपी के समर्थन से ही पास हुआ था। क्या तब बीजेपी ने देश के विकास को धीमा करने के लिए वोट किया था।  तमाम विरोधी दल भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध कर रहे है। आरएसएस से जुड़े किसान संगठनों के भी कई एतराज़ हैं। सरकार सबसे बात करने लगी है, लेकिन क्या सरकार अपने अध्यादेश से पीछे हटेगी।

मंगलवार को इस मसले ने बीजेपी को इतना परेशान किया कि एक दिन में दो-दो बार संसदीय दल की बैठक बुलानी पड़ी। सुबह की बैठक में प्रधानमंत्री ने सांसदों से कहा कि भूमि अधिग्रहण बिल से पीछे हटने की ज़रूरत नहीं है। हमें विपक्ष के दुष्प्रचार का मुकाबला करना चाहिए। यह बिल ग़रीबों की मदद करेगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि यह बिल किसान विरोधी नहीं है।

लेकिन शाम की संसदीय दल की बैठक में एनडीए को भी बुलाया गया। भूमि अधिग्रहण पर एतराज़ के कारण शिवसेना के सांसद नहीं आए। अकाली दल ने वह बात कह दी जो विपक्ष कह रहा है कि बिल में सहमति और सामाजिक असर के अध्ययन की शर्त को वापस जोड़ा जाए। अब देखना है कि प्रधानमंत्री अपने इस बिल का बचाव कर पाते हैं या नहीं।

फिलहाल सरकार के पास तीन रास्ते हैं। दिल्ली आए 160 संगठनों को संतुष्ठ करना, बिल को बदलना या संयुक्त सत्र बुलाकर पास करा लेना। इन सबके बीच बीजेपी ने सोशल मीडिया पर फिक्शन बनाम फैक्ट का एक अभियान चलाया है, जिसका मकसद है विपक्ष के आरोपों का जवाब देना। इसके कुछ बिन्दु हमने लिए हैं बाकी ट्वीटर पर हैं ही।

फिक्शन- एनडीए सरकार ने इस कानून को बिना विचार विमर्श के बदल दिया।

फैक्ट- जून 2014 में 32 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपना पक्ष विस्तार से रखा था। राज्य सरकारों ने कहा कि 2013 के कानून से विकास असंभव हो गया है।

क्या सिर्फ सरकारों ने सरकार से बात की या किसानों ने भी सरकार से बात की। फिक्शन बनाम फैक्ट के इस दावे से पता नहीं चलता है? दूसरा दावा है कि 2013 के कानून में केंद्र की सभी योजनाओं के लिए ली जाने वाली ज़मीन के बदले मुआवज़ा, राहत और पुनर्वास का प्रावधान नहीं था।

मौजूदा सरकार ने पहली बार उन 13 एक्ट को भी शामिल किया, जिसके तहत ज़मीनें ली जा रही थीं। यह साफ नहीं है कि उन 13 एक्ट के तहत बिना मुआवज़े के ज़मीन का अधिग्रहण कैसे हो रहा था।

फिक्शन- सरकार ने सामाजिक असर और सहमति को हटाकर किसानों को नुकसान पहुंचाया है।

फैक्ट- यह पावर प्लांट, हाईवे और रेलवे जैसी राष्ट्रीय योजनाओं में तेजी लाने के लिए किया गया है।

इस बात के समर्थन में एक दिलचस्प तर्क दिया गया है कि एक ऐसे देश में जहां संसद 51 प्रतिशत वोट के दम पर फैसले लेती है वहां 70 प्रतिशत की सहमति की शर्त लोगों को ज़मीन बेचने के अधिकार से ही वंचित कर देगी। इसके अलावा 10 एकड़ ज़मीन के हिसाब से बताया गया है कि कैसे एनडीए के बिल से किसानों को लाभ होगा।

मान लीजिए आपके पास दस एकड़ ज़मीन है। बाज़ार में कीमत दो लाख है लेकिन चार गुना की दर से आपको 80 लाख का मुआवज़ा मिलेगा। आप दस में से दो एकड़ वापस खरीद सकते हैं इसके लिए विकास और अधिग्रहण की लागत देनी पड़ेगी। अधिग्रहण के बाद किसान अपनी ज़मीन का बीस प्रतिशत जिस दर से खरीदेंगे वह कैसे तय होगी यह साफ नहीं है। अगर उस दो एकड़ की कीमत मुआवज़े की राशि से ज्यादा हो गई तब क्या होगा।

अब आते हैं किसानों को चार गुना मुआवज़ा मिलेगा तो यह 2013 के कानून में ही था। क्या मिल रहा है इस मामले में श्रीनिवासन जैन की रिपोर्ट कुछ और कहती है। श्रीनिवासन जैन ने कुछ दस्तावेजों के हवाले से एक खबर दी है कि हरियाणा सरकार ने पूरा राज्य में शहर से लेकर गांव तक के लिए मुआवज़े की दर तय कर दी है। यानी किसानों को बाज़ार दर से दो गुना ही मुआवजा मिलेगा, जबकि केंद्र के कानून में राज्य सरकार को छूट है कि वह दो से चार गुना के बीच राशि तय कर सकते हैं। यानी दो न्यूनतम है और चार अधिकतम। चार दिसंबर 2014 को हरियाणा सरकार ने इस मामले में आदेश दिया था। आखिर हरियाणा सरकार ने गांव और शहर की जमीन के लिए एक ही रेट क्यों तय किया और किया भी तो अधिकतम क्यों नहीं किया। मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार ने भी ऐसा किया है।

कह रहे हैं चार गुना मुआवज़ा देंगे और दे रहे हैं दो गुना। विकास की गति को लेकर सरकार की दलील में भी दम है, लेकिन इतिहास देखिए तो भूमि अधिग्रहण के मामले में तमाम सरकारों की विश्वसनीयता इतनी खराब है कि बिना कानून में स्पष्टता के आप भरोसा नहीं कर सकते।

किसान हर ज़मीन के अधिग्रहण का विरोध नहीं करते हैं। उन्हें सड़क-रेल के लिए ज़मीन देने में कोई आपत्ति नहीं है। वह जब देखते हैं कि उनकी ज़मीन ली गई और जितना मुआवज़ा दिया गया उससे कई गुना कीमत पर प्राइवेट पार्टियां साल भर के भीतर बेच रही हैं तो वे ठगा सा महसूस करते हैं।

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