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This Article is From Jan 27, 2015

चंद्रमोहन की कलम से : कैंसर एक्सप्रेस, उम्मीदों का सफर

Chandra Mohan Jindal
  • Blogs,
  • Updated:
    जनवरी 27, 2015 15:12 pm IST
    • Published On जनवरी 27, 2015 14:49 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 27, 2015 15:12 pm IST

पंजाब के बठिंडा से चलकर राजस्थान के बीकानेर जाने वाली ट्रेन (नंबर 54703) का नाम अबोहर-जोधपुर एक्सप्रेस है, लेकिन इसे कैंसर एक्सप्रेस के नाम से भी जाना जाता है। कैंसर एक्सप्रेस एक ट्रेन ही नहीं बल्कि उन सैकड़ों लोगों की जीवन रेखा भी है, जो हर 20 दिनों में बठिंडा से बीकानेर के आचार्य तुलसी कैंसर संस्थान का सफर तय करती है। हर रोज पूरे उत्तर भारत से सैकड़ो लोग यहां अपना इलाज कराने आते है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसमें सबसे ज्यादा मरीज भारत की कृषि भूमि पंजाब से आते हैं।

मेरा सफर बीकानेर के आचार्य तुलसी कैंसर संस्थान से शुरु हुआ। जहां मेरी कोशिश थी कि कुछ  ऐसे परिवारों तक पहुंचा जाए जो कैंसर एक्सप्रेस में सफर करते आए हैं।

हॉस्पिटल के रजिस्ट्रेशन ऑफिस से किसी तरह बठिंडा से आने वाले 100 मरीजों की लिस्ट ली। एक-एक कर मोबाइल के की-पेड पर घूमती उंगलियां लिस्ट में दिए गए नंबर डायल कर रही थीं। मैंने करीब 90 परिवारों से बात की, जिसमें से 24 परिवार ऐसे थे, जो कैंसर पीड़ित परिजन को खो चुके थे, जिसमें दो साल का एक बच्चा भी शामिल था। बाकी के बचे परिवारों में से सिर्फ आठ परिवार ऐसे थे, जो अगले एक हफ्ते में बीकानेर आने वाले थे। आठ में से तीन परिवारों ने हमारे साथ कैंसर एक्सप्रेस में सफर किया। इन्हीं तीन परिवारों के साथ अपना अनुभव और उनकी पीड़ा समानांतर लिख रहा हूं।

पहला परिवार जसवीर कौर का है। 25 वर्षीय यह महिला कैंसर के ही एक प्रकार, माइलो फाइब्रोसिस से पीड़ित है। दो छोटे बच्चों की मां जसवीर कौर कीमोथैरेपी के लिए हर 20 दिन में बीकानेर जाती हैं। जसवीर कौर का पति बिंदर अपनी मज़दूरी छोड़ जसवीर और दो बच्चों की देखभाल करता है।

जसवीर मानती है कि वह कैंसर जैसी ला-इलाज बीमारी को भी मात दे पाएगी और जल्द ही अपने बच्चों की देख-रेख करने लगेगी। जसवीर के घर में पसरी मायूसी दो छोटे बच्चों की किलकारियों से खिल उठती है। हर 20 दिन में जसवीर अपने माता-पिता के साथ बीकानेर जाती है और बिंदर घर पर रहकर बच्चों की देख-भाल करता है। इतना सब होने के बाद भी बिंदर के चेहरे पर शिकन तक नहीं दिखी। वह इस ज़िम्मेदारी को बखूबी निभा रहा है। बिंदर के काम छोड़ देने के बाद घर की दाल-रोटी का खर्च बिंदर के पिता और भाई देख रहे हैं। जसवीर के इलाज का खर्च घर की बकरी और भैंस बेचकर उठाया जाता है। बच्चों की देख-भाल न कर पाना जसवीर के लिए कैंसर से ज्यादा पीड़ा दायक है।

दूसरा परिवार माहीनंगला गांव के जियोना सिंह का है। परिवार के कर्ता-धर्ता जियोना सिंह गॉल ब्लेडर के कैंसर से जूझ रहे हैं। जियोना के तीन में से दो बेटे मज़दूरी करते हैं। सबसे छोटा बेटा चमकोर सिंह ज्यादा समय पिता के साथ बिताता है। घर में दाखिल होते ही आंगन में चारपाई पर लेटे जियोना और उनके पास बैठा चमकोर दोनों के ही चेहरे उतरे हुए थे। दोस्तों के साथ मस्ती करने की उम्र मे 17 वर्षीय चमकोर एक ज़िम्मेदारी के साथ पिता का साया बना हुआ था। जियोना सिंह मुश्किल से ही कुछ खा पाते थे। आस-पास के परिवारों से पता चला कि इसी गांव में दो और लोगों को कैंसर था जो कि अब नहीं रहे। यह बात सुनकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि अकेले बठिंडा में ही कैंसर ने किस तरह अपनी जड़ें फैलाई हुई हैं।

जियोना सिंह ने शायद ही हमारी मौजूदगी में दो शब्द से ज्यादा कुछ बोला हो। जियोना सिंह की खामोशी उनकी शारीरिक पीड़ा से ज्यादा उनकी मानसिक पीड़ा बयान कर रही थी। एक सवाल का जवाब देते हुए जियोना भावुक भी हुए, लेकिन खुद को संभालते हुए मुझे अपनी बीमारी के बारे में बताया। जियोना सिंह को ज्यादा परेशान ना करते हुए मैंने कैंसर एक्सप्रेस पर उनके साथ सफर करने की इच्छा ज़ाहिर की तो जियोना सिंह ने खामोशी से सिर हिला कर मुझे आमंत्रित कर लिया।

तीसरा परिवार 35 वर्षीय गुरदीप सिंह का परिवार था, जो जुसिपावली गांव में रहते हैं। गुरदीप सिंह का छोटा भाई और पिता धरमपाल सिंह अपनी खेती कर घर की गुजर-बसर करते हैं। गुरदीप सिंह को खाने की नली का कैंसर है, जिससे वह पिछले आठ महीनों से लड़ रहे है। उनके पिता धरमपाल की उम्र 65 वर्ष है, जो कि इस उम्र में भी घर की ज़िम्मेदारी का भार अपने बूढ़े कंधों पर उठाए हुए हैं। जिस उम्र में गुरदीप को अपने पिता की देख-भाल करनी चाहिए उस उम्र में आज गुरदीप कैंसर से पीड़ित है और उसकी सेवा उसके पिता कर रहे हैं।

धरमपाल सिंह हर 25 दिनों में गुरदीप के साथ बीकानेर जाते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। धरमपाल सिंह कंधों पर एक भारी बैग लटकाए प्लेटफॉर्म पर हमें मिलें। जियोना सिंह और जसवीर कौर भी प्लेटफॉर्म नं. दो पर अपने-अपने परिवारों के साथ बैठे ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। धरमपाल की बूढ़ी आंखें आती हुए ट्रेन को उम्मीद भरी निगाहों से देख रही थी। जियोना के बेटे चमकोर ने पिता को सहारा देते हुए ट्रेन मे चढ़ा दिया। जसवीर के माता-पिता ने एक प्लास्टिक के थैले से चादर निकालकर ट्रेन की बर्थ पर बिछा दी और जसवीर को बैठा दिया।

रात के 10 बजे थे और ट्रेन की बंद खिड़की की बची हुई जगह से ठंडी हवा ने ट्रेन मे बैठे लोगों को सुकड़ने पर मजबूर कर दिया। सुबह के पांच बजे और रात भर जागे हुए तीन परिवार अब बीकानेर पहुंचती ट्रेन की खिड़की से स्टेशन को निहारने लगे। ट्रेन नं. 54703 की रफ्तार बीकानेर स्टेशन पर थमी और एक-एक कर ये तीनों परिवार नींद से भरी आंखें लिए बीकानेर स्टेशन पर उतर गए। अभी सुबह के 5:30 बजे हैं और यह लोग चाय की चुस्की लेकर डॉ.बेनिवाल के घर पहुंच गए। जहां हॉस्पिटल की ओ.पी.डी मे जांच के लिए नंबर लगाना पड़ता है। सुबह आठ बजे ये तीनों परिवार हॉस्पिटल पहुंचे जहां प्राथमिक औपचारिकताओं के बाद तीनों मरीज़ों ने अपनी जांच कराई। जहां जसवीर कौर को एक और कीमोथैरेपी के लिए भेजा गया, वहीं जियोना सिंह को और दो दिन हॉस्पिटल में रह कर इलाज कराना था।

जियोना सिंह का कैंसर चौथी स्टेज पर है जहां मरीज़ की पीड़ा कम करने के सिवा डॉक्टर कुछ और नहीं कर सकता। गुरदीप के लिए डॉ. बेनिवाल ने सकारात्मक टिप्पणी की और गुरदीप की हालत में सुधार देख खुश हुए। वहीं दो बच्चों की मां जसवीर कौर भी कैंसर से अपनी जंग में सफलता की कगार पर है।

डॉ. बेनिवाल ने पंजाब में कैंसर कि वजह खेतों में अत्याधिक कीटनाशकों के प्रयोग और पानी में घुलनशील रसायनों को भी माना है। पंजाब में हर दिन 18 लोग कैंसर की वजह से दम तोड़ देते हैं। यह आंकड़े चौंकाने वाले हैं और यक़ीनन डराने वाले भी हैं। कैंसर को मात देने का आखिरी मौका अभी भी हमारे पास है। मौका भुनाना होगा और जीतना होगा।

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