बुद्धदेव भट्टाचार्य (Buddhadeb bhattacharjee) का निधन हो गया, भारतीय राजनीति के वो विरले कम्युनिस्ट चले गए जिन्होंने वैचारिक शुचिता को बचाते हुए नीतिगत बदलाव पर जोर दिया था. सादगी, समर्पण और मुद्दों की समझ ने वामपंथी कवि सुकांतो भट्टाचार्य के भतीजे बुद्धदेव को राजनीति की उस मंजिल तक पहुंचाया जहां आने के बाद लोग बड़े वैचारिक प्रयोग से बचते हैं. शुरुआती तामझाम और वैचारिक प्रतिबद्धता से आगे बढ़ते हुए बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बंगाल में एक ऐसे परिवर्तन की कोशिश की जो लेफ्ट की राजनीति के लिए सहज नहीं था.
बंगाल की राजनीति के भद्रपुरूष माने जाने वाले बुद्धदेव भट्टाचार्य के शासन के दौरान औद्योगिक क्षेत्र में राजनेताओं के गैरजरूरी हस्तक्षेप कम हो रहे थे. सशक्त ट्रेड यूनियन, हड़ताल, औद्योगिक उत्पादन ठप करना जैसी चीजें बिना मजदूर हितों से समझौता किये बंगाल में कम हो रहे थे.
बंगाल को बनाया एजुकेशन हब
बुद्धदेव भट्टाचार्य पर लिखने वाले उन्हें नंदीग्राम और सिंगूर की असफलता तक ही छोड़ देते हैं, लेकिन बंगाल में उनके दौर में हुए कार्यो की अच्छी व्याख्या नहीं होती है. साल 2000 से 2010 के बीच बंगाल में प्रोफेशनल और वोकेशनल कोर्स की पढ़ाई के लिए प्राइवेट और सरकारी संस्थाओं का जाल बिछाया गया. बंगाल के छोटे से छोटे शहर में 2-3 इंजीनियरिंग कॉलेज आप देख सकते हैं. बंगाल के इस मॉडल को ओडिशा ने भी अपनाया. झारखंड और बिहार जैसे राज्य इससे वंचित रह गए. इन राज्यों के भी हजारों छात्र उच्च शिक्षा के लिए आज भी बंगाल पर निर्भर हैं. कोलकाता में IT कंपनियों को आकर्षित करना, परम्परागत शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की हर सम्भव कोशिश बुद्धदेव भट्टाचार्य ने की थी. मदरसों में आधुनिक शिक्षा की वकालत भी उन्होंने की थी. हालांकि जिसका नुकसान उन्हें चुनावों में उठाना पड़ा.
विपक्ष ने ही नहीं अल्ट्रा लेफ्ट ने भी खोदी कब्र
बुद्धदेव भट्टाचार्य के नीतिगत फैसलों ने विपक्षी दलों से अधिक परम्परागत वामपंथियों को बेचैन किया. बंगाल में 70 की दशक से ही अल्ट्रा लेफ्ट और लिबरल लेफ्ट के बीच वैचारिक टकराव रहा है. बंगाल की राजनीति में हिंसा भी एक प्रमुख हिस्सा रही है. सरकार किसी भी दल की रही हो हिंसा, आगजनी और तोडफ़ोड़ को रोकना सबसे बड़ी चुनौती रही है. नंदीग्राम में हुए आंदोलन के दौरान नक्सल संगठनों की तरफ से भी बढ़ चढ़कर राज्य में उत्पात मचाए गए. आंदोलन कई जगह हिंसक हुए, बदले में प्रशासनिक असफलता देखने को मिली. राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां TV के प्रसार के कारण गांव-गांव तक पहुंची और बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार इसे संभालने में असफ़ल रही.
पार्टी के भीतर ही बन गए थे कई गुट
भारतीय साम्यवादियों को लेकर कहा जाता है कि वो एक दल में हो सकते हैं, लेकिन एकजुट नहीं हो सकते. बंगाल की भी हालत वही थी. परमाणु करार के मुद्दे पर केंद्र की कांग्रेस सरकार से अलग होने के पोलित ब्यूरो के फैसले के बाद बंगाल में माकपा के नेता कई गुटों में बंट गए थे. माकपा के कैडरों का शासन व्यवस्था पर सीधा हस्तक्षेप होता था. कैडरों और नेताओं के आपसी टकराव का असर भी शासन व्यवस्था पर दिख रहा था. नीतिगत फैसलों में परिवर्तन को पुराने नेता सहजता से नहीं पचा रहे थे. ट्रेड यूनियन जैसी चीजों को कंट्रोल करने की कोशिशों के कारण ऐसे नेता TMC और अन्य दलों के साथ जुड़ने लगे थे. जिसे रोक पाने में बुद्धदेव भट्टाचार्य असफल रहे, वही उनकी हार का भी प्रमुख कारण बना.
'बंगाली गोर्बाचोव'
बुद्धदेव भट्टाचार्य भारतीय राजनीति इतिहास में अलग तरह के वामपंथी थे. जानकर उन्हें पूंजीवाद के साथ तालमेल बिठाने के चलते 'बंगाली गोर्बाचोव' भी कहते हैं. ज्योति बसु की छत्रछाया में राजनीति करने के कारण उनपर लोगों की नजर कम ही गयी. हालांकि 90 की दशक से लेकर 2011 तक वो सत्ता के केंद्र में रहे. उन्होंने उस दौर में बंगाल में औद्योगिक परिवर्तन की शुरुआत करनी चाही जिस दौर में परिवर्तन को इम्प्लीमेंट कर गुजरात मे नरेंद्र मोदी ने कामकाज का एक नया मॉडल सामने रख दिया. शायद बुद्धदेव भट्टाचार्य बंगाल में परिवर्तन करने में असफल रहे, लेकिन उनके प्रयास ईमानदार थे.
सचिन झा शेखर NDTV में कार्यरत हैं. राजनीति और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर लिखते रहे हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.