ठीक एक साल पहले 16 जून की रात और 17 जून की सुबह केदारनाथ के ऊपर से आए सैलाब ने उत्तराखंड के एक बड़े हिस्से को तहस-नहस कर दिया। हिमालय में ऐसी तबाही कभी किसी ने देखी नहीं थी। पहाड़ ढह-ढहकर गिरते रहे, नदियां अपने वेग से बड़ी-बड़ी इमारतों को मलबों में बदलती हुई अपने साथ बहाती ले गईं। सैकड़ों वर्गमील का इलाका जैसे श्मशान में बदल गया। इस तबाही के बीच एनडीटीवी इंडिया के रिपोर्टर हृदयेश जोशी वह पहले शख्स थे, जो इन इलाकों का जायज़ा लेते हुए केदार घाटी और केदारनाथ तक पहुंचे। चीखती हुई सनसनीखेज रिपोर्टिंग के इस दौर में हृदयेश जोशी ने बड़े संवेदनशील ढंग से इस त्रासदी के विभिन्न पहलुओं को पकड़ा, पेश किया और यह समझने की कोशिश की कि आखिर हिमालय जैसी विराट यह त्रासदी क्यों घटित हुई।
रिपोर्टिंग का वह दौर बीत जाने के बाद भी केदारनाथ के सवाल हृदयेश जोशी का पीछा करते रहे। केदारनाथ त्रासदी के रेडिमेड जवाबों से वह संतुष्ट नहीं थे। आखिरकार उन्होंने अपने शोध को और विस्तार दिया और अंतत इस पर एक पूरी किताब लिख डाली - 'तुम चुप क्यों रहे केदार'
इस किताब से गुज़रते हुए साल भर पहले घटी उस पूरी त्रासदी की तस्वीर नए सिरे से उभर आती है। हृदयेश जोशी बड़ी तन्मयता से बताते हैं कि उस त्रासदी का सामना करने में शुरुआती दिनों में कैसे राज्य की व्यवस्था पूरी तरह नाकाम रही और कैसे आम गांव वालों की अपनी सामूहिकता ने फंसे हुए लोगों की मदद की। वह यह देख पाते हैं कि जिस वक्त भारतीय सेना के पायलट अपनी जान जोखिम में डालकर और एक के बाद एक उड़ानें भरते हुए लोगों की जान बचाने में लगे हुए थे, उस वक्त सेना के एक जनरल तीन हेलीकॉप्टर लेकर आए, लेकिन उन्होंने किसी को अपने साथ सुरक्षित जगह पहुंचाने की जहमत मोल नहीं ली।
लेकिन किताब का मोल जितना इन बिल्कुल सामयिक ब्योरों में है, उससे कुछ ज़्यादा इस पड़ताल में कि आखिर यह त्रासदी क्यों घटित हुई। हादसे के पहले ही दिन से इस सवाल के कई जाने-पहचाने जवाब दे दिए गए - इसे ईश्वर का प्रकोप बताने से लेकर प्रकृति के साथ किए गए खिलवाड़ का नतीजा तक कहा गया। दरअसल अपनी-अपनी आस्था और अपने-अपने विवेक के बीच लोग अपना-अपना तर्क चुन रहे थे, लेकिन हृदयेश इस बात को समझते हैं कि हिमालय का यह हिस्सा यहां के स्थानीय लोगों के लिए एक भौगोलिक अवस्थिति-भर नहीं है, एक आध्यात्मिक उपस्थिति भी है - लोग तमाम संकटों और मुश्किलों के बीच इससे शक्ति और आस्था दोनों हासिल करते हैं। यही वजह है कि वह किताब का शीर्षक चुनते हुए केदारनाथ की इसी आध्यात्मिक उपस्थिति को संबोधित कर रहे होते हैं।
लेकिन इस आध्यात्मिक अनुभव को हृदयेश जोशी अपने पांव की बेड़ी नहीं बनाते। वह बड़ी बारीकी से इस बात का मुआयना करते हैं कि त्रासदी की तात्कालिक और दूरगामी वजहें क्या-क्या रहीं और कैसे एक प्राकृतिक परिघटना एक मानवीय त्रासदी में परिवर्तित हो गई। हिमालय के क्षेत्र में प्राकृतिक तोड़फोड़ और परिवर्तन का इतिहास पुराना है। इसकी गोद में पलने वाली संस्कृतियां इसकी इस संवेदनशील भौगोलिक प्रकृति का सम्मान करती रहीं और इन बदलावों के लिए पर्याप्त जगह बचाए रखती रहीं। लेकिन 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में जैसे-जैसे तीर्थाटन पर्यटन में बदलता गया, जैसे-जैसे धर्म का कारोबारी इस्तेमाल बढ़ा, जैसे-जैसे केदारनाथ की यात्रा को होटल उद्योग के हवाले कर दिया गया, वैसे-वैसे हिमालय की भंगुरता भी बढ़ी और वह जगह भी घटी, जहां पहाड़ अपने पांव फैला पाता, नदी अपने कंधे खोल पाती। जब त्रासदी हुई, तब लगातार हो रही बारिश के बीच मौसम विभाग की चेतावनी की हर किसी ने उपेक्षा की। न सैलानियों ने इसे गंभीरता से लिया, न सरकार ने। शायद खुद मौसम विभाग भी इस अभ्यास का मारा रहा कि उसने चेतावनी देकर अपना दायित्व पूरा कर लिया है - अब इसे कोई सुने या न सुने।
कुल मिलाकर इस त्रासदी ने नए सिरे से याद दिलाया कि हम भारतीय जन कैसे जीवन के प्रति आपराधिक लापरवाही बरतने वाली जीवनशैली के आदी हो चले हैं। जो त्रासदी साफ तौर पर नज़र आ गई, वह उस त्रासदी के मुकाबले छोटी है, जो चुपचाप बरसों से हिमालय की वादियों में घटित हो रही है। हृदयेश जोशी की किताब सिर्फ केदारनाथ को आवाज़ नहीं देती, वह हम सबसे अपील करती है कि इस त्रासदी को समझें और अपने-आप को बदलें। करीब 200 पृष्ठों की इस किताब का 14 जून को लोकार्पण हो रहा है।
'तुम चुप क्यों रहे केदार'
लेखक : हृदयेश जोशी
आलेख प्रकाशन, 395 रुपये
This Article is From Jun 10, 2014
पुस्तक-परिचय : 'तुम चुप क्यों रहे केदार' - एक त्रासदी की याद...
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Updated:नवंबर 19, 2014 16:34 pm IST
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Published On जून 10, 2014 15:32 pm IST
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Last Updated On नवंबर 19, 2014 16:34 pm IST
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