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This Article is From Nov 07, 2017

‘नोटबन्दी’- ईज ऑफ़ ‘डाइंग ’ बिजनेस का जश्न क्यों..

Virag Gupta
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 07, 2017 10:21 am IST
    • Published On नवंबर 07, 2017 10:21 am IST
    • Last Updated On नवंबर 07, 2017 10:21 am IST

'ईज ऑफ डुइिंग बिजनेस इन्डेक्स' में बेहतर रैंकिंग के लिए सरकार ने विश्व-बैंक को सभी संभव आंकड़े दिये परन्तु नोटबंदी से आहत अर्थव्यवस्था के भयावह सच को झुठलाने के लिए जनता के बीच राष्ट्रवाद की पिपिहरी बजाई जा रही है. नोटबंदी की बरसी भी आ गयी पर जरूरी जवाब नहीं मिले, जिससे सरकारी जश्न पर कई सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं.     

12 लाख करोड़ के घोटालों की वसूली से भ्रष्टाचार की जड़ पर प्रहार क्यों नहीं 
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के अनुसार कांग्रेस गठबन्धन की यूपीए सरकार ने अनेक मामलों में भ्रष्टाचार करके 12 लाख करोड़ के अनेक घोटाले किये. बोफोर्स से लेकर पनामा पेपर्स के बड़े घोटाले बैंकिंग सिस्टम के माध्यम से होते हैं, जिसकी नजीर बैंकों में बढ़ते एनपीए में देखी जा सकती है. सवाल यह है कि बैंकों में आये कुछ हजार करोड़ के काले धन की ट्रेल पर पूरे सिस्टम की कवायद की बजाय बड़े घोटालों से उपजे कालेधन पर निर्णायक कारवाई और पैसे की वसूली क्यों नहीं होती? 

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सरकार द्वारा नित बदलते गोलपोस्ट से गहराता संदेह 
प्रधानमंत्री मोदी ने 8 नवम्बर को राष्ट्र के नाम भाषण में नोटबन्दी को आतंकवाद, कालेधन और जालीनोट के विरुद्ध जंग बताया था, जिसके कई दिन बाद डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने का नैरेटिव आया. आतंकवाद बदस्तूर जारी है; पुराने नोट सिस्टम में आने के बाद जाली नोट की थीसिस भी गलत साबित हुई; कालेधन की बात करें तो उसके बारे में सरकार के जब अधिकृत आंकड़े ही नहीं हैं, तो फायदे का मूल्यांकन कैसे हो पायेगा?  

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नोटबंदी एक आर्थिक निर्णय, जो चुनावी जीत से सही साबित नहीं हो सकता 
यूपी में विशाल बहुमत से भाजपा की जीत को यदि नोटबन्दी पर जनता की मुहर बताया जा रहा है, तो पंजाब चुनावों में हार के बाद क्या अकाली नेता ड्रग्स के कारोबारी हो गये? 1977 के चुनावों में भीषण पराजय के बाद 1980 में इंदिरा गांधी को मिले विशाल बहुमत को,  क्या आपातकाल का अनुमोदन माना जा सकता है? राजद को 2015 के बिहार चुनावों में सर्वाधिक सीटें मिलने के बाद इसी पैमाने के अनुसार लालू यादव को भी भ्रष्टाचार मुक्ति का प्रमाणपत्र मिलन माना चाहिए. नोटबंदी और जीएसटी का दर्द देने वाले अरुण जेटली तो चुनावों में कभी जीते ही नहीं. लोकतंत्र में स्वीकार के इस पैमाने के आधार पर क्या जेटली के वित्त मंत्री होने पर सवालिया निशान नहीं लगाए जाने चाहिए?     

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किस कानून से बन्द नोटों को चलाया गया
नोटबंदी के फ़ौरन बाद केएन गोविन्दाचार्य ने लीगल नोटिस के माध्यम से सरकार के गैर-कानूनी कदमों पर कई सवाल खड़े किये थे, जिन पर अभी तक कोई जवाब नहीं मिला. भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 के तहत नोटबन्दी का सरकारी आदेश पारित किया गया था. इस कानून की धारा 26 (2) के तहत बन्द किये गये नोटों को दोबारा जारी करने के लिए रिज़र्व बैंक या सरकार के पास कोई अधिकार नहीं है. तो क्या नोटबंदी के बाद 2 महीनों तक पुराने नोटों के चलन के लिए सरकार द्वारा पारित कैसे आदेशों से दी गयी अनुमति गैर-कानूनी थी?

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दो हजार के बड़े नोटों की मार से काले धन को बढ़ावा
कैशलेस के माध्यम से डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के सरकारी प्रयासों से किसको इंकार हो सकता है? हजार के नोट बन्द करने वाली सरकार ने दो हजार के बड़े नोट जारी करके कैश इकॉनमी को डबल खुराक दे दिया और अब काला धन विरोधी दिवस की प्रतीकात्मक राजनीति की जा रही है.    

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नोटबन्दी के दौरान मारे गए लोगों को क्षतिपूर्ति क्यों नहीं
नोटबन्दी के दौरान देशहित में जनता के हर वर्ग ने भयानक कष्ट उठाये और 100 से अधिक लोगों की जान गई. दुर्घटना या अन्य मौतों पर प्रत्यक्ष जवाबदेही न होने के बावजूद सरकार द्वारा क्षतिपूर्ति का त्वरित ऐलान हो जाता है. दूसरी ओर नोटबंदी के वजह से मारे गए लोगों को  क्षतिपूर्ति देने की बजाय, उनकी मौत को रूटीन बनाने की सस्ती सियासत क्यों की जा रही है?  

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डिजिटल से स्वदेशी अर्थव्यस्था को लाभ के लिए भारत के कानूनों में बदलाव क्यों नहीं 
नोटबन्दी के बाद परम्परागत अर्थव्यवस्था को ध्वस्त हो गयी, परन्तु डिजिटल कम्पनियों पर लगाम नहीं लगाई गई. डिजिटल के प्रचार-प्रसार से अमेरिकी कम्पनियों को लाभ और भारत की परम्परागत अर्थव्यवस्था क्षत-विक्षत होने की ख़बरों के बाद आरएसएस समेत कई स्वदेशी संगठनों ने सरकार को चेतावनी दी है. मेक-इन-इंडिया के तहत डिजिटल कम्पनियों के ऑफिस और सर्वर्स भारत में स्थापित करने का नियम अभी भी यदि लागू हो जाय तो देश में रोजगार सृजन के साथ टैक्स आमदनी भी बढ़ सकती है. नोटबन्दी का सालाना जश्न देश की जनता के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है. परन्तु विश्व बैंक और अमेरिका इसके फायदों से बेखबर नहीं, जैसा कि ईज ऑफ़ बिजनेस इंडेक्स में सुधरी रैंकिंग से पता चलता है. नोटबंदी भारत में ईज ऑफ़ ‘डाइंग’ बिजनेस का जहरीला सबब बन रही है, जिस कड़वे सच को चुनावों में किसी भी जीत से कैसे झुठलाया जा सकता है?  



विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...

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