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This Article is From Nov 26, 2021

26/11 आतंकी हमला: 13 साल बाद भी है इंतजार, उस रात की सुबह कब होगी?

Vandana
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 26, 2021 08:22 am IST
    • Published On नवंबर 26, 2021 08:22 am IST
    • Last Updated On नवंबर 26, 2021 08:22 am IST

26/11 की उस रात का एक-एक पल मेरी यादों में जिंदा है, मैं रात की शिफ्ट में थी. रात 8 से 8.30 बजे के बीच टीवी पर फ्लैश आया कि मुंबई में फायरिंग हुई है। थोड़ी ही देर में खबर आई कि मुंबई पर बड़ा आतंकी हमला हुआ है. अभी तक भी यह साफ नहीं था कि कितने लोग हैं, कैसा हमला है और कहां-कहां हुआ है. 'विस्तृत जानकारी की प्रतीक्षा है' लिखकर ख़बर लगा दी गई लेकिन थोड़ी ही देर में जैसे कोहराम-सा मच गया। सीएसटी रेलवे स्टेशन भी, लियोपोल्ड कैफे, ताज होटल भी, नरीमन हाउस, होटल ऑबरॉय-ट्राइडेंट, कामा अस्पताल. सब जगह हमला. टीवी में सब जान बचाने के लिए भागते दिख रहे थे, सड़कों पर पुलिस की गाड़ियां और भागमभाग. एक अजीब-सा डर जैसे मुझे भी ऑफिस में बैठे-बैठे महसूस हो रहा था. एक पल के लिए भी मेरी नजरें टीवी से नहीं हट पा रही थीं.

उस रात मैं भी कहीं न कहीं खुद को मुंबई की अंधेरी सड़कों पर दौड़ता हुआ महसूस कर रही थी, जहां हर कोई अपनी जान बचाने के लिए भाग रहा था. धीरे-धीरे हमले की स्थिति भी साफ होने लगी थी कि एक साथ कुछ आतंकियों ने मुंबई में कई जगह हमला कर किया है. खबरों के बीच एकाएक लगा कि मैं भी ट‍हलते हुए मुंबई पहुंच गई हूं और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के उन लोगों के बीच हूं जो लोग अपने घर जा रहे थे जिनका क्या कसूर था. गोली लगने के बाद करहाते लोगों का दर्द महसूस कर पा रही थी,  उन घरवालों के बारे में सोच रही थी जो इस हमले की खबर सुनकर डर रहे होंगे कि मेरा पिता, भाई या बहन जल्दी घर आ जाएं.

लियोपोल्ड कैफे में मस्ती करते उन लोगों के बीच भी मैं पहुंची हुई थी, जिन्होंने कॉफी की चुस्कियों का आनंद लेते समय यह नहीं सोचा होगा कि अचानक एक आफत उन पर गिरेगी और उनसे जीने का सुख ही छीन लेगी. विदेशियों में यह स्थान बहुत लोकप्रिय रहा है, लेकिन उन्हें भी नहीं बख़्शा गया। मैं ताज और ओबरॉय होटल में अपने आपको महसूस कर रही थी, जहां आतंकवादी घुसे और लोगों को बाहर निकाल निकालकर मारा. सोचने लगी कि मैं होती तो कहां छिपती... कहां भागती... कैसे बचती? बच्चों को कैसे बचाती या वे सामने आ जाते तो उनका मुकाबला कैसे करती.

कामा अस्पताल के उन मरीजों, डॉक्टरों और नर्सों के बीच भी मैं मौजूद थी, जो मौत को आता देख या फायरिंग की आवाज सुनकर डरे होंगे या वे कुछ लोग जिन्होंने अपने आपको हिम्मत दी होगी कि आने दो देखा जाएगा. उन लोगों में भी जो ये सोच रहे थे कि हमारी कोई बात नहीं, बच्चों और महिलाओं को बचाना है.

नरीमन हाउस के उन परिवारों के बीच भी मैं थी जहां हर कोई अपने आप के बजाय अपने परिवार और दूसरे लोगों की जिंदगी बचाने के बारे में सोच रहा होगा.

पूरी रात मौत के इस खेल को बिना पलक झपकाए मैं देखती रही और दूसरी तरफ पूरी रात इस ख़बर को कवर करने का काम भी करती रही. सुरक्षा कर्मियों का अभियान शुरू हो चुका था, बहुत से लोग मारे जा चुके थे. इस खूनी रात का अंत कब होगा मेरा दिल और दिमाग पूरी तरह से इस ओर था. सुबह हो गई लेकिन ऑपरेशन जारी था, मुंबई के लोगों की जद्दोजहद जारी थी। उन दमकल कर्मियों, पुलिसवालों और कमाडों का हौसला ही था, जो इतने खतरनाक माहौल में लोगों को बचाते दिख रहे थे. उन आम लोगों कि हिम्‍मत भी देखी जो अपनी जान बचाने से पहले दूसरों को बचाने की कोशिश करते दिख रहे थे.

उस दिन मुझे एक ऐसे डर ने अपने अंदर खींच लिया जो आज भी मुझे भीड़ में जाने से रोक देता है, मैं अक्‍सर सोचती हूं कि क्‍या एक देश और समाज के रूप में हम आतंक की स्‍याह काली रातों से निपटने के लिए तैयार हैं! क्‍या इस रात की कभी सुबह होगी, जब मैं अपने शहर की गलियों में निकलते वक्‍त ज़रा सी आहट को डर न समझूं, वक्‍त मेरी राह न रोके और मेरी जिंदगी सुरक्षा के बैरीकेड्स में कैद न होकर अपनी मर्जी की मालिक हो.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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