विश्व में आर्थिक मंदी की आहट है। महीेने भर पहले भारत में इसके असर की बात उठने को हुई थी लेकिन प्रधानमंत्री के विदेश दौरों और बिहार के चुनाव की फौरी हलचल के बीच देश में मंदी के अंदेशे पर बातचीत का मौका बन नहीं पाया। फिर आर्थिक मामलों में अबतक जिनकी ज्यादा दिलचस्पी रहती आई है वे आज सत्ता में हैं। जो भी सत्ता में होता है उसे महंगाई, मंदी, बेरोजगारी, औद्योगिक उत्पादन, कृषि उत्पादन जैसे संवेदनशील मुददों की चर्चा अच्छी नहीं लगती। पूरी दुनिया का चलन है कि इन जरूरी बातों को विपक्ष ही ज्यादा उठाता है। अलबत्ता इसकी शुरुआत मीडिया से होती है।
हो सकता है कि नई सरकार को कुछ कर दिखाने का जो छह आठ महीने का वक्त देने का चलन है उसके हिसाब से मीडिया और विपक्ष रुका हुआ हो। लेकिन पूरा साल क्या डेढ़ साल गुजर गया देश के मौजूदा आर्थिक हालात पर न मीडिया चिंताशील हुआ है और न विपक्ष की तरफ से किसी सक्रियता की शुरुआत हुई है। जबकि चारों तरफ से संकेत आ रहे हैं कि हम दिन पर दिन मुश्किल आर्थिक परिस्थितियों से घिरते जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां इशारों में हमें आगाह भी कर रही हैं।
मौजूदा विपक्ष को बरी करने के लिए तो फिर भी एक तर्क हो सकता है कि उसे सत्ता से उतारने के लिए महंगाई और देश में आर्थिक सुस्ती के प्रचार का हथियार ही चलाया गया था। पिछले दस साल सत्ता में रही यूपीए सरकार जब उस समय इस प्रचार का कोई कारगर काट नहीं ढ़ूंढ पाई और विपक्ष और मीडिया ने चौतरफा हमला करके उसे सत्ता से उतरवा दिया तब आज इतनी जल्दी वह इन मुददो पर कुछ कहना कैसे शुरू करती? लेकिन सारी दुनिया में अपनी धारदारी के लिए मशहूर भारतीय मीडिया में देश की मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों की बात न होना वाकई हैरत की बात है।
दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बेरोजगारी का बढ़ना और मौजूदा सत्ता पक्ष की ओर से 65 फीसद युवा जनसंख्या को देश की धरोहर बताया जाना क्या बहुत ही सनसनीखेज बात नहीं थी? देश के जागरूक वर्ग और मीडिया का यह सब सुनते रहना दूसरी बड़ी हैरत है। इतना ही नहीं देश में लगातार दूसरे साल सूखे के आसापास के हालात बने हैं। इस बार मॉनसून के पहले यानी मई में ही 12 फीसद कम बारिश का अनुमान जताया गया था, तब तो चिंता जता ली गई थी। उपायों के बारे में खाका भी बताया गया था लेकिन बारिश का वास्तविक आंकड़ा 14 फीसदी कम होने के बावजूद इस विकट परिस्थिति की कोई चर्चा तक न हुई। तब भी नहीं हुई जब सभी दालों के दाम हर हद को पार गए।
किसी ने अनुमान तक लगा कर नहीं बताया कि कम बारिश और खाने पीने की चीजों के महंगे होने के बीच क्या संबंध है? दालों के महंगे होने को अपवाद कह कर आगे बढ़ चलने वाले चतुर सुजान लोगों को किसी ने नहीं घेरा कि हमारे भोजन का एक तिहाई हिस्सा दालें ही हैं। कमजोर मॉनसून का चौंकाने वाला असर अनाजों पर भी पड़ जाता लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अनाज के भंडारण की व्यवस्था बना ली गई थी सो एक दो साल अनाज के कम उत्पादन का झटका झेलने लायक हमने खुद को बना रखा है।
पिछले भंडारण के दम पर पिछले साल या इस साल अनाज की किल्लत महसूस भले न हुई हो लेकिन सिर्फ पांच महीने बाद जिस तरह के जल संकट के आसार बन गए हैं उससे निपटने का कोई काम शुरू नहीं हुआ। जबकि मसला इतना गंभीर था कि मॉनसून के आखिरी आंकड़े मिलते ही काम शुरू हो जाना था। पूरा देश यानी देश की पूरी की पूरी सरकार बिहार विधानसभा के चुनाव में लगी रही। मीडिया में भी भोजन पानी को लेकर आसन्न संकट की बात आई गई कर दी गई। हमेशा से पूरी तत्परता के साथ देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों के जो बयान आया करते थे वे भी अपनी बात कहना मानो भूल गए हैं।
वैश्विक मंदी की आहट के बावजूद हमारी मुद्रा निश्चिंत भाव वाली है। इसके पीछे कौन सा विश्वास है? कहीं यह तो नहीं कि पिछली भयावह वैश्विक मंदी में मनमोहन सरकार ने पूरे यकीन के साथ बेफर्क रहने का विश्वास जताया था और वैसा ही हुआ था। लेकिन क्या आज के माली हालात वाकई तब जैसे हैं? गौरतलब है कि सन 2008 के बाद से आज 2015 में हमारी आबादी में 13 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है। पिछले डेढ़ साल में साढ़े तीन करोड़ युवक पढ़ लिखकर या ट्रेनिंग लेकर या रोजगार के लायक होकर बेरोजगारों की लाइन में आकर लग गए हैं।
हालत यह है कि देश में उपलब्ध कुल जल संसाधन का हिसाब रखने वाले जल वैज्ञानिकों को यह नहीं सूझ रहा है कि हर साल सवा दो करोड़ के हिसाब से बढ़ने वाली आबादी के लिए पानी का इंतजाम कैसे करें? दो साल पहले तक भोजन, पानी, छत, वगैरह के इंतजाम के लिए योजना आयोग के विद्वान सोच विचार करते रहते थे। उससे हालात का पता चलता रहता था। साल दर साल फौरी तौर पर इंतजाम होता रहता था। अब योजना आयोग खत्म कर दिया गया है या उसका नाम बदल दिया गया है। बहरहाल उन पु़राने विशेषज्ञों का विचार विमर्श लगभग बंद है और नए प्रकार के आयोग के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं चल रहा है।
देश के हालात पर नौकरशाही तो कभी ज्यादा नहीं बोल पाती। थोड़ा बहुत जो फुसफुसफाते थे उन्हें हम टैक्नोक्रेसी के नाम से जानते हैं। लेकिन इन वैज्ञानिकों और अपने अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ भी खुद के फुसफुसाने पर पहरा सा लगाते दिख रहे हैं। जबकि नई सरकार के लोगों ने सत्ता में आने के पहले ऐसा आभास दिया था कि देश के आईआईटी और आईआईएम की प्रतिभाओं का इस्तेमाल करके हालात बदले जाएंगे। लेकिन पता नहीं क्या हुआ वे ज्यादा सक्रिय होने की बजाए पहले से भी ज्यादा संकोच दिखाने लगे हैं। चाहे कृषि हो या जल प्रबंधन हो और चाहे औद्योगिक क्षेत्र हो, कोई भी बड़ा विशेषज्ञ नया सुझाव या नवोन्मेष लेकर नहीं आ रहा है। माहौल के इस नए मिजाज को अगर कोई नाम देना हो तो हमें साहित्यकारों से पूछना पड़ेगा लेकिन वे भी मौन प्रदर्शन कर रहे हैं।
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This Article is From Nov 02, 2015
सुधीर जैन का ब्लॉग : क्या नाम दें देश में नए माहौल को...
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:दिसंबर 23, 2015 14:32 pm IST
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Published On नवंबर 02, 2015 13:54 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 23, 2015 14:32 pm IST
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