बिहार इस वक्त चुनाव की दहलीज पर खड़ा है. नवंबर 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं. इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि यह राज्य अब भी उन्हीं समस्यायों से जूझ रहा है, जिसने दशकों से राज्य के विकास-मार्ग को अवरूद्ध कर रखा है. अब जब सामने विधानसभा चुनाव है तो जनता फिर से उन्हीं सवालों को दुहरा रही है कि क्या विकास केवल वादों में गढ़ा गया शब्द है, क्या पलायन बिहारी की नियति बन चुका है? सच्चाई यह है कि आज भी इस मिट्टी का युवा अपने कंधों पर सपनों का बोझ लेकर निकल पड़ता है किसी अनजाने महानगर की भीड़ में खो जाने के लिए. घरों के आंगन अब भी सूने हैं, क्योंकि बुजुर्ग मां-बाप के जिगर का टुकड़ा रोजगार की तलाश में अब 'प्रवासी मजदूर' बन चुका है. घरों की जिम्मेदारियां अब उम्रदराज कंधों पर हैं.
अदम गोंडवी का एक शेर है, 'तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है.' आंकड़ों और भाषणों में विकास की गति तेज बताई जाती है. सरकारें आर्थिक वृद्धि के प्रतिशत गिनाती हैं, सड़कों की लंबाई बताती हैं और लोक कल्याणकारी योजनाओं का श्रेय लेती हैं. लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि ये सब रोजगार में तब्दील नहीं हो पाया. नौकरी का सपना आज भी लाखों युवाओं की मुट्ठी से रेत की तरह फिसलता जा रहा है. नतीजा यह है कि बिहार में विकास की कहानी भले कागजों पर चल रही हो, पर बिहारियों का जीवन अब भी स्टेशनों, पटरियों और प्रवासन-मार्गों पर कट रहा है. चुनावी नारों की ऊंची गूंज के बीच भी जनता के मन में वही दो प्रश्न पहले की तरह जिंदा हैं— आखिर रोजगार कहां है और यह अंतहीन पलायन कब थमेगा? यानी बिहार की राजनीतिक बहस फिर उसी बिंदु पर लौट आई है, जहां से हर चुनाव में इसकी शुरुआत तो होती है, पर समाधान नहीं निकल पाता.
बिहार की चुनौती क्या है
बेरोजगारी और पलायन बिहार की सबसे बड़ी चुनौती बन चुके हैं. 2011 की जनगणना बताती है कि 74.54 लाख बिहारी राज्य से बाहर पलायन कर चुके थे, जिनमें 22.65 लाख लोग रोजगार की तलाश में गए. इसका मतलब यह हुआ कि बिहार छोड़कर बाहर जाने वाले कुल लोगों में से 30 फीसदी लोग रोजगार की तलाश में राज्य छोड़कर जाते हैं. आज भी यह प्रवृत्ति बदस्तूर जारी है. केंद्र सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर बिहार से 3.16 करोड़ से अधिक लोगों ने पंजीकरण कराया है, जो कि देश में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा आंकड़ा है. आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण ( PLFS) से पता चलता है कि 2022–23 में बिहार की बेरोजगारी दर 3.9 फीसदी थी, जो कि राष्ट्रीय औसत 3.2 फीसदी से अधिक है. 2024 में शहरी युवा बेरोजगारी 23.2 फीसदी तक पहुंच गई. यह भी राष्ट्रीय औसत 15.9 फीसदी से कहीं अधिक है. यह बेरोजगारी सीधे-सीधे पलायन को जन्म देती है. बिहार का युवा दिल्ली, पंजाब, सूरत, बेंगलुरु और मुंबई की फैक्ट्रियों में खून-पसीना बहाने पर मजबूर है. इसके बदले में वहां उसे सम्मान तक नहीं मिल पाता है. कभी उसे 'बिहारी' कहकर अपमानित किया जाता है, तो कभी उसे हिंसा का सामना करना पड़ता है. अपने ही देश में वह अजनबी हो जाता है. वह 'प्रवासी मजदूर' का तमगा लेकर घूम रहा होता है. किंतु हर चुनाव में यही श्रमबल वापस बिहार लौटकर इस उम्मीद में मतदान करता है कि शायद नई सरकार बनने के बाद उसे अपना घर नहीं छोड़ना पड़ेगा. वैकल्पिक रोजगार का नहीं होना, सीमित उद्योग, कम निवेश, और कृषि में अधिशेष श्रम— यही वे कारण हैं कि बिहार का शिक्षित हो या अशिक्षित युवा, बड़ी संख्या में अपना घर-बार छोड़कर जाने को मजबूर है. राजनीति इस दर्द को पहचानती तो है, मगर समाधान अक्सर चुनावी नारे से आगे नहीं बढ़ पाता.

2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार से 74.54 लाख लोगों ने पलायन किया था, इनमें से 22.65 लाख लोग रोजगार की तलाश में गए.
चुनावी वादों में पलायन
बिहार में इस बार भी तीनों मोर्चों (एनडीए, महागठबंधन और जन सुराज) ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया है. महागठबंधन का कहना है कि बदलाव का वक्त आ गया है. इसने 'हर परिवार को एक सरकारी नौकरी' देने की घोषणा की है. आर्थिक मामलों के जानकार बता रहे हैं कि ऐसा कर पाना वित्तीय दृष्टिकोण से व्यवहार्य नहीं है. बीजेपी, जदयू, एलजेपीआर, हम और रालोमो वाला एनडीए भी पीछे नहीं है. वह यह भी एक करोड़ नौकरियों का वादा दोहरा रहा है. इसके साथ ही वह कल्याण योजनाओं की लंबी सूची भी गिना रहा है. लेकिन इनसे कोई पूछे कि साल 2005 से 2025 तक बीच के कुछ सालों को छोड़कर राज्य में एनडीए ही शासन में है, लेकिन ऐसा कोई प्रयास पहले क्यों नहीं किया गया? क्या इतना लंबा शासनकाल बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिए कम है?
वहीं प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने बिहार के पलायन और बेरोजगारी संकट को अपनी राजनीति के केंद्र में रखते हुए यह वादा किया है कि राज्य में ऐसा माहौल बनाया जाएगा जहां युवाओं को जीविका के लिए अपने गांव और अपना प्रदेश न छोड़ना पड़े. पार्टी का कहना है कि बिहार में रोजगार-सृजन का रास्ता केवल नारों और अनुदान-आधारित राजनीति से नहीं, बल्कि शिक्षा, कौशल और सुशासन से ही निकलेगा. जन सुराज स्थानीय स्तर पर उद्योग, विशेषकर कृषि-आधारित और स्वरोजगार-मुखी मॉडल को बढ़ावा देने, कौशल-संस्थानों के विस्तार और सरकारी तंत्र में पारदर्शिता के जरिए नौकरियों को सुलभ बनाने का भरोसा देती है. उसका दावा है कि सही नीति-निर्णय, स्कूलों की गुणवत्ता सुधार और पारदर्शी प्रशासन मिलकर एक ऐसी अर्थव्यवस्था गढ़ सकते हैं जिसमें रोजगार राज्य के भीतर ही पैदा होगा.
बिहार में समस्याओं का समाधान
चुनावी वादों से इतर बात करें तो पलायन और बेरोजगारी का समाधान किसी चमत्कार में नहीं, बल्कि ठोस और दीर्घकालिक नीति में है. बिहार में उद्योगों की अपार संभावना है. राज्य की कृषि प्रधान संरचना के कारण खाद्य-प्रसंस्करण, कोल्ड-स्टोरेज और डेयरी उद्योग यहां सबसे स्वाभाविक विकल्प हैं. इसके साथ ही टेक्सटाइल, हैंडलूम और विशेष रूप से भागलपुर सिल्क को बड़े पैमाने पर विकसित किया जा सकता है. लेदर और फुटवियर उद्योग कच्चे माल और श्रम उपलब्धता के कारण रोजगार पैदा करने की क्षमता रखते हैं. युवा आबादी को देखते हुए आईटी, कॉल-सेंटर और डिजिटल सेवाएं एक उभरता हुआ क्षेत्र बन सकता है. वहीं नवीकरणीय ऊर्जा, विशेषकर सौर ऊर्जा, मशीनरी और पैकेजिंग उद्योग राज्य में नए निवेश और स्वरोजगार को गति दे सकते हैं. उचित बुनियादी ढांचा, बाजार-कनेक्टिविटी, कौशल-प्रशिक्षण और नीति-स्थिरता मिल जाए, तो यही उद्योग बिहार को रोजगारयुक्त अर्थव्यवस्था में बदल सकते हैं और पलायन की समस्या को जड़ से समाप्त कर सकते हैं.

केंद्र सरकार के ई-श्रम पोर्टल पर बिहार से 3.16 करोड़ से अधिक लोगों ने पंजीकरण कराया है.
अगर कोई राजनीतिक दल वाकई पलायन रोकना चाहता है तो स्थानीय उद्योगों, विशेषकर MSME को बढ़ावा देना होगा. मनरेगा को कृषि से जोड़ना होगा ताकि ग्रामीण उद्यमिता को बढ़ावा मिल सके. स्टार्टअप के लिए सस्ती वित्तीय पहुंच जैसे रोजगार–आधारित अर्थव्यवस्था बना सकते हैं. बिहार में सिर्फ 3,386 फैक्ट्रियां और उद्योग हैं इनमें मात्र 1.17 लाख लोगों को ही रोजगार मिला है. यह आंकड़ा खुद बताता है कि समस्या की जड़ कहां है. जब तक बिहार उद्योग-आधारित विकास माडल नहीं अपनाएगा, तब तक लाख योजनाएं आएं, पलायन जारी रहेगा.
कितनी बड़ी है बिहार की अर्थव्यवस्था
बेरोजगारी और पलायन की समस्या को समझ लेने के बाद मन स्वाभाविक रूप से यह पूछने पर मजबूर होता है कि आखिर बिहार की अर्थव्यवस्था किस हालत में है. कागजों में तो तस्वीर बहुत चमकदार है. साल 2023–24 में राज्य का GSDP 8.54 लाख करोड़ तक पहुंच चुका था. इसमें 14.5 फीसदी की वृद्धि भी दर्ज की गई. राज्य के कुल GSDP में सेवा क्षेत्र का हिस्सा 58.6 फीसदी है. सड़क घनत्व बढ़कर 3167 किमी प्रति 1000 वर्ग किमी हो चुका है. इन सबके बावजूद सच्चाई यह है कि विकास के ये आंकड़े रोजगार उत्पन्न नहीं कर सके. यही बिहार का सबसे बड़ा विरोधाभास भी है.
गरीबी का जख्म भी अब तक भरा नहीं है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-5) बताता है कि आज भी 33.76 फीसदी लोग बहुआयामी गरीबी (MPI) से जूझ रहे हैं. यह राहत जरूर है कि 2015–16 की तुलना में 2.25 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए हैं, लेकिन यह सुकून उस समय फीका पड़ जाता है, जब यह याद आता है कि देश का सबसे बड़ा गरीब जनसमूह अब भी इसी राज्य में है. बिहार का प्रति व्यक्ति आय भी राष्ट्रीय औसत का मात्र 30 फीसदी है. यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि घोर सामाजिक असमानता को दर्शाता है. लाखों परिवार आज भी अपने हिस्से की रोशनी का इंतजार कर रहे हैं.

बिहार में केवल 3,386 फैक्ट्रियां और उद्योग हैं. इनमें 1.17 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है.
कैसी है बिहार में शिक्षा की तस्वीर
शिक्षा की तस्वीर भी बहुत सुंदर नहीं है. PLFS 2023-2024 के अनुसार बिहार की साक्षरता दर अब भी 74.3 फीसदी पर अटकी हुई है, जो राष्ट्रीय साक्षरता दर 80.9 फीसदी से कम है. ASER-2024 के मुताबिक कक्षा पांच के 41.2 फीसदी बच्चे आसानी से पाठ भी नहीं पढ़ पाते हैं. यानी लाखों बच्चे हर दिन स्कूल की इमारत में दाखिल तो होते हैं, पर ज्ञान के दरवाजे उनके लिए अब भी बंद हैं. ड्रॉपआउट दर भी कक्षा 9-10 में 19.5 फीसदी और कक्षा 11-12 में 10.3 फीसदी है. उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण (AISHE 2021-2022) से पता चलता है कि उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) मात्र 17.1 फीसदी है, जो राष्ट्रीय औसत 28.4 फीसदी से काफी नीचे है.शिक्षक–छात्र अनुपात भी राष्ट्रीय औसत से बदतर है, जिससे यह स्पष्ट है कि बिहार की शिक्षा व्यवस्था अभी भी पुस्तकों, पोशाकों, साइकिलों और आंकड़ों में उलझी हुई है. यह अब भी अपने वास्तविक लक्ष्य से मिलों दूर खड़ी है.
स्वास्थ्य व्यवस्था की जर्जर हालत इस पीड़ा को और गहरा कर देती है. शिशु मृत्यु दर आज भी प्रति 1000 जन्म पर 47 मौतों पर अटकी हुई है. पांच साल से कम आयु के 40 फीसदी से अधिक बच्चे कुपोषण से जूझ रहे हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि अधिकांश बच्चों के जीवन की शुरुआत ही असुरक्षा की छाया में होती है. पूरे बिहार में अस्पतालों में केवल 41 हजार 800 बेड हैं, यानी प्रति 1000 लोगों पर महज 0.3 बेड उपलब्ध है, जबकि राष्ट्रीय औसत 1.7 बेड का है. टीकाकरण की धीमी गति, डॉक्टरों की भारी कमी और जर्जर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र— ये सब मिलकर लोगों को यह कटु सच्चाई याद दिलाते हैं कि यहां बीमार पड़ना किसी अभिशाप से कम नहीं है.
इस बार मतदाता अब पहले से अधिक सचेत नजर आ रहा है. बिहार का युवा, किसान और नारी-शक्ति केवल चुनावी वादे नहीं, परिणाम चाहते हैं. इस बार का चुनाव निर्णायक साबित हो सकता है, लेकिन अगर इस बार भी वोट जाति, धर्म, चुनावी रेवड़ी, सब्सिडी और भावनाओं में बहकर किया गया तो न सिर्फ यह पीढ़ी, बल्कि अगली पीढ़ी भी उसी रेलवे प्लेटफॉर्म पर अपनी किस्मत का इंतजार करेगी, जहां से ट्रेनें उन्हें अन्य प्रदेशों में ले जाकर 'प्रवासी मजदूर' का तमगा दिला देती है.
डिस्क्लेमर: लेखक बिहार के बाबासाहेब भीमराव अम्बेदकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर के राजनीति विज्ञान विभाग में रिसर्च स्कॉलर हैं. इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.