सावधान, आप खिलाड़ियों से ही न खेलने लगें

भारतीय खिलाड़ी किन हालात में अपना खेल जारी रखते हैं, कितनी मुश्किलों से पदक के पोडियम तक पहुंचते हैं, एक लम्हे की रोशनी के लिए अभावों के कितने थपेड़े झेलते हुए अंधेरों के कितने समंदर पार करते हैं, यह कोई नहीं जानता. लेकिन उनकी सफलता को भुनाने के लिए नेता भी चले आते हैं और खिलाड़ी भी.

सावधान, आप खिलाड़ियों से ही न खेलने लगें

ओलंपिक पदक विजेताओं की तमाम चमकीली खबरों के बीच आप एक खबर यह भी पढ़ लें- मीराबाई चानू ने 150 ट्रक ड्राइवरों और खलासियों का सम्मान किया. दरअसल ये वे लोग हैं जिनकी वजह से ओलंपिक तक उनका सफ़र संभव हुआ. मीराबाई चानू के गांव नोंग्पोक काक्चिंग से इंफाल की स्पोर्ट्स एकैडमी 25 किलोमीटर दूर थी. उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि रोज़ अपने ख़र्च से वहां तक जा सकें. तो इसलिए वे रेत लेकर इंफाल जा रहे ट्रक वालों से लिफ़्ट लिया करती थीं. ये सिलसिला बरसों चला. ये ट्रक ड्राइवर न होते तो क्या पता मीराबाई चानू का सफ़र अपने पहले ही लक्ष्य में ख़त्म हो गया होता. ओलंपिक पदक जीतकर लौटी मीराबाई ने इन लोगों को शर्ट और मणिपुरी स्कार्फ देकर सम्मानित किया.

दूसरी पदक विजेता असम की लवलीना की कहानी कुछ अलग नहीं है. पिता को 2500 रुपये मिलते थे जिससे तीन बहनों वाले परिवार का गुज़ारा चलता था. लवलीना बताती हैं कि बचपन में ऐसे भी अवसर आते थे जब किसी एक शाम का भोजन नहीं मिल पाता था. पिछले साल तक वे खेतों में रोपनी कर रही थीं. कोविड हुआ तो उससे उबरीं और कोविड पीड़ितों की मदद के लिए भी निकलीं. इसके बावजूद उन्होंने पदक जीता.

ऐसी कहानियां और मिलेंगी. भारतीय खिलाड़ी किन हालात में अपना खेल जारी रखते हैं, कितनी मुश्किलों से पदक के पोडियम तक पहुंचते हैं, एक लम्हे की रोशनी के लिए अभावों के कितने थपेड़े झेलते हुए अंधेरों के कितने समंदर पार करते हैं, यह कोई नहीं जानता. लेकिन उनकी सफलता को भुनाने के लिए नेता भी चले आते हैं और खिलाड़ी भी. प्रधानमंत्री ओलंपिक के लिए जा रहे खिलाड़ियों से मिलते हैं और सरकारी संसाधनों की मदद से उनके घरों तक कैमरे और लाइव प्रसारण का इंतज़ाम करके, उनके मां-पिता को बिठा कर घंटों मीडिया को दिखाते हैं कि उनको खेलों से कितना प्रेम है. हर पदक के बाद वे ट्वीट करते हैं और खिलाड़ियों से बात भी कर लेते हैं. खिलाड़ियों को शुभकामना देने के लिए बाक़ायदा एक ऑनलाइन खिड़की खोल दी जाती है.

निश्चय ही यह सब होना चाहिए. इससे भी खिलाड़ियों का हौसला बढ़ता है. फिर यह भी सच है कि कोई पदक सिर्फ खिलाड़ी की मेधा और मेहनत से हासिल नहीं होता, उसके पीछे एक पूरी व्यवस्था होती है. ओलंपिक में इस बार भारतीय खिलाड़ी पांच पदक ला पाए तो इसलिए भी कि खेलों का बुनियादी ढांचा पहले से बेहतर है. मीराबाई चानू को प्रशिक्षण के लिए अमेरिका नहीं भेजा गया होता तब भी संभव है कि उन्हें पदक नहीं मिलता. यही बात दूसरे खिलाड़ियों और खेलों के बारे में कही जा सकती है. लेकिन तब भी हमारे यहां का खेल-ढांचा ऐसा नहीं है कि सरकारें अपनी पीठ ठोकें. चीन, अमेरिका, रूस या जापान इसलिए सारे पदकों पर झाड़ू नहीं फेर देते कि उनके यहां बड़े प्रतिभाशाली खिलाड़ी निकलते हैं, बल्कि इसलिए उनके पास ऐसा मज़बूत खेल-ढांचा है जो अपने खिलाड़ियों की प्रतिभा को जाया नहीं होने देता.

लेकिन हमारी त्रासदी सिर्फ़ खेल ढांचा न होने की नहीं है, वह खेल संस्कृति न होने की भी है. खेलकूद या तो ख़राब काम माना जाता रहा या फिर बच्चों का काम. नौकरी और इज़्ज़त पढ़ाई से मिलती है, खेलने से नहीं. नतीजा यह होता है कि बच्चे सातवीं-आठवीं के बाद किताबों में आंख फोड़ने लगते हैं. बाद के वर्षों में कभी-कभार शौकिया भले खेल लें, लेकिन वह उनकी प्राथमिकता नहीं होता. लेकिन जिनके लिए खेल प्राथमिकता होता है, वे यह जानकर और निराश होते हैं कि खेलों के नाम पर बनाया-दिखाया जा रहा ढांचा सिर्फ अपर्याप्त ही नहीं, बुरी तरह भ्रष्ट है. स्कूल स्तर के मुक़ाबलों के लिए टीमों में चुने जाने के लिए पैसे देने पड़ते हैं. यह सिलसिला आगे भी जारी रहता है. फिर जो खिलाड़ी स्टार बन जाते हैं उनका तो फिर भी एक भविष्य बन जाता है, लेकिन बहुत सारे दूसरे खिलाड़ी गुजारे के लिए तरह-तरह के संघर्ष करने को मजबूर होते हैं.

लेकिन प्रतिस्पर्धाओं की बात छोड़ दें. ख़ुद को सेहतमंद रखने के लिए, मनबहलाव के लिए भी हमारा समाज खेलता नहीं है. आप 20-22 साल के हुए कि खेल पीछे छूट जाते हैं. फिर आपको टहलने और दौड़ने की याद तब आती है जब आपका डॉक्टर बताता है कि अपने मधुमेह को नियंत्रित रखने के लिए आपको कुछ दौड़भाग करनी चाहिए.

जाहिर है, हमारा पूरा समाज खेल विरोधी है. हाल ही में अपने एक लेख में मनु जोसेफ़ ने बिल्कुल ठीक लिखा कि किसी भारतीय के लिए 50 मीटर दौड़ना भी मुश्किल है.

लड़कियों के साथ स्थिति और भयानक है. उनका खेलना ही बुरा माना जाता है. वे घर में रस्सी कूद लें, कितकित खेल लें, गुड़िया का ब्याह कर लें, लेकिन फुटबॉल, क्रिकेट और बैडमिंटन नहीं खेल सकतीं, इसमें टांगें दिखाई पड़ती हैं. मुक्केबाजी, भारोत्तोलन और कुश्ती तो वे खेल हैं जो लड़कियों को शोभा नहीं देते. इन लड़कियों को हर मोड़ पर प्रतिरोध झेलना पड़ता है, छींटाकशी झेलनी पड़ती है, ब्याह जैसी ज़रूरी चीज़ न होने की चेतावनी झेलनी पड़ती है और इन सबके बावजूद खेलते रहना पड़ता है.

इन तमाम हालात से गुजरते हुए जो खिलाड़ी किसी तरह ओलंपिक तक पहुंचते हैं, वे हमारी सलामी के, हमारी कृतज्ञता के अधिकारी हैं.

लेकिन हमारा कुल रवैया क्या होता है? हम बस ओलंपिक की पदक तालिका में देश को आगे देखना चाहते हैं. हम बस अफ़सोस करते हैं कि एक अरब 35 करोड़ से ऊपर की आबादी के बावजूद हम ओलंपिक में 65वें नंबर पर हैं, यह नहीं सोचते कि यहां क्यों हैं? यह भी नहीं देखते कि मानव विकास के दूसरे मानकों में हम कहां हैं. भूख की तालिका में हमारी जगह कहां है, साधनों के मामले में हमारी सूची क्या है.

दरअसल बाज़ारवाद और राष्ट्रवाद के साझा रसायन ने भारत में एक ऐसा उच्च मध्यवर्ग पैदा किया है जिसकी महत्वाकांक्षा एक ऐसे समृद्ध और शक्तिशाली भारत का नागरिक होने की है जो सबको परास्त करता नज़र आए, सबको डराता हुआ दिखे. यह समृद्धि और शक्ति भारतीय राष्ट्र राज्य में समान रूप से वितरित हो और सभी नागरिक इसका आस्वाद ले सकें- यह उसकी कामना नहीं है. 

दरअसल यह उसका अभ्यास हो गया है कि उसके लिए कोई और मेहनत करे जिसका तमगा वह अपने सिर लेकर घूम सके. उसके लिए मीराबाई और लवलीना पदक जीतें और वह इसे भारत की जीत बताता हुआ आसानी से भूल जाए कि अन्यथा पूर्वोत्तर के साथ उसका व्यवहार क्या रहता है. यही नहीं, यह उद्धत बाज़ारवाद और राष्ट्रवाद खिलाड़ियों को सितारों में बदलता है और फिर व्यर्थ के कामों में लगा देता है. अचानक हम पाते हैं कि राज्यवर्द्धन राठौड़ और गीता फोगाट संभावनापूर्ण शुरुआत के बाद राजनीति में चले गए और सुशील कुमार बहुत घटिया क़िस्म के धंधों में शामिल होकर तिहाड़ में बैठकर ओलंपिक देख रहा है.

उधर बाज़ार ने अभी से अपने डैने फैलाने शुरू कर दिए हैं. वह ओलंपिक विजेता खिलाड़ियों को मुफ़्त पिज्जा और हवाई यात्राओं के प्रस्ताव देने लगा है. ख़तरा ये है कि ये खिलाड़ी फिर खेल भूलकर सितारे न बन जाएं. दूसरे देशों में खिलाड़ी एक ओलंपिक के बाद दूसरे ओलंपिक में अपना प्रदर्शन सुधारते पाए जाते हैं, जबकि अपने यहां खिलाड़ी एक बार चमक कर जैसे बुझ जाते हैं. यह खोखला उच्चमध्यवर्गीय उपभोक्ता समाज इनको खा जाता है. वह खेल नहीं खेलता, खिलाड़ियों से खेलता है. इस उद्धत राष्ट्रवाद का दूसरा सिरा चीन की पदकों की भूख में दिखता है जहां स्वर्ण पदक न जीत पाने वाले खिलाड़ी को देशद्रोही बताया जा रहा है. रजत पदक जीतने वाले को माफ़ी मांगनी पड़ रही है.

हमारे यहां यह काम दूसरे ढंग से हो रहा है. किसी भी नाकामी के बहाने हम खिलाड़ियों की सामाजिक पृष्ठभूमि को निशाना बनाने से नहीं चूक रहे. महिला हॉकी टीम अर्जेंटीना से सेमीफ़ाइनल मुक़ाबला हारी तो हरिद्वार में वंदना कटारिया के घर लोग गाली-गलौज करने पहुंच गए- उनके परिवार को उनकी जाति याद दिलाई जाने लगी.

तो यह है कि हमारे खेलप्रेम का सच. इसमें राष्ट्र और बाज़ार का समावेश नमक बराबर होना चाहिए- ताकि उनमें स्वाद आए- लेकिन वह ज़्यादा हो जाता है तो ज़हर हो जाता है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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