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This Article is From Jul 21, 2014

प्रियदर्शन की बात पते की : नियति से मुठभेड़

Priyadarshan
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 19, 2014 15:45 pm IST
    • Published On जुलाई 21, 2014 23:01 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 19, 2014 15:45 pm IST

उनकी उम्र बदल जाती है, उनके शहर बदल जाते हैं, उनकी पहचान बदल जाती है, लेकिन उनकी नियति नहीं बदलती। वे किसी पल्लवी की तरह अपने बेहतरीन पेशेवर वर्षों में मुंबई में मारी जाती हैं। वे 6 साल की बिल्कुल कच्ची उम्र में अपनी अबोध आंखों से बेंगलुरु में अपने दुराचारियों की शिनाख्त करने की मायूस कोशिश करती हैं। वे लखनऊ में दरिंदों से घिर जाती हैं, तो लड़ती हुई मारी जाती हैं। वे बदायूं में पेड़ से लटकी मिलती हैं। उनकी क़ब्रें पानी में डूब जाती हैं।

लेकिन इक्कीसवीं सदी के हिंदुस्तान की लड़कियां सिर्फ़ यही नहीं झेलतीं। मारे जाने से पहले भी किसी वहशी अनुभव से गुज़र कर पीड़ित या शिकार कहलाने से पहले भी घर और दफ़्तर में सड़क और ज़िंदगी में उन्हें बार−बार याद दिलाया जाता है कि वे लड़की हैं कि उनके साथ किसी भी तरह का सलूक किया जा सकता है कि उन पर फब्तियां कसने या उन्हें अभद्र इशारे करने से लेकर उनके पीठ पीछे हंसने तक− मर्दों के पास इतनी सदियों से विकसित तरीक़े हैं कि वे हर कानून में अपने हिस्से का सूराख और हर समाज में अपने लिए समर्थन खोज लेते हैं।

इस तकलीफ़देह कहानी की राहत बस इतनी है कि इतना कुछ झेलने के बाद भी लड़कियां टूटतीं नहीं। वे सहम कर पीछे हटती हैं, लेकिन फिर साहस जुटा कर चल पड़ती हैं−इन दिनों वे घरों को संवार रही हैं, दफ़्तरों को सहेज रही हैं। वे कंधे से कंधा मिलाकर नहीं छील कर काम कर रही हैं। वे साबित कर रही हैं कि मर्दों की बनाई ये दुनिया वे भी जीत सकती हैं।

दरअसल शायद यह साबित करने की भी सजा है जो उन्हें दी जा रही है− लेकिन एक पीछे छूटते समाज की ये डरी हुई दरिंदगी है जो आगे बढ़ती लड़की को डराना चाहती है। मगर इतिहास को पलटने की ये हांफती हुई कोशिश अब कामयाब नहीं होने वाली, क्योंकि अब जो इतिहास लिखा जा रहा है, वह मर्दों की कुंठा और ज़ुर्रत से नहीं, लड़कियों के हौसले और उनकी हिम्मत से लिखा जा रहा है। बेशक फिलहाल इनमें उनके आंसू और उनके बदन पर पड़ने वाले ज़ख़्मों के निशान ज़्यादा हैं, लेकिन ये दिन भी उम्मीद करें एक दिन बदल जाएंगे।

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