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This Article is From Apr 10, 2018

प्राइम टाइम इंट्रो : क्या RTI में गलत सूचनाएं भी दी जा रही हैं? 

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 10, 2018 23:06 pm IST
    • Published On अप्रैल 10, 2018 23:06 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 10, 2018 23:06 pm IST
सूचना आपको बदल देती है. ग़लत सूचना से आप दंगाई बन जाते हैं जैसे आपने देखा कि उत्तराखंड के अगस्त्यमुनि में कैसे लोग ग़लत सूचना के कारण दंगाई में बदल गए और दुकानों को जला आए. अगर उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत सही जानने का दावा किया होता, कोशिश की होती तो वे अपराधी बनने से बच सकते थे और किसी की दुकानें नहीं जलतीं. मुश्किल यह है कि सूचना का बाज़ार ही अफवाहों और फेक न्यूज़ से भर गया है. संवैधानिक पदों पर बैठे नेता झूठ बोलकर सूचना जैसे पवित्र तत्व को प्रदूषित कर रहे हैं. हर तरह की सूचना संदिग्ध है.

इस बीच एक कानून है सूचना के अधिकार का कानून. जिसका इस्तेमाल आपको बदल देता है. आपके पूछे गए सवाल के जवाब में प्रशासन के भीतर हलचल पैदा होती है, कुछ गलत बाहर आ जाता है और आप सिर्फ एक प्रयास से लोकतंत्र में पहरेदार बन जाते हैं. सूचना के अधिकार का पूरा मॉडल ही इस पर आधारित है कि लोकतंत्र का चौकीदार आप बनें न कि कोई एक बने. हज़ारों प्रकार की संस्थाओं की निगरानी कोई एक चौकीदार से नहीं हो सकती है, यह मॉडल फेल होने के लिए बाध्य है. फेक तो है ही. चुनावों में चल सकता है जैसे प्रधानमंत्री ने कहा कि वे दिल्ली में चौकीदार हैं, ऐसी बातें कह दी जाती हैं मगर रोज़मर्रा के लोकतंत्र की चौकीदारी तभी होती है जब जनता जानने के अधिकार को लेकर सतर्क रहती है. एक संस्था से चूक होती है तो कोई नीरव मोद फरार हो जाता है.

जिस बाज़ार से यानी न्यूज़ चैनलों और अख़बारों से आप सूचना ख़रीदते हैं, उससे मिलने वाली सूचना ईमानदार और विश्वसनीय है या नहीं, इसे लेकर सतर्क रहा कीजिए और जिन सरकारी संस्थानों से आप अधिकार के तहत सूचना मांग सकते हैं, उसे भी लेकर सतर्क रहिए. भारत में सूचना के अधिकार का कानून 15 जून 2005 को पास हुआ था. वो दिन ऐतिहासिक था. उसके पहले यह कानून अलग-अलग रूपों में कुछ राज्यों में मौजूद था. राजस्थान में यह कानून जनता के बीच से निकल कर आया है. उस अनुभव यात्रा का एक किताब में संकलन किया गया है. 

'THE RTI Story', इसे लिखा है अरुणा रॉय ने मगर वे इसकी अकेली लेखिका नहीं हैं. शायद हज़ारों लोग हैं जिन्होंने कड़ी धूप में खड़े होकर हफ्तों धरना दिया, जनसुनवाई में हिस्सा लिया और सूचना के महत्व को समझा, वे सब लोग इस किताब को लिख रहे हैं या उन सबकी कहानी इस किताब में लिखी जा रही है. सरकार से सूचना मांगी जा सकती है, ये ख़्याल ही नया था. अभी तक लोग सरकार से रोटी कपड़ा और मकान मांग रहे थे, मगर कुछ करने के ख़्याल से सात साल की आईएएस की नौकरी छोड़कर अरुणा रॉय, एयर मार्शल के बेटे निखिल डे अमरीका में प्रतिष्ठित स्कॉरलिशप छोड़कर आते हैं और एक गांव में अपना ठिकाना बनाते हैं. देवडुंगरी उसका नाम है. शंकर सिंह, अंशी जुड़ते हैं. इन सबके मन में एक बेचैनी थी, कुछ सार्थक करना है, अपने लिए नहीं, ऐसा कुछ जो लोगों की ज़िंदगी बदल दे.

इनके जीवन की यात्रा कई लोगों की यात्रा में बदल जाती है. हिन्दुस्तान को एक क्रांतिकारी कानून मिलता है, सूचना के अधिकार का कानून. सूचना से लैस एक ऐसी जनता की कल्पना करने वाला कानून जिसके बारे में अभी तक सोचा नहीं गया था. हमारे दर्शकों में से जिसने भी जीवन में कभी सूचना के अधिकार का इस्तमाल किया है, वो इस किताब का लेखक भी है और पाठक भी है. वे भी इसके लेखक हैं जो सूचना के अधिकार का इस्तमाल करन के कारण मार दिए गए हैं. वे सूचना के शहीद हैं. आप जानते हैं कि मैं जब किताब का नाम लेता हूं, दाम भी बताता हूं और प्रकाशक का नाम भी बताता हूं. इसे छापा है रोली बुक्स प्रकाशन ने और कीमत है 495 रुपये. यह किताब अंग्रेज़ी में है और जल्दी ही राजकमल प्रकाशन से हिन्दी में आ रही है.

एक मिनट के लिए इस किताब से हट कर एक सवाल पर ग़ौर कीजिए. फेक न्यूज़ के इस दौर में जब मीडिया का बड़ा हिस्सा गोदी और ग़ुलाम मीडिया हो गया है, अगर आपके पास सूचना के अधिकार का कानून नहीं होता तो क्या होता. इस सवाल पर आप गंभीरता से विचार कीजिए. अगर यह कानून नहीं होता, तब आप सरकार के दावों को परखने के लिए, सही या गलत साबित करने के लिए कहां से सूचना लाते. अंधेरा कितना घना होता. 

आपका ही डेटा चुरा कर, आपको झूठ परोसने का एक तंत्र विकसित हो गया है. आरटीआई एक दीये के समान है, कम से कम आप जानकारी मांग कर देख तो सकते हैं कि अंधेरा कितना घना है. झूठ कितना है और सच कितना है. क्या सूचना का अधिकार फेक न्यूज़ से बचा सकता है. जब चारों तरफ झूठ हो और प्रेस का भी भरोसा न हो, सूचना का अधिकार आखिरी अधिकार है, जानने का. आप पैसे देकर सही सूचना खरीद सकते हैं, यह भ्रम अब टूट गया है.

भारत में भी और दुनिया में भी. मैं नहीं जानता कि अपनी संघर्ष यात्रा में इस कानून से जुड़े लोगों ने इस दिन की कल्पना की थी या नहीं मगर इस किताब को जितना भी पढ़ सका हूं, यही लगा कि सरकारें झूठ का पुलिंदा होती हैं. सूचना के अधिकार से ही आप सही जान सकते हैं. यह ऐसा कानून है जो भीतर बैठे अधिकारियों को भी मज़बूती देता है, जो ईमानदार हैं, और जो परेशान कर्मचारी हैं, उनके लिए भी यह सहारा है. हर कोई इस कानून का अपने अपने हिसाब से इस्तमाल कर रहा है.

इस किताब को पढ़ते हुए आप जान पाएंगे कि कैसे सारा खेल सही सूचना का है. आप तक सरकारी रिकॉर्ड की जानकारी न मिले, इसी तिकड़म के तहत हम सब कुचले जा रहे हैं. प्यारजी एक सरपंच का किस्सा है इसमें. पंचायत की सीट रिज़र्व हुई तो प्रभावशाली जातियों ने एक रणनीति बनाई. वहां मेघवाल जो एक दलित जाति है, उसकी संख्या ज़्यादा है, उसके किसी को सरपंच बनने से रोकने के लिए दो चार घर वाले खटिक समाज के किसी की खोज होती है. प्यार जी सूरत में मिट्टी का तेल बेच रहे थे, वहां से बुलाया जाता है कि हम तुम्हें सरपंच बनाएंगे. वे आते हैं और सरपंच का चुनाव जीत जाते हैं और ठाकुर जाति के हाथ में खेलने लगते हैं. जल्दी ही प्यार जी समझ जाते हैं कि उनसे गलत कराया जा रहा है. वे मज़दूर किसान शक्ति संगठन के पास आते हैं और कहते हैं कि हमारे गांव में जनसुनवाई हो.

एक सरपंच अपने ही खिलाफ जनसुनवाई की मांग करता है. ताकि वो इससे मुक्त हो सके. कई बार आप खुद से मुक्त नहीं हो पाते हैं, तो दूसरों की मदद लेते हैं. सारा खेल सामने जाता है जो फिर से जांच होती है. ये है सही सूचना का असर. वर्ना तो उनके गांव में बीपीएल परिवारों की सूची में ऊंची जाति के लोग अपना नाम जोड़ कर सरकारी योजनाओं का लाभ ले रहे थे. जिनके लिए योजना थी उन्हें तो मिल ही नहीं रही थी. ऐसे प्रसंगों से यह किताब भरी हुई है.

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