अंग्रेज़ी के लोकप्रिय लेखक जेफ़री आर्चर के उपन्यास 'फॉल्स इंप्रेशन्स' की नायिका 11 सितंबर 2001 (9/11 ) की सुबह इंग्लैंड से लौट कर न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की 84वीं या 85वीं मंज़िल पर बने अपने दफ़्तर में पहुंचती है. कुछ देर बाद उसे ज़ोर की आवाज़ सुनाई पड़ती है और वह सिहरते हुए देखती है कि एक विमान एक टावर से टकराया है. भागदौड़ और अफरातफ़री के बीच दूसरा विमान भी दूसरे टावर से टकराता है और वह नीचे भागती है. कई घंटे बाद धूल-गर्द, कालिख और गंदगी से सनी वह निकल पाती है. निकल कर एक दोस्त के घर पहुंचती है. वहां टीवी पर फिर वही विमानों के टकराने वाला दृश्य देखती है और उसे उबकाई सी आती है. जो दूसरों के लिए शायद सनसनी या मनोरंजन का मसाला था, वह उस इमारत के ध्वंस से घिरे लोगों के लिए एक पूरी दुनिया का ध्वस्त हो जाना था.
11 सितंबर 2001 की वह सुबह इतिहास की स्मृति से जाने वाली नहीं है जब अलग-अलग विमान बहुत मामूली अंतरालों पर अमेरिका की शक्ति और संपन्नता के सबसे ऊंचे और मज़बूत प्रतीकों से टकराते रहे. दुनिया की सबसे ऊंची इमारतों में एक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर दो टावर बिल्कुल ज़मींदोज़ हो गए और एक विमान पेंटागन के ऊपर भी गिरा. जब ये हमले हो रहे थे, तब जॉर्ज बुश फ्लोरिडा के सारासोटा में एक स्कूल का दौरा कर रहे थे. जब जॉर्ज बुश एम्मा ई बुकर नाम के उस स्कूल की ओर जा रहे थे, तब उन्हें पहला विमान टकराने की ख़बर मिली. जब वे क्लास रूम में बच्चों से बात कर रहे थे, तब दूसरा विमान टकराने की सूचना मिली. इसके बाद भी कई मिनट वे क्लास में रहे, फिर उठ कर उन्होंने फोटो सेशन में हिस्सा लिया औरउसके बाद एक ख़ाली कमरे में जाकर उन्होंने हालात का जायज़ा लिया, उपराष्ट्रपति डिक चेनी से बात की.
इस आतंकी हमले को लेकर बनी माइकल मूर की फिल्म 'नाइन इलेवन फॉरेनहाइट' आरोप लगाती है कि अमेरिका पर हुए इस आतंकी हमले का सबसे पहला फ़ायदा जॉर्ज बुश को ही मिला. उनके राष्ट्रपति बने बस सात महीने हुए थे और इन सात महीनों में वे लगातार विरोध प्रदर्शनों से घिरे थे. उन पर चुनाव में घपले का इल्ज़ाम था और प्रदर्शनकारी लगातार दबाव बना रहे थे. लेकिन इस हमले के तत्काल बाद जॉर्ज बुश ने आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध का एलान किया और निष्कंटक राष्ट्रपति बन गए.
इसी फिल्म में एक दावा और है. 11 सितंबर के हमले के बाद जब पूरे अमेरिका में विमानों की उड़ान रुकी हुई थी, तब बस एक विमान उड़ा जिसमें ओसामा बिन लादेन के परिवार को सुरक्षित बाहर निकाला गया.हो सकता है, ये दावे अतिवादी हों. संभव है, इनके पीछे हर जगह साज़िश खोजने वाली अतिरिक्त सतर्क दृष्टि हो. लेकिन फिलहाल इसको स्थगित करते हैं और कुछ दूसरे संदर्भों की ओर चलते हैं. कैथी स्कॉट क्लार्क और ऐड्रियन लेवी की किताब 'द एक्साइल' के दो प्रसंग उल्लेखनीय हैं. एक प्रसंग के मुताबिक अमेरिकी और पाकिस्तानी सेनाओं ने तोराबोरा की पहाड़ियों में छुपे ओसामा बिन लादेन को लगभग घेर लिया था. माना जा रहा था कि अगली सुबह वह पकड़ा जाएगा. लेकिन जब अगली सुबह अमेरिकी सैनिक जागे तो उन्होंने देखा कि घेराबंदी में लगी पाकिस्तानी सेना पूरी तरह गायब है और ओसामा बिन लादेन निकल चुका है.
यह पता चलता है कि 13 दिसंबर 2001 को भारत में संसद भवन पर हमला हुआ है और भारत-पाक सीमा पर बढ़ते तनाव की वजह से सेनाओं को उस मोर्चे पर भेज दिया गया है. 'द एक्साइल' के लेखकों ने बहुत हल्का संदेह यह भी जताया है- जिसके कोई प्रमाण उनके पास नहीं हैं- कि भारतीय संसद पर हमला ही इसलिए कराया गया कि पाक सेनाओं को तोराबोरा की पहाड़ियों से हटाने का बहाना निकाला जा सके. वे पूछते हैं कि क्या यह संभव था कि जैश के लोग अपने आका आइएसआई को बताए बगैर भारतीय ज़मीन पर इतना बड़ा हमला कर डालें?
इसी किताब में दो और दिलचस्प प्रसंग मिलते हैं जो बताते हैं कि आतंकवाद या कोई भी मसला जांच एजेंसियों के भीतर किस तरह की राजनीति से संचालित होता है. किताब के मुताबिक पहले इस आतंकी हमले की जांच एफबीआई के हाथ थी जिसने साज़िश की कई तहें खोज निकाली थीं. लेकिन सीआइए और एफबीआई में टकराव चला, जांच अंततः सीआइए के हाथ गई और उसने फिर पूरा तरीक़ा बदल दिया जिसमें गुआंतानामो बे सहित कई यातना शिविरों और यातना के नए उपकरणों की भरपूर जगह थी. यही नहीं, मेरिका के आतंकवाद निरोधी केंद्र ने जो रिपोर्ट तैयार की थी, उसमें बताया गया कि ओसामा बिन लादेन के समर्थक और परिवारवाले ईरान में छुपे हुए हैं.
इराक में कुछ सद्दाम विरोधियों का समर्थन उन्हें ज़रूर हासिल है, लेकिन वे ज़्यादा ईरान में रह रहे हैं. जब ये रिपोर्ट सदन में पढ़ी जा रही है तब सीटीसी की डायरेक्टर यह देखकर हैरान रह जाती है कि रिपोर्ट बदल दी गई है. जाहिर है, अमेरिका को ऐसी रिपोर्ट चाहिए थी जिसके आधार पर वह इराक और अफ़गानिस्तान पर हमला कर पाता. इसके अलावा इन सारे तथ्यों को याद करने का मक़सद बस यह बताना है कि आतंकवाद का मसला इतना सीधा सपाट नहीं है. जॉर्ज बुश से लेकर बराक ओबामा और जो बाइडन तक को यह अलग-अलग ढंग से रास आता है. ऐसा नहीं कि अल क़ायदा कोई मासूम संगठन है या अल ज़वाहिरी (Al Qaeda leader Ayman al-Zawahiri) के मारे जाने पर किसी को दुख मनाना चाहिए. आततायी जब मारे जाते हैं तो कोई दुखी नहीं होता. लेकिन अल क़ायदा, तालिबान या आइएसआइएस जैसे संगठन कहां से खड़े होते हैं, कौन उन्हें ताकत और पोषण देता है?
यह इतिहास किसी से छुपा नहीं है. अमेरिका ने अपने हितों के लिए तालिबान को खड़ा किया, आइएस की करतूतों से आंख मूंदी और चुपचाप उन देशों की मदद करता रहा जो आतंकी ताकतों को संरक्षण देते रहे. लोकतंत्र का वास्ता देते हुए उसने वहां की मज़बूत सरकारों को गिराया, वहां की उदार शासन व्यवस्थाओं को ध्वस्त किया और अंततः उन्हें ऐसी अराजकता में धकेल दिया जिसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा कट्टरपंथी समूहों और संगठनों को मिला.
2001 में जब अमेरिका ने आतंक के ख़िलाफ युद्ध का एलान किया तो जिन देशों ने सबसे पहले साथ देने की पेशकश की, उनमें भारत भी था, लेकिन अमेरिका ने उस पाकिस्तान से मदद लेना मंज़ूर किया जो आतंकवाद के पोषण में कभी उसका साझीदार रहा. यह लगभग खुला राज रहा कि मुशर्रफ अमेरिका से भी पैसे लेते रहे और आतंकियों के मददगार भी बने रहे. लेकिन अमेरिका यह जानते-बूझते इसे नज़रअंदाज़ करता रहा. बिल्कुल हाल में इमरान खान ने अपनी विदाई के दिनों में भाषण देते हुए पाकिस्तान को बदनाम और बरबाद करने वाले इस अमेरिकी रुख़ पर अफ़सोस जताया था, लेकिन पाकिस्तान की अपनी भूमिका पर वे खामोश रहे.
इन सारी बातों का भारत के लिए क्या मतलब है? भारत में 2008 के मुंबई हमले को 9/11 की तर्ज पर 26/11 बताने वाले भूल जाते हैं कि जिस सितंबर को अमेरिका पर हमला हुआ था उसी दिसंबर को भारतीय संसद को भी निशाने पर लिया गया. उस हमले का लाभ भी तत्कालीन यूपीए सरकार को मिला जो तब कैश फॉर वोट सहित कई आरोपों में घिरी सरकार अचानक सारी बहसों से मुक्त हो गई. 2019 से पहले पुलवामा के आतंकी हमले का लाभ भी मोदी सरकार को मिला, यह बात सब मानते हैं.
लेकिन तो क्या करें? क्या आतंकवाद से नहीं लड़ें? इस पर चुप रहें? दरअसल यह समझने की ज़रूरत है कि आतंकवाद बहुत गंभीर परिघटना है, सिर्फ़ अपने हिंसक नतीजों की वजह से नहीं, बल्कि अपने निर्माण की प्रक्रिया से भी. कई बार आतंकी संगठन ख़त्म हो जाते हैं, लेकिन आतंकवाद बचा रहता है. उसकी परिणतियां भी बची रहती हैं. उससे लड़ने के लिए कई मोर्चों की रणनीति ज़रूरी होती है. इसमें राज्य तंत्र का- ख़ुफ़िया एजेंसियों का, सुरक्षा बलों का और सरकारों का बहुत अहम योगदान होता है. लेकिन अगर कोई नेता इसे अपने निजी एजेंडा या निजी पराक्रम की तरह प्रस्तुत करता है तो उस पर संदेह करना चाहिए. कोई अगर कहता है कि वह आतंकवाद का ख़ात्मा करने के लिए आया है तो मानना चाहिए कि दरअसल वह अपने देश के ज़रूरी मुद्दों से ध्यान भटकाना चाहता है, अपने विरोधियों को ठिकाने लगाना चाहता है और बस अपने फ़ायदे की राजनीति करना चाहता है. इसका ख़तरा यह भी होता है कि वह एजेंसियों का दुरुपयोग शुरू करता है और इस क्रम में उन्हें कम पेशेवर बना कर छोड़ देता है. यह हमने अमेरिका में होता देखा है और इससे हमें हर जगह सावधान रहना चाहिए.
लेकिन जॉर्ज बुश जैसे शासकों का अंततः क्या होता है? इस सवाल का जवाब 14 दिसंबर 2008 को मुंतज़िर अल जैदी नाम के एक इराकी पत्रकार ने दिया था. प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने अपने जूते फेंककर बुश को मारना चाहा. बुश बच गए, लेकिन मीडिया पर जूता बार-बार उछलता रहा. अमेरिकी टावरों पर विमानों के टकराने का दृश्य जितनी बार चला होगा, सात साल बाद बुश पर उछले जूते का दृश्य टीवी पर उससे कम नहीं चला होगा. विमानों के टकराने का दृश्य दुहराया जाता देख जेफरी आर्चर की नायिका को उबकाई सी आई थी, लेकिन बुश के जूते वाले दृश्य का क्या हुआ. हिंदी की प्रतिष्ठित लेखिका अलका सरावगी ने अपने एक कॉलम में लिखा था- वे बार-बार यह दृश्य देखती हैं, इस उम्मीद में कि वह जूता कभी तो बुश तो लग ही जाएगा.