दुनिया इस वक्त अफगानिस्तान को लेकर जितनी चर्चा कर रही है, उसके लिए ज़रूरी सूचनाओं की उतनी ही कमी है. ख़ासकर अफगानिस्तान के आम जीवन से जुड़ी सूचनाएं बहुत कम हैं. महिलाओं के बारे में आशंकाएं जताई जा रही हैं लेकिन उनकी आवाज़ बाहर नहीं आ पा रही है. काबुल एयरपोर्ट पर अफगानिस्तान छोड़ कर भागने वालों में केवल मर्द दिखाई देते हैं. इन तस्वीरों को ठीक से देखने और समझने की ज़रूरत है. भागने वालों में कोई वृद्ध नहीं है. कोई विकलांग नहीं है. बच्चा नहीं है और औरतें भी नहीं हैं. दो चार की संख्या में औरतें दिखाई देती हैं. इन्हें छोड़ कर भागने वाले मर्दों के आगे कोई सुनहरी दुनिया नहीं है लेकिन वे पीछे की बदतर दुनिया में औरतों को छोड़े जा रहे हैं. मर्दों का इस तरह भागना बता रहा है कि भागने के वक्त औरतें आसानी से छोड़ी जा सकती हैं. अगर ये भागने वाले अफगान अमरीकी या विदेशी ताकतों के मददगार रहे हैं तो फिर कम से कम इनके साथ इनके घर की औरतें वहां से आ रही तस्वीरों में दिखाई दे सकती थीं. काबुल एयरपोर्ट तक पहुंचने के रास्ते तालिबान के कब्ज़े में हैं. औरतों के लिए घर से निकल कर एयरपोर्ट तक पहुंचना ख़तरे से ख़ाली नहीं है. भारत में पढ़ रहीं अफगान लड़कियों के ये बयान बता रहे हैं कि वे अपने घर को किस तरह से देख रही हैं. रवीश रंजन ने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ चुकी एक अफगान छात्रा से बात की है. बातचीत अंग्रेज़ी में है लेकिन आप उनकी चिन्ताओं को किसी भी भाषा में समझ सकते हैं.
बाहर के देशों में पढ़ रही अफगान छात्राओं की सारी उम्मीदें तबाह हो चुकी हैं. उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि तालिबान के आने के बाद कोई अफगानिस्तान की मदद करना भी चाहेगा तो कैसे करेगा. वहां औरतों के कोई अधिकार नहीं है और न होंगे. हमारे सहयोगी नेहाल किदवई ने बेंगलुरु की एक छात्रा से बात की है. उनका कहना है कि तालिबान के आने से उनके सारे अधिकार फिर से खत्म हो चुके हैं. न तो वह पढ़ सकती हैं और न ही अफगानिस्तान में वोट कर सकती हैं.
ये आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं. पिछले बीस साल के दौरान भी वहां औरतों के लिए मुख्यधारा में आना आसान नहीं रहा तो अब कैसे मान लिया जाए कि तालिबान के राज में आसान हो जाएगा. इस संकट को औरतों की निगाह से देखने पर लगता है कि दुनिया भर के देशों में मर्द नेताओं का समूह भगोड़ा से ज्यादा कुछ नहीं.
सलीमा मज़ारी, ज़रिफ़ा ग़फ़ारी और फौज़िया कूफ़ी की कहानी आपको कई जगह पर मिल जाएगी. इन सभी पर जानलेवा हमला हो चुका है. ख़बर है कि तालिबान ने सलीमा मज़ारी को गिरफ्तारी में ले लिया है. ये बल्ख़ इलाक़े की ज़िला गवर्नर हैं. हज़ारा समुदाय से हैं जो तालिबान के निशाने पर रहता है. तालिबान ने हज़ारा नेता अब्दुल अली मज़ारी की प्रतिमा भी तोड़ दी है. तालिबान अपने रंग में आने लगा है. सलीमा एक बार पहले भी तालिबान के कारण ईरान भाग चुकी थीं मगर अफगानिस्तान के लिए लौट आईं. तालिबान के काबिज़ होने से कुछ दिन पहले का उनका इंटरव्यू है कि जहां तालिबान होगा वहां औरतें हो ही नहीं सकती हैं. अफगानिस्तान की सबसे कम उम्र की मेयर ज़रिफ़ा ग़फारी ने आई न्यूज़ एजेंसी को दिए इंटरव्यू में कहा है कि वे इंतज़ार कर रही हैं कि तालिबान आएगा और उनकी हत्या कर देगा. उनकी मदद के लिए कोई नहीं है. घर और परिवार छोड़ कर नहीं जा सकती हैं और कहां जाएंगी. मार्च 2020 में ज़रीफ़ा को वाशिंगटन में International Women of Courage (IWOC) Award भी दिया गया था. उस मौके पर उन्होंने कहा था कि वे तालिबान के आतंक को नहीं भूली हैं. अफ़ग़ानिस्तान की संसद की पहली उप सभापति फौज़िया कूफ़ी पर भी जानलेवा हमला हो चुका है. पिछले साल जब तालिबान और अफगान सरकार के बीच शांति वार्ता हो रही थी उसमें फौज़िया भी शामिल थीं. उनका कहना है कि वे आवाज़ उठाती रहेंगी. दूसरी औरतों की मदद करती रहेंगी.
ज़रिफ़ा गफ़ारी ने इसी 14 अगस्त को ट्वीट किया था. उस ट्वीट से उनके साहस को समझा जा सकता है और चिन्ताओं को भी. 14 अगस्त के बाद उनका कोई ट्वीट नहीं है. “इसलिए इससे फर्क नहीं पड़ता कि क्या है और क्यों है. लेकिन मातृभूमि और राष्ट्र के प्रति मेरा प्यार कभी नहीं बदलेगा. फर्क नहीं पड़ता कि यहां कौन, कितना कठोर है लेकिन मैं अपने सपनों के लिए ख़ुशी ख़ुशी जीने को तैयार हूं. ये मेरा सपना है कि मैं प्यारे अफ़ग़ानिस्तान को सुंदर, शांत और प्रगतिशील देखूं.”
नादिया मुराद का ज़िक्र करना चाहिए. सीरिया की येज़िदी महिला जो आतंकी संगठन ISIS के चंगुल से भाग निकली थी और हिंसा से प्रभावित महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की वक्ता बन गई. नादिया मुराद को 2018 का नोबेल शांति पुरस्कार मिला था. अमरीका और रूस की आपसी दावेदारी में अफगानिस्तान को बर्बाद कर दिया गया. दशकों तक वहां के लोगों को हथियार दिए गए और उनका इस्तमाल किया गया. जब उन्हीं के दिए बंदूकों से वहां आतंक फैला तो आतंक मिटाने के नाम पर अफगानिस्तान को फिर से बर्बाद किया गया और अब बीस साल से वहां लोकतंत्र बना रहे ये देश अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ भाग खड़े हुए हैं. अमरीका ने उन हज़ारों अफगान को तालिबान के भरोसे छोड़ दिया है जो उसी के दिए हथियार और पैसे से ख़तरनाक हो चुके हैं. जिन अफगानों के साथ अमरीका ने इन बीस सालों में संपर्क बनाया, उनके नेटवर्क का फायदा उठाया उन्हें भी तालिबान के भरोसे छोड़ आया है. ऐसे मददगार अफगानों में ज्यादातर मर्द थे लेकिन औरतें भी थीं. लारा जेक्स ने न्यूयार्क टाइम्स में लिखा है कि ''अमरीका के लिए काम करने वाली औरतें अपने मोबाइल फोन को नष्ट कर रही हैं. पुरानी तस्वीरों को मिटा रही हैं. अमरीका और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने इन औरतों को उनके हाल पर छोड़ दिया है. वे अमरीका से पुराने संबंधों के हर निशान को मिटा रही हैं ताकि तालिबान उन्हें पकड़ न ले. जिन दस्तावेज़ों के आधार पर उन्हें दूसरे देशों में नागरिकता मिल सकती है उन्हें भी मिटाना पड़ रहा है. उनकी चुनौती है कि सबूत के तौर पर इन दस्तावेज़ों को रखें या मिटा दें. अब अमरीका कह रहा है कि अन्य देशों के साथ मिलकर वहां पर मानवाधिकारी मदद के लिए टीम भेजी जाएगी ताकि औरतों की आवाज़ सुनी जा सके. कुछ अमरीकी कांग्रेस के सिनेटर ने पत्र लिखा है कि अमरीका के लिए काम करने वाली औरतों को मारा जा रहा है. उन्हें अगवा कर यातनाएं दी जा रही हैं. सिनेटर मांग कर रहे हैं कि इन औरतों की सुरक्षा के लिए तुरंत कदम उठाए जाने की ज़रूरत है. तालिबान के प्रवक्ता ने आश्वासन दिया है कि किसी से बदला नहीं लिया जाएगा. औरतों के खिलाफ हिंसा नहीं होगी लेकिन उन्हें इस्लामिक कानून के दायरे में रहना होगा.
हाथ में ak 47 लेकर कोई यह आश्वासन दे कि सबका सम्मान होगा तो यह आश्वासन भी तभी तक समझा जाना चाहिए जब तक उंगली ट्रिगर तक नहीं पहुंची है. दुनिया के ताकतवर देश उसी पर भरोसा कर रहे हैं जिसका कोई भरोसा नहीं है.
तालिबान के प्रेस कांफ्रेंस को देख कई लोगों के दिल पिघलने लगे कि ये सुधर गए हैं और इन्हें मौका मिलना चाहिए. जैसे दुनिया भर के नेता खुद को या खुद की सरकार को 2.0, 3.0 कहते हैं उसी तर्ज पर अब तालिबान 2.0 कहलाने लगा है. आतंक का भी कोई वर्ज़न होता है. इन अजीब तर्कों को इसलिए स्वीकार किया जा रहा है ताकि अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ गए पश्चिमी देशों के फैसलों को सही ठहराया जा सके. प्रेस कांफ्रेंस के अगले दिन खबर आई है कि तालिबान ने महिला ऐंकर को हटा दिया है. उस पर रोक लगा दी है. ऐसी भी ख़बरें छप रही हैं कि सुदूर इलाक़ों में महिलाओं की हत्या हुई है, स्कूल बंद कर दिए गए हैं, आने जाने पर पाबंदी लगनी शुरू हो गई है. सोशल मीडिया और टीवी में अपनी मौजूदगी से तालिबान यह भी संकेत दे रहा है कि प्रोपेगैंडा के खेल में वह भी कूद पड़ा है. आखिर औरतों को लेकर ऐसा क्या हो गया है कि दुनिया के देश तालिबान से अपील कर रहे हैं और भरोसा करना चाहते हैं.
बुधवार को अमरीका और EU सहित 20 देशों ने साझा बयान जारी कर तालिबान से मांग की है कि अफगान औरतें और लड़कों को सुरक्षा और सम्मान के साथ जीने का अधिकार है. उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव और बर्बरता नहीं होनी चाहिए. अफगानिस्तान में जो लोग सत्ता में हैं हम उनसे यह मांग करते हैं कि सुरक्षा की गारंटी दें. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के तौर पर हम मानवाधिकारी सहायता देने के लिए तैयार हैं ताकि उनकी आवाज़ सुनी जा सके.
वैसे इस तरह की अपील भी रस्म अदायगी से कुछ ज़्यादा नहीं है. अमरीका के विदेश सचिव एंटनी ब्लिंकेन ने कहा है कि हम सभी अंतर्राष्ट्रीय साझीदार अपील करते हैं कि अफगानिस्तान में औरतों को सुरक्षा की गारंटी मिले. हम निगाह रख रहे हैं. इस पर हिन्दू अख़बार की सुहासिनी हैदर ने उनसे पूछा है कि आप करेंगे क्या, कैसे करेंगे, म्यानमार में सैनिक तानाशाहों ने चुनी हुई सरकार को बंद कर रखा है तो उसमें आपने क्या कर लिया.
पश्चिमी देश जिस अफगानिस्तान और तालिबान को आतंक और आतंक का अड्डा बताया करते थे अपना रंग तेज़ी से बदल रहे हैं. ब्रिटेन के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल निक कार्टर ने एक पत्रकार से कहा कि उन्हें दुश्मन कहना बंद करें. वे देहाती लड़के हैं. उनका अपना सम्मान है. वे बदल गए हैं. हमें धीरज रखना होगा और उन्हें समय देना होगा. 16 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की बैठक में भारत के राजदूत टी एस तिरुमूर्ति का बयान देख रहा था. उस पूरे बयान में राजदूत जी तालिबान का नाम नहीं लेते हैं. parties concerned बोलते हैं. हिन्दी में मतलब हुआ संबंधित पक्ष. यह विचित्र बात है. अगर भारत के लिए तालिबान अब एक आतंकी संगठन है तो खुल कर बोलना चाहिए. तालिबान पर खुल कर बात न करने की मजबूरी समझ आती है लेकिन इनका उनका क्या चल रहा है. इसी भाषण में राजदूत तिरुमूर्ति के बयान का एक हिस्सा क्या यह इशारा नहीं करता कि भारत तालिबान की सरकार को मान्यता देने की बात कर रहा है, बिना नाम लिए, सिर्फ इन शर्तों पर आतंक को लेकर ज़ीरो टोलरेंस होगा. सब जानते है कि अभी तक जो दिख रहा है केवल तालिबान दिख रहा है.
आप इस संकट पर भारत के बयानों को देखिए, इसी टाइप के जवाब हैं कि नज़र रख रहे हैं. बात कर रहे हैं. किससे बात कर रहे हैं, क्या बात कर रहे हैं, महिलाओं को लेकर क्या सोच रहे हैं, वहां जो भारतीय कंपनियां हैं, लोग हैं उनके बारे में क्या कर रहे हैं यह सब नदारद है.
तालिबान ने भारत के साथ व्यापार पर रोक लगा दी है. इससे अरबों रुपये का कारोबार प्रभावित हो गया है. भारत की इस वक्त जो प्रतिक्रिया है वो वही है जो तालिबान के सत्ता में आने के पहले थी. इसी 29 जुलाई को राज्यसभा के सांसद पी भट्टाचार्य ने विदेश मंत्रालय से सवाल पूछा कि भारत सरकार का तालिबान पर क्या रुख है जो अफगानिस्तान में सत्ता में आने की कोशिश कर रहा है तो विदेश मंत्रालय का जवाब है कि एक निकटम पड़ोसी और रणनीतिक साझीदार होने के नाते, भारत के पास संप्रभु, लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण अफगानिस्तान का समर्थन करने के लिए एक स्थायी नीति है. भारत एक समावेशी अफगान के नेतृत्व में अफगान के अधीन और अफगान के द्वारा नियंत्रित प्रक्रिया के माध्यम से एक स्थायी राजनीतिक समाधान की ओर ले जाने वाली सभी शांति पहलों का समर्थन करता है. जिससे क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनी रहे.
सवाल तालिबान को लेकर था लेकिन जवाब में तालिबान का ज़िक्र तक नहीं है. हालात बदल गए हैं मगर जवाब नहीं बदला है. हमने राज्यसभा और लोकसभा की वेबसाइट पर सर्च किया. अगर हमसे कोई चूक नहीं हुई है और सर्च ने सही बताया है तो जानकारी हैरान करती है. लोकसभा में एक भी सवाल तालिबान को लेकर नहीं है. राज्यसभा में एक सवाल पूछा गया. अगर वहां फंसे हज़ारों भारतीयों की चिन्ता में भारत सरकार कुछ नहीं बोल रही है तो फिर इसी का जवाब दे दे कि अपने नागरिकों को लाए बिना, दूतावास क्यों बंद किया. जब पता था कि तालिबान काबुल की तरफ़ बढ़ने लगा है तभी से नागरिकों को वापस लाने का काम जल्दी क्यों नहीं शुरू हुआ. अगर आपको लगता है कि राजनयिक मामलों में सारी बातें नहीं बोली जाती हैं, आप अमरीका और ब्रिटेन के प्रेस का कवरेज़ देखिए. अमरीका के राष्ट्रपति बयान दे रहे हैं, इंटरव्यू हो रहा है. उनकी घोर आलोचना हो रही है. बाइडन को इस बात के लिए जवाबदेह ठहराया जा रहा है कि अफगानिस्तान की औरतों को तालिबान के भरोसे छोड़ आए हैं. इन देशों के नागरिक भी अफगानिस्तान में फंसे हैं उन्हें भी खतरा है लेकिन राष्ट्राध्यक्ष बात कर रहे हैं. अपना पक्ष रख रहे हैं.
ब्रिटेन में गर्मी की छुट्टियों के कारण संसद बंद थी लेकिन बुधवार को अफगानिस्तान पर चर्चा के लिए हाउस आउफ कामन्स की कार्यवाही शुरू कर दी गई. 2013 के सीरीया संकट के बाद पहली बार गर्मी की छुट्टी रद्द कर हाउस ऑफ कामन्स की बैठक बुलाई गई है. हाउस ऑफ लार्ड्स की भी बैठक बुलाई जा रही है. हाउस ऑफ कामन्स में वो एमपी भी हैं जो अफगानिस्तान में काम कर चुके हैं. इसमें मौजूदा और पूर्व नेता हैं. सदन में सांसद प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के पसीने छुड़ा रहे हैं. सदन का माहौल बता रहा है कि सांसद अफगानिस्तान के सवालों को लेकर कितने उत्तेजित हैं. सांसद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को खूब सुना रहे हैं कि अफगानिस्तान से पश्चिमी ताकतों का वापस लौट आना अपमानजनक है. विनाशकारी है. शर्मिंदगी की इंतहा है. सवाल उठ रहा है कि बोरिस जॉनसन ने इस संकट में किस तरह के कदम उठाए हैं. जॉनसन ने भले ही जांच की बात नहीं मानी लेकिन आप सुन सकते हैं कि उन्होंने सबको सुना. लेबर पार्टी के नेता का एक बयान सुन सकते हैं फिर आप अंदाज़ा कर सकते है कि बिना सिलेबस और परीक्षा के विश्व गुरु बनने का दावा करने वाले भारत के नेता अफगान संकट पर किस तरह की चर्चा कर रहे हैं.
जिन देशों की नीतियों से अफगानिस्तान बर्बाद हुआ, उन देशों में ही ज्यादा बहस हो रही है. वहां की सत्ता का खेल उजागर किया जा रहा है और समाज का बड़ा हिस्सा शर्मिंदगी महससू कर रहा है.
ये लेवल है उन देशों का जो विश्व गुरु नहीं हैं. सात साल से प्रेस कांफ्रेंस नहीं करने का रिकार्ड बनाने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने इस संकट पर कुछ नहीं बोला है कि तालिबान उनके लिए आतंकवादी है या नहीं है. उधर हिन्दी प्रदेश में ज़मीन पर इस सकंट का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश शुरू हो चुकी है. कुछ बीजेपी नेताओं के बयान से आप समझ सकते हैं कि यह संकट हिन्दू मुस्लिम सिलेबस के काम आने वाला है. भारत सरकार अफगानिस्तान से भारतीयों को लाने का प्रयास कर रही है, दूसरी तरफ ये लोग भारतीयों को अफगानिस्तान भेजने का बयान दे रहे हैं. मुख्यमंत्री योगी विधानसभा में तालिबान का ज़िक्र आतंक से करने लगे हैं जबकि मोदी सरकार अभी तक तालिबान को आतंकी नहीं कह पा रही है.
व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में हर तर्क को इसी आधार पर तैयार किया जा रहा है. ऐसे तर्कों और इन तर्कों से तैयार मीडिया जनता की सोचने समझने की शक्ति ख़त्म कर देता है. वह दिन भी आएगा जब आप कहेंगे कि 110 रुपये लीटर पेट्रोल सस्ता है, इसे 220 रुपये होना चाहिए नहीं तो भारत अफगानिस्तान हो जाएगा. मूर्खता की एक खूबी होती है. उसकी कोई सीमा नहीं होती है. विद्वता की यही कमी है, उसकी सीमा होती है. व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी की सुविधा के लिए भारत सरकार को जल्दी बता देना चाहिए कि तालिबान आतंकवादी संगठन है या नहीं.