विज्ञापन
This Article is From Sep 14, 2016

#मैंऔरमेरीहिन्दी : हिन्दी पर बात करने का यह एक दिन

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 21, 2016 15:56 pm IST
    • Published On सितंबर 14, 2016 18:42 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 21, 2016 15:56 pm IST
अपने-पराए का चक्कर चलाने वाले लोग भाषा को भी नहीं छोड़ते. हिन्दी को सचमुच में राजभाषा बनाने की कवायद दसियों साल से चल रही है, लेकिन सितंबर के महीने में हिन्दी पखवाड़े की रस्म निभाने के अलावा कुछ नहीं हो पा रहा है. इस बार भी सरकारी प्रतिष्ठानों के बाहर हिन्दी पखवाड़े के बैनर जरूर लटके दिखाई दिए, लेकिन हूबहू हर साल जैसे. खैर रस्म के तौर पर ही सही इस मौके पर हिन्दी पर कुछ बातें कर लेने में हर्ज नहीं है, क्योंकि बाकी 364 दिन इस पर कुछ कहने के मौके नहीं मिलेंगे.

भाषा के उपयोगितावादी पक्ष पर सोचते हुए
मानव की विकास यात्रा में सबसे चमत्कारिक घटना भाषा का विकास ही माना जाता है. मानव जगत में पहले ध्वनि, फिर इशारों और फिर व्यवस्थित भाषा प्रणाली विकसित होने की बात को बार-बार क्या दोहराना. यहां सिर्फ इतना याद करते चलते हैं कि भाषा की जरूरत दूसरों से संवाद के लिए ही पड़ती है. और धीरे-धीरे एक ऐसी भाषा विकसित हो जाती है ताकि एक-दूसरे की बात समझने लगें. यानी शुरू में हर किसी को भरसक उसी भाषा में बात करनी पड़ती है, जिसे दूसरा समझता हो. यही बात दूसरे पर भी लागू होती है कि वह जो कुछ कहे हमारी भाषा में कहे. इस स्थिति में एक ही समीकरण बनता है कि जिस भाषा को बोलने-समझने वाले ज्यादा होंगे, वही विकसित या बढ़ती या फैलती चली जाएगी.

बाजार की भाषा बनने मौका
यहां पर एक बड़ी सनसनीखेज बात दर्ज कराने का मौका है कि भारतवर्ष में बाजार बढ़ाने की गुंजाइश को देखते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिन्दी में लुभावने विज्ञापन बनाने के लिए हिन्दी लेखकों को तलाश करने में जुटी हैं. ऐसे में सरकारी तौर पर कोई चक्कर चलाकर इन लेखकों को शुद्ध हिन्दी का इस्तेमाल करने के लिए पटा लिया जाए या दबिश देकर मजबूर कर दिया जाए तो शुद्ध हिन्दी का प्रसार या विकास या वृद्धि करने अच्छा संयोग दिख रहा है. वैसे यह बात कोई कितने भी हल्के-फुल्के अंदाज में कहे, लेकिन पूरा अंदेशा है कि राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर राष्ट्रवादी हिन्दी के लिए भी कहीं आंदोलन न चलने लगें. लेकिन इसमें भी मुश्किल यह है कि बाजार सबसे पहले अपनी बात के सौ फीसदी संप्रेषित होने की शर्त रखेगा और उस स्थिति में उर्दू मिली हिन्दी ही विज्ञापनों में दिखेगी.

दुनिया की तमाम भाषाओं के बीच हमारी हिन्दी
हम चाहे संयुक्त राष्ट्र के मंच पर जाकर हिन्दी में बोलें या किसी दूसरे देश में जाकर बोल रहे हों, दुभाषिए के बगैर  आज भी काम नहीं चलता. रूस और चीन जैसे कुछ देशों में अपनी-अपनी भाषाओं का आग्रह लंबे समय तक बना रहा, लेकिन वैश्विक बाजार में काम करने के लिए उन्हें अपनी भाषा की अस्मिता का आग्रह ढीला करना पड़ा. ऐसे देशों को अपनी नई पीढ़ी को अंतरराष्ट्रीय संपर्क भाषा सिखाने पर जोर देना पड़ा. फिर भी कुछ देशों के नेता विदेश जाकर अपने यहां के नागरिकों की भाषा में भाषण देते हैं. लगता है कि वे ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि इससे उनके देश में तारीफ होती है कि देखो हमारे नेता ने हमारी भाषा में बोला. लेकिन इस कवायद में यह कभी होता नहीं दिखा कि अपने देश के बाहर के लोगों में हिन्दी सीखने की ललक बढ़ गई हो. खैर राजनीतिक मकसद कुछ भी हो हमें एक बार तसल्ली से बैठ कर यह जरूर सोच लेना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिन्दी चलाने का नफा नुकसान क्या है.

देश के भीतर हिन्दी की हालत
देश में हिन्दी को पूरे देश की भाषा बनाने की कवायद बीसियों साल से चल रही है. देश के अलग-अलग भूखंडों में तरह-तरह की भाषाओं के इस्तेमाल के कारण यह काम उतना आसान नहीं था. भाषा के नाम पर अपनी-अपनी राजनीति के कारण भी इस काम में मुश्किल आती रही. गैर-हिन्दीभाषी इलाकों में हिन्दी को बढ़ाकर उसे पूरे देश की संपर्क भाषा बनाने में कब-कब कितनी अड़चन आई उसके उदाहरणों का ढेर लगा है. हर बार अपनी-अपनी भारतीय भाषाओं की अस्मिताओं का नारा लगा-लगा कर हमने हिन्दी को कहां पहुंचाया, इसकी भी समीक्षा होनी चाहिए. इस समीक्षा के लिए हिन्दी पखवाड़े जैसे पर्व से अच्छा मौका और कौन सा हो सकता था. खैर इस बार तो यह मौका निकल गया. चलिए, अगले साल फिर आएगा.

हिन्दी खराब करने के आरोप
आमतौर पर जिन्हें पत्रकारिता से दिक्कत है, उनका एक आरोप होता हे कि हिन्दी पत्रकारिता हिन्दी भाषा को खराब कर रही है. आजकल तो गाहे बगाहे इस विषय पर भी विमर्श होने लगे हैं कि पत्रकारिता और साहित्य को अलग-अलग करके कैसे देखें. पत्रकारिता के कथाप्रिय होते चले जा रहे इस दौर में ऐसे विमर्श स्वाभाविक हैं. बहरहाल, हिन्दी दिवस के मौके पर इस बारे में एक और बात रखने का मौका है. वह ये कि पत्रकारिता ने अपने जो तीन मकसद बना रखे हैं, उनमें हिन्दी का विकास करना शामिल नहीं है. पत्रकारिता संस्थानों में जहां भी हिन्दी पत्रकारिता पढ़ाई जा रही है, वहां पत्रकारिता के प्रशिक्षणार्थियों को यही पढ़ाया जा रहा है कि पत्रकारिता का मकसद सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरजंन करना है. इनमें यह बात कहीं नहीं है कि हिन्दी पत्रकारिता अच्छी और किताबी हिन्दी भी सिखाए और हिन्दी की शुद्धता के लिए काम करे.

हिन्दी पत्रकारिता की भाषा का मामला
बहरहाल, अधोषित रूप से हिन्दी पत्रकारिता यह मानकर चलती है कि उसका काम बोलचाल की हिन्दी में खबरें देना है. और ये बात सभी मानकर चल रहे हैं कि बोलचाल की यह भाषा हिन्दी और उर्दू से मिलकर बनी है. जो कम भी जानते हैं, वे इतना तो जानते ही हैं कि उर्दू भारत में जन्मी भाषा है. कुछ बड़े साहित्यकार यह भी मानते हैं कि उर्दू ने हिन्दी को और जानदार बनाया है. सबसे बड़ी बात कि देश के भीतर ही अलग-अलग भूभागों पर बोले जाने वाले लोगों के बीच बात कराने के लिए इसी बोलचाल की भाषा ने काम किया है.

हिन्दी को अच्छा बनाने वाले तबके पर नजर
ऐसा काम करने के लिए जो तबका तैनात है, उससे पूछना पड़ेगा कि वे यह कौन सी हिन्दी पढ़ा रहे हैं, जो अपने लोगों की जुबान पर ही नहीं चढ़ पा रही है. शुद्ध कही जाने वाली जो हिन्दी वे पढ़ा रहे है उस हिन्दी में तो कोई छात्र अपने बगल में बैठे सहपाठी से भी बात नहीं करता. आलम ये है कि माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक और विश्वविद्यालयी हिन्दी शिक्षा के पाठयक्रमों में वे ही कवि, लेखक और उपन्यासकार पढ़ाए जाने की मजबूरी बनी हुई है, जिन्हें हम चालीस साल पहले पढ़ा करते थे. क्या यह मान लें कि पहले जो विकास हो चुका है उसमें और विकास की गुंजाइश ही नहीं बची.

हिन्दी जगत में नई रचनाओं पर ये कैसा ग्रहण?
क्या यह देखने लायक बात नहीं है कि हिन्दी में नई रचनाएं होना ठप सा पड़ा है. कारण चाहे राजनीतिक हों या कोई और कारण हो, बड़े साहित्यकार आजकल अपने मन से रचना की बजाए विश्व साहित्य के हिन्दी अनुवाद करने में लगे दिख रहे हैं. हिन्दी जगत के आलोचक, समालोचक या समीक्षक इन अनुवादों को रचनात्मक अनुवाद कहकर संतोष जताते हैं. विश्व साहित्य के अनुवाद को रचना साबित करने की कितनी भी कोशिशें हों, लेकिन हिन्दी में नई रचनाओं की बात तो उठेगी ही. तभी पता चलेगा कि हिन्दी कितनी बढ़ रही है.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं. इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता. इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Previous Article
ईरान पर कब हमला करेगा इजरायल, किस दबाव में हैं बेंजामिन नेतन्याहू
#मैंऔरमेरीहिन्दी : हिन्दी पर बात करने का यह एक दिन
ओपन बुक सिस्टम या ओपन शूज सिस्टम, हमारी परीक्षाएं किस तरह होनीं चाहिए?
Next Article
ओपन बुक सिस्टम या ओपन शूज सिस्टम, हमारी परीक्षाएं किस तरह होनीं चाहिए?
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com