उसके पिता लक्ष्मीचंद और दादा मानेकचंद सुनार हैं और वह अपनी दुकान पर बैठे थे जिसके ऊपर की तरफ उनका परिवार रहता है. मेरी दोस्त ने खुद को एक सामाजिक कार्यकर्ता बताया (जो कि वह है भी) और परिवार से कहा कि हम जानना चाहते हैं कि आखिर हुआ क्या था. आराधना के दादा ने कहा कि उनके परिवार को अपनी बेटी पर गर्व है लेकिन उसकी मौत का सभी को अफसोस है. इससे भी ज्यादा दुखद है वह अभियान जिसकी शुरुआत व्हॉट्सऐप पर हुई और जिसमें आराधना की मौत के लिए परिवार को जिम्मेदार बताया जा रहा है.
मैंने पूछा तो आपने उसे 68 दिन का उपवास रखने की अनुमति ही क्यों दी. मानेकचंद समदारिया ने कहा 'पांच साल की उम्र से उसका धर्म की ओर काफी झुकाव था. जब 11 साल की हुई तो उसने दीक्षा लेने की अनुमति मांगी. मैंने कहा 16 साल की हो जाओ फिर...तो उसने उपवास (तपस्या) करने की इच्छा ज़ाहिर की.'
आराधना के पिता ने बताया 'वह एकदम ठीक थी. बल्कि कई लोगों ने तो यह तक कहा कि शोभा यात्रा (शव यात्रा को शोभा यात्रा कहा गया है) में उसके चेहरे की चमक किसी आध्यात्मिक शख्सियत की तरह थी.' उपवास के दौरान वह दो महीने से भी अधिक समय तक दिन में दो बार उबले पानी पर ही रही लेकिन आखिरी दिन तक वह कमज़ोर लगने लगी थी. उसके पिता कहते हैं ''हमने उसे ड्रिप भी चढ़ाई ताकि वह ठीक हो जाए. आमतौर पर वह 8 बजे सो जाती थी लेकिन 3 अक्टूबर को रात 11 बजे उसे तेज़ पसीना आने लगा. बार बार उसे सुखाने के बाद भी जब बात नहीं बनी तो हम उसे अस्पताल ले गए. उन्होंने उसे ऑक्सीजन देकर और अन्य उपायों से उसे बचाने की कोशिश की लेकिन लेकिन काफी देर हो चुकी थी.'
इसी बातचीत के दौरान कुछ और रिश्तेदार भी जमा हो गए. आराधना ने जो किया उसके लिए इनके सबके मन में एक गौरव का भाव था. उसके एक चाचा ने कहा 'उसने हमारी प्रतिष्ठा बढ़ाई, समाज में हमारा नाम ऊंचा किया.'
आराधना के दादा ने हमें स्थानीय हिंदी अखबारों में छपे विज्ञापनों को दिखाया जिसमें उस बड़े आयोजन के बारे में लिखा गया था जो उसके 68 दिन के उपवास के बाद होने वाला था. इस विज्ञापन में छपी तस्वीर में आराधना को देवी की तरह सजाया गया था और उसे 'बाल तपस्वी' कहा गया था. उसमें उन सभी धार्मिक और आध्यात्मिक गुरुओं के नाम थे जिन्होंने आराधना को उसकी कामयाबी पर बधाई दी थी. इसमें तेलंगाना मंत्री पद्म राव गौड़ और ज़हीराबाद के सांसद बीबी पाटिल मुख्य अतिथि के रूप में दिखाए गए थे. हालांकि पद्म राव ने कार्यक्रम में शिरकत नहीं की थी क्योंकि उन्हें घुटने में चोट लगी थी लेकिन पाटिल इस समारोह में पहुंचे थे और उन्होंने कमज़ोर दिख रही आराधना के साथ तस्वीर भी खिंचवाई जो बैठ सकने के लायक नहीं थी और बिस्तर पर लेटी हुई थी.
हमने आराधना की मां मनीषा से मिलने की इच्छा जताई, सुना था कि वह भी धार्मिक कामों में काफी डूबी रहती हैं. हमें ऊपर ले जाया गया जहां आराधना की दादी और उसकी बुआएं बैठी थीं. उन्होंने हमें एल्बम में कुछ तस्वीरें दिखाईं जो उस कार्यक्रम की थी जिसे 'पर्ण' (जश्न समारोह) कहते हैं. उन्होंने तस्वीरों में दिखाया कि यह कार्यक्रम कितना बड़ा था. विशाल रथ जिस पर आराधना अपने माता पिता के साथ बैठी थी. वीआईपी लोग जो उसके साथ सेल्फी खिंचवा रहे थे. आराधना की दादी पुष्पा ने बताया कि मनीषा किसी से मिलना नहीं चाहती है. उसी कमरे में आराधना की आठ-नौ साल की छोटी बहन हमें खामोशी से देख रही थी. उसके कुछ चचेरे भाई बहन भी वहीं खेल रहे थे.
कमरे की दीवार के बीचो-बीच आराधना की एक बड़ी सी तस्वीर लगी हुई थी जिसमें वह काफी सजी संवरी दिख रही थी. हमें बताया गया कि 'यह तस्वीर पिछले साल 34 दिन का व्रत पूरा होने के बाद ली गई थी.' इसके अलावा और भी कई तस्वीरें और तोहफे रखे हुए थे जिसे इस बच्ची के सम्मान में दिया गया था. मैंने तस्वीर लेने की इजाज़त ली.
हैरानी का बात तो यह थी कि मुझे आराधना के उन रिश्तेदारों से मिलवाया गया जो कि डॉक्टर हैं - एक बच्चों की डॉक्टर और एक महिला रोग विशेषज्ञ. उनमें से एक ने बताया कि वह रोज़ तो आराधना का चेकअप नहीं करती थीं लेकिन उपवास के दिन गुज़रने के साथ ही 'वह ठीक ही लग रही थी.' उन्होंने कहा 'पर्ण के बाद मैंने उससे किताब पढ़ने को भी कहा और उसने ठीक से पढ़ी भी.' यह बात ज़ोर देकर कही जा रही थी कि उसने यह व्रत 'अपनी मर्जी' से रखा. लेकिन उस मानसिक दबाव का क्या जो उसे उस कुर्सी पर बैठने के बाद महसूस हुआ होगा जिसमें उसे आम इंसान के ऊपर का दर्जा दे दिया गया? मेरे लिए आराधना की कहानी उस बच्ची की लगी जो अवास्तविक अपेक्षाओं और धार्मिक मान्यताओं के जाल में फंसकर देवत्व के स्तर के रूप में प्रचारित की गई.
जाने से पहले मैंने लक्ष्मीचंद से पूछा कि क्या वह अपनी छोटी बेटी को भी इसी तरह उपवास रखने की इजाज़त देंगे. जवाब मिला - 'यह अपनी बड़ी बहन जैसी नहीं है लेकिन नहीं..मुझे नहीं लगता...' अगले दिन हमने NDTV पर यह स्टोरी ब्रेक की. हर दूसरे चैनल, मीडिया हाउस, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इसे छापा. परिवार के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज किया गया. कईयों ने तो कहा कि सीधे हत्या का केस दर्ज होना चाहिए.
पुलिस सावधानी बरत रही है. वह इस मामले में परिजनों या किसी भी धर्म गुरू को गिरफ्तार करने से हिचक रही है, उसे डर है कि कहीं समुदाय इसका पलटवार न कर दे. वहीं निजी बातचीत में इस समुदाय के लोग इस बात को मान रहे हैं कि वक्त आ गया है कि हम इस बारे में थोड़ा और गंभीरता से विचार करें ताकि ऐसी कोई दुर्घटना दोबारा न हो जाए. लेकिन सार्वजनिक मंच पर सभी जैन समुदाय के लोग इस परिवार के साथ खड़े दिख रहे हैं.
बाल अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि बच्चे को इन सबसे बचाना जरूरी है फिर वो उसका परिवार या धर्म या समुदाय ही क्यों न हो. लेकिन जैसा कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कई समुदायों में खुद को कष्ट पहुंचाना एक धार्मिक पंरपरा मानी जाती है, कहीं खुद को पीटना और कहीं चेहरे और शरीर को गोदना - जब ये समुदाय अपनी धार्मिक पंरपराओं का संवैधानिक स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए पालन करते हैं तो करने के लिए बचता ही क्या है?
(उमा सुधीर, NDTV में रेजीडेंट एडिटर हैं)
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