मुद्रा लोन से 7 करोड़ स्वरोज़गार पैदा हुआ, अमित शाह को ये डेटा कहां से मिला मोदी जी...

चार साल बीत जाने के बाद प्रधानमंत्री को ध्यान आया है कि देश में नौकरियों को लेकर डेटा नहीं है. फिर उन्हें अमित शाह से पूछना चाहिए कि जनाब आपको यह डेटा कहां से मिला था कि मुद्रा लोन के कारण 7 करोड़ 28 लाख लोग स्वरोज़गार से जुड़े हैं.

मुद्रा लोन से 7 करोड़ स्वरोज़गार पैदा हुआ, अमित शाह को ये डेटा कहां से मिला मोदी जी...

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो)

यह न तंज है और न व्यंग्य है. न ही स्लोगन बाज़ी के लिए बनाया गया सियासी व्यंजन है. रोज़गार के डेटा को लेकर काम करने वाले बहुत पहले से एक ठोस सिस्टम की मांग करते रहे हैं जहां रोज़गार से संबंधित डेटा का संग्रह होता रहा हो. लेकिन ऐसा नहीं है कि रोज़गार का कोई डेटा ही नहीं है. चार साल बीत जाने के बाद प्रधानमंत्री को ध्यान आया है कि देश में नौकरियों को लेकर डेटा नहीं है. फिर उन्हें अमित शाह से पूछना चाहिए कि जनाब आपको यह डेटा कहां से मिला था कि मुद्रा लोन के कारण 7 करोड़ 28 लाख लोग स्वरोज़गार से जुड़े हैं. 12 जुलाई 2017 को अमित शाह का यह बयान कई जगह छपा है.

अब अगर बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने मन में कोई खिचड़ी पकाई हो तो बेहतर है उन्हें प्रधानमंत्री से माफी मांग लेनी चाहिए. साथ ही किसी को उन्हें याद दिलाना चाहिए कि सर बहुत सारा अपन के पास डेटा है, बस जो भी डेटा आप देते हैं न उसे लेकर सवाल उठ जाते हैं. इसके अला्वा कोई समस्या नहीं है क्योंकि सवाल उठने के बाद भी हम चुनाव तो जीत ही जाते हैं. प्रधानमंत्री चाहें तो मुद्रा लोन का डेटा ले सकते हैं कि कितना प्रतिशत मुद्रा लोन एनपीए हो चुका है और होने के कगार पर है.

भारत में बेरोज़गारी भयंकर स्तर पर है. नोटबंदी और जीएसटी के बाद हालत ख़राब होती चली गई है. रोज़गार देने वाले दो प्रमुख शहर सूरत और त्रिशूर की हालत आप जाकर देख लें. डेटा की ज़रूरत नहीं होगी. प्रधानमंत्री को डेटा होने या नौकरियां होने का ख्याल तब क्यों नहीं आया जब ज़ी न्यूज़ को पकौड़ा बेचने को भी रोज़गार बता रहे थे और उनके मुख्यमंत्री पान दुकान खोलने को रोज़गार गिनाने में लगे थे.

स्वराज पत्रिका को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री दोनों बात करते हैं. पहले कहते हैं कि नौकरियां हैं मगर नौकरियों को लेकर डेटा नहीं है. फिर कहते हैं कि EPFO के डेटा को लेकर अध्ययन हुआ है जिसके अनुसार पिछले साल संगठित क्षेत्र में 70 लाख नौकरियां सृजित की गई हैं. यह 70 लाख असंगठित क्षेत्र में सृजित नौकरियों के अलावा है जहां 80 फीसदी लोग काम करते हैं. प्रधानमंत्री को याद नहीं होता है.

वैसे EPFO के डेटा को लेकर भी कई सवाल उठाए गए हैं. श्रम मंत्रालय का डेटा संग्रह बंद कर दिया गया क्योंकि उसमें वो तस्वीर नहीं दिख रही थी जो दिखाना चाह रहे थे और साथ ही रोज़गार सृजन को लेकर सरकारी डेटा कम दिखे वो और भी ठीक नहीं लग रहा होगा. मीडिया और धारणा प्रबंधन के चक्कर में सरकार भूल गई कि अगर ज़मीन पर रोज़गार होता तो नौजवान उनका डेटा नहीं देख रहे होते, अपनी नौकरी में व्यस्त हो गए होते.

प्रधानमंत्री ने रोज़गार को लेकर यह बात ठीक कही कि अलग-अलग राज्य रोज़गार देने का अपना दावा करते हैं. क्या यह मुमकिन है कि राज्यों में रोज़गार पैदा हो और देश में न हो. अब तो ज़्यादातर राज्यों में उनकी ही पार्टी की सरकार है और मुख्यमंत्री भी उन्हीं की पसंद के हैं. अगर वे वाकई गंभीर हैं तो रोज़गार को लेकर कम से कम सरकारी आंकड़ा विश्वसनीय तरीके से दिया जा सकता है और वो भी एक हफ्ते के भीतर.

प्रधानमंत्री अपने श्रम मंत्री को कहें कि सभी मंत्रालयों, विभागों, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और चयन आयोगों से कहें कि 2014 से जून 2018 तक उन नौकरियों की संख्या निकालें जिनका विज्ञापन निकला. फिर उनमें से यह संख्या बताएं कि कितनी नौकरियों की परीक्षा हो गई, कितनों के नतीजे निकले और कितने लोगों को नियुक्ति पत्र दे दिया गया. कम से कम केंद्र सरकार इतना तो बता दे कि उसने नौकरियां कम की हैं या ज़्यादा की हैं. सेना की भर्ती कम हो गई है या बढ़ गई है. रेलवे की भर्ती बढ़ गई है या कम हो गई है. जो कंपनियां केंद्र सरकार के साथ मिलकर प्रोजेक्ट में काम कर रही हैं वो सूची हफ्ते भर में सौंप दें कि किस प्रकृति की नौकरियां लोगों को मिली हैं.

इन सबको जोड़ने में कुछ वक्त लग सकता है कि मगर 15 दिन के भीतर मोदी सरकार अपना डेटा दे सकती है कि उसके आने के बाद केंद्र सरकार में कितने लोग भर्ती हुए. कितने लोग भर्ती के नाम पर चार साल परीक्षा ही देते रहे. रेलवे की स्थाई समिति बताती है कि दो लाख तीस हज़ार नौकरियां ख़ाली हैं. मगर विज्ञापन निकला है करीब एक लाख का. इनका इम्तहान कब होगा, रिज़ल्ट कब आएगा और नियुक्ति पत्र कब मिलेगा किसी को पता नहीं.

प्रधानमंत्री कम से कम उत्तर प्रदेश के एक लाख 78 हजार शिक्षा मित्रों की समस्या का समाधान कर रोज़गार का अपना डेटा मज़बूत कर सकते हैं. पौने दो लाख शिक्षा मित्रों की सैलरी 40,000 से 10,000 कर दी गई, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहीं ऐसा नहीं कहा है. सरकार चाहे तो आराम से अलग काडर बनाकर इन पौने दो लाख शिक्षा मित्रों को तत्काल नौकरी दे सकती है. इनकी समस्या का समाधान यूपी बीजेपी के संकल्प पत्र में भी है. तीन महीने में समाधान की बात थी, एक साल बीत गए.

शिक्षा मित्रों को लेकर 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने लंबा भाषण दिया था कि वे प्रयास करेंगे. सांसद रहते हुए योगी आदित्यनाथ ने भाषण और आश्वासन दिया था. घोषणा पत्र में भी है. इसके बाद भी कुछ नहीं हुआ. प्राइवेट का छोड़िए, आप अपनी सरकार का डेटा दीजिए. अगर मोदी सरकार और योगी सरकार 1,78000 लोगों की नौकरी और सैलरी के सवाल पर सुस्त और पस्त है तो फिर वो रोज़गार को लेकर गंभीर है ही नहीं.

इसी तरह की समस्या मध्य प्रदेश के शिक्षा मित्रों की है. वहां अलग नाम से बुलाया जाता है. मगर वहां दो लाख से अधिक शिक्षकों को रेगुलर करने के लिए कैबनिट ने फैसला कर लिया है. एक ही पार्टी की सरकार हर जगह है. एक जगह फैसला कुछ है और एक जगह फैसला कुछ है. कायदे से मोदी और योदी सरकार को मिलकर इस पर दस दिनों के भीतर फैसला कर लेना चाहिए और सभी 1 लाख 78 हजार शिक्षा मित्रों की नौकरी पक्की हो जानी चाहिए. या फिर वे दिखाएं कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहां लिखा है कि इनकी सैलरी 40,000 से घटा कर 10,000 कर दीजिए. योगी जी ने ऐसा क्यों किया?

योगी जी ने 12460 शिक्षकों को नियुक्ति पत्र देने का वादा किया था. ये लोग भी कोर्ट से केस जीत चुके हैं. दो-दो बार इसके बाद भी नियुक्ति पत्र नहीं मिला है. करीब 5000 शिक्षकों को नियुक्ति पत्र मिला है, मगर करीब 8000 फिर लटक गए. कोर्ट के नाम पर इनलोगों को मजबूरन धरने पर बैठना पड़ा है. ये 8000 रोज़गार के डेटा का इंतज़ार नहीं कर रहे हैं, सरकार की नीयत साफ होने का इंतजार कर रहे हैं. अगर मोदी जी और योगी जी इन नौजवानों को नौकरी दे देते तो कह सकते थे कि अकेले यूपी में दो लाख से अधिक लोगों को भर्ती किया है.

इसलिए प्रधानमंत्री का यह कहना कि नौकरी को लेकर डेटा नहीं है, सही नहीं है. वे चाहेंगे तो डेटा मिल जाएगा. वे नहीं चाहेंगे क्योंकि उसमें उनकी सरकार का रिकॉर्ड अच्छा नहीं दिखेगा. इसलिए वे अभी से ही डेटा न होने की बात कहकर नौकरियों को लेकर होने वाली हर बहस को संदिग्ध बना देना चाहते हैं.

नौकरी का सवाल चुभ रहा है. उन्हें पता है कि हालत ख़राब है. नौकरियां नहीं हैं. सरकारों ने नौकरियां बंद कर दी हैं. ठेके पर रख कर ठगा जाता है. खुद पेंशन लेते हैं और सरकारी कर्मचारियों को पेंशन नहीं देते हैं. ठेके वालों को तो कुछ नहीं मिलता है. चार सालों में रोज़गार के फ्रंट पर सरकार का रिकॉर्ड खराब रहा है. वो अपना डेटा चेक कर सकती है और उसके पास उसके डेटा हैं.

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