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This Article is From Dec 25, 2021

हम भी बदल गए क्रिकेट भी बदल गया 

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 25, 2021 00:25 am IST
    • Published On दिसंबर 25, 2021 00:08 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 25, 2021 00:25 am IST

वैसे फ़ुरसत भरे दिन हमारे जीवन में उसके पहले या बाद कभी नहीं आए थे. हमने दसवीं की परीक्षाएं दी थीं और नतीजों का इंतज़ार कर रहे थे. उन दिनों हम क्रिकेट देखा नहीं, सुना करते थे. भारत के गांव-क़स्बे, शहर टेस्ट क्रिकेट की सुस्त-सोती चाल के बीच घरों में, बाज़ारों में, नुक्कड़ों में, सैलूनों में, पान-दुकानों में कान पर ट्रांजिस्टर चिपकाए खड़े लोगों के अकथनीय रोमांच से भरे होते थे. अब लगता है, वह किस बात का रोमांच था? सत्तर-अस्सी के उन दशकों में ज़्यादातर टेस्ट मैच ड्रॉ में ख़त्म होते थे. पांच दिन कमेंटरी सुनने वाले भी नहीं जानते थे कि स्लिप, फारवर्ड शॉर्ट लेग और गली का क्या मतलब होता है और स्वीप, पुल और स्क्वेयर कट में क्या अंतर होता है. शायद वह एक अलग तरह का अशरीरी-आध्यात्मिक प्रेम था जिसे क्रिकेट ने आम तौर पर प्रेम से महरूम हिंदुस्तानी समाज के भीतर पैदा किया था.

ऐसा नहीं कि उन दिनों क्रिकेट में भारत कोई विश्व चैंपियन था. उन दिनों वेस्ट इंडीज़ दुनिया की करिश्माई टीम मानी जाती थी और क्लाइव लायड, रिचर्ड्स, ग्रीनिज, हेंस, कालीचरण, रॉबर्ट्स, होल्डिंग, गार्नर, मार्शल की उस टीम से हार कर भी हम गर्वित महसूस करते थे. हमारे लिए पोर्ट ऑफ स्पेन में गावस्कर की लगाई सेंचुरी ही बड़ी चीज़ होती थी. हम जीतने वाली नहीं, अमूमन हारने वाली टीम थे जिसके पास चार करिश्माई स्पिनर थे और दो शानदार बल्लेबाज़. हम चौथी पारी में संघर्ष करने वाली टीम थे. 

उसी दौरान 1983 का विश्व कप हुआ था. किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि भारत यह विश्व कप जीतेगा. 1975 के पहले विश्व कप में हम पूर्वी अफ्रीका से जीत पाए थे. 1979 के दूसरे विश्व कप में श्रीलंका जैसी कमज़ोर टीम से भी हार कर बाहर हो गए थे. उन दिनों श्रीलंका को टेस्ट टीम का दर्जा तक नहीं मिला था. बल्कि किसी खिलाड़ी ने किसी इंटरव्यू में बताया था कि भारतीय टीम के खिलाड़ी भी वर्ल्ड कप के बीच अमेरिका घूमने की योजना बना रहे थे. उन्होंने भी नहीं सोचा था कि वे सेमीफ़ाइनल में पहुंच जाएंगे.

लेकिन क्रिकेट को गौरवशाली अनिश्चितताओं का खेल क्यों कहा जाता है, यह इसी विश्व कप ने बताया. भारत ने पहले ही मैच में वेस्ट इंडीज़ को हरा डाला. उस जीत की बुनियाद रखने वाले यशपाल शर्मा अब हमारे बीच नहीं हैं. हालांकि इसके बाद हम एक मैच ऑस्ट्रेलिया से हारे और फिर वेस्ट इंडीज़ से भी. एक मैच में जिंबाब्वे के ख़िलाफ़ हमने 17 रन पर पांच विकेट खो दिए. बाद में कपिलदेव की अविश्वसनीय 175 रनों की पारी से वह मुक़ाबला जीता. अंततः 25 जून 1983 को जो फाइनल हुआ, वह भी लगा कि भारत हार जाएगा. आखिर हम 183 रन पर ऑल आउट हो गए थे. हमने ग्रीनिज को जल्द आउट कर दिया था लेकिन रिचर्डस जैसे अकेले सारे रन बना देने पर आमादा था.

वैसा दबंग बल्लेबाज क्रिकेट की दुनिया में न भूतो न भविष्यतो याद आता है. उससे बेहतर बल्लेबाज़ पहले भी हुए और बाद में भी,  लेकिन मैदान पर उसकी जो राजसी मौजूदगी होती थी, उसका जवाब नहीं होता था. लेकिन कपिलदेव ने उसका एक मुश्किल कैच लपका और फिर मैच लपक लिया. एक-एक कर वेस्ट इंडीज़ के सारे दिग्गज आउट होते चले गए. वह आधी रात का समय था जब भारतीय क्रिकेट जैसे जीत की कोख से निकला और उसने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का गुरुत्व हमेशा-हमेशा के लिए बदल डाला. 

इसके बाद भी जीत-हार और झगड़े की कहानियां हैं. उन दिनों भारतीय टीम वाकई कमाल की थी. हमने बेंसन ऐंड हेजेज जीता, रॉथमेंस जीता, 1987 का रिलायंस विश्व कप जीतने के हम सबसे बडे दावेदार थे जो हम हार गए.

वे जादू जैसे दिन थे जिनमें क्रिकेट खेल नहीं हमारे अन्यथा स्पंदनहीन जीवन की आती-जाती सांस था. इसके बाद बड़े-बड़े खिलाड़ी आए. करिश्माई अजहरुद्दीन आया, सचिन, द्रविड़, गांगुली की त्रिमूर्ति आई, लक्ष्मण और सहवाग आए, धोनी आए और उनके पीछे-पीछे विराट कोहली और राहुल शर्मा आए, इन सबके पहले कुंबले और हरभजन जैसे स्पिनर आए, ट्रांजिस्टर की जगह टीवी चला आया, क्रिकेट के रंगीन प्रसारण बिल्कुल जादुई ढंग से बदलते गए, टेस्ट की जगह वनडे चला आया, वनडे की जगह टी--20 आ गया.

आइपीएल चला आया जिसमें खिलाड़ियों की नीलामी पहली बार अचरज की तरह आई और फिर अभ्यास में बदल गई और आइपीएल इतना महत्वपूर्ण हो गया कि उसकी वजह से खिलाड़ी विदेशी दौरे छोड़ कर लौटते नज़र आए. क्रिकेट में बहुत सारा पैसा आया, फिक्सिंग आई, सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन आई, जय शाह आए, कोहली और राहुल के बीच टकराव की खबरें आईं और गांगुली और कोहली के टकराव में बदलती दिखीं. 

यह एक पूरी दुनिया का बदल जाना है. क्रिकेट ही नहीं बदला है,. हम भी बदल गए हैं. हम वह मध्यवर्ग नहीं बचे हैं जो क्रिकेट के रोमान को अपनी कल्पनाओं में जीता था, जो गुंडप्पा विश्वनाथ की कलाइयों के जादू को और चंद्रशेखर की गुगली को किसी किंवदंती की तरह दुहराता और मिथक की तरह पूजता था. वह एक-एक पारी को बरसों तक याद किया और दुहराया करता था.

हम अब एक उपभोक्तावादी समाज हैं जिसके लिए हर रिप्ले सुलभ है और जिसके भीतर जीत की भूख इतनी ज़्यादा है कि उसके आगे हम किसी को कुछ नहीं मानते. इस क्रिकेट में अब इतने और इतनी तरह के मैच हो रहे हैं कि कुछ भी याद नहीं रहता. पहले टेस्ट मुक़ाबले विलंबित संगीत की तरह होते थे जिनका लोग रस लेते थे, अब टी-20 मैच सर्कस में कुएं के भीतर मोटरसाइकिल चलाने वाले रोमांच की तरह हो गया है.

बेशक, इस बीच हमने 2007 का टी-20 वर्ल्ड कप जीता और 2011 का वर्ल्ड कप भी. लेकिन हमारे देखते-देखते क्रिकेट पहले खेल से टीवी शो में बदलता गया और फिर तमाशे में- बेशक, ऐसे तमाशे में जो आज भी हमें रास आता है.

आज फिल्म तिरासी रिलीज़ हुई है, फिल्म में कपिलदेव बने रणवीर सिंह हर जगह इंटरव्यू दे रहे हैं. इसी बीच याद आए वे दिन, याद आया कि हम किस तरह बदल गए हैं.

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