निजी क्षेत्र में कन्नड़ लोगों के आरक्षण के लिए बनाए गए 'Karnataka State Employment of Local Candidates in the Industries, Factories and Other Establishments Bill 2024' पर विवाद बढ़ने के बाद कनार्टक सरकार ने बिल को होल्ड कर लिया है. संविधान के प्रावधानों से साफ है कि चुनौती मिलने पर यह कानून हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पाएगा, लेकिन रोजगार और गर्वनेंस बढ़ाने में विफल सरकारें क्षेत्र, जाति, भाषा और धर्म के आधार पर आरक्षण और रेवड़ियों के झुनझुने से वोट बैंक को लुभाने में मगन हैं. यह बिल युवाओं के भविष्य, रोजगार सृजन, आर्थिक प्रगति के साथ देश के संघीय ढांचे को प्रभावित करता है, इसलिए इससे जुड़े 11 कानूनी और संवैधानिक पहलुओं को समझना बेहद ज़रूरी है.
- संविधान में निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए प्रावधान नहीं - संविधान के अनुच्छेद-14 में समानता का प्रावधान है. विधायिका, शिक्षा और सरकारी नौकरी में SC/ST, महिला और OBC आदि को आरक्षण देने के लिए अपवादस्वरूप प्रावधान हैं, लेकिन निजी क्षेत्र में माटी पुत्रों को क्षेत्र या भाषा के आधार पर आरक्षण के लिए कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं है. सरकार द्वारा दी गई रियायती जमीन पर बनाए गए स्कूलों और अस्पतालों में गरीबों और EWS वर्ग के लोगों को सस्ती शिक्षा और इलाज के लिए प्रावधान हो सकते हैं, लेकिन संविधान के नाम पर शपथ लेने वाली सरकारें बगैर संवैधानिक व्यवस्था के निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू नहीं कर सकतीं. निजी क्षेत्र में क्षेत्रीय आधार पर आरक्षण के पहले वंचित वर्ग के आरक्षण का प्रावधान करना होगा.
- रोजगार और व्यापार की स्वतंत्रता का हनन - अनुच्छेद 19 में नागरिकों को पूरे देश में आवागमन, रोजगार और व्यापार का संवैधानिक अधिकार है. राज्यों में भाषा या क्षेत्र के आधार पर रोजगार पर प्रतिबंध लगाना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. इस बिल में उन लोगों को स्थानीय माना गया है, जिनका कनार्टक में जन्म हुआ है, या 15 साल से कर्नाटक में डोमिसाइल हैं या कन्नड़ भाषा लिखना-पढ़ना जानते हैं. सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच ने केशवानंद भारती मामले में मौलिक अधिकारों को संविधान का बेसिक ढांचा माना था. इसलिए मौलिक अधिकारों के ख़िलाफ़ बनाए गए ऐसे कानून को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट रद्द कर सकती है.
- भारत में दोहरी नागरिकता नहीं है - अमेरिका में केन्द्र और राज्यों दोनों की अलग-अलग नागरिकता है, लेकिन भारत के संविधान के भाग-2 में सिर्फ केन्द्रीय स्तर पर नागरिकता का प्रावधान है. राज्यों में डोमिसाइल के आधार पर आरक्षण देने के लिए कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं है. हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश या कर्नाटक में मनमाफिक तरीके से राज्यों के माटी पुत्रों को परिभाषित करने की कोशिश पूरी तरह गलत है. संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार नागरिकता से जुड़े मामलों में सिर्फ केन्द्र सरकार और संसद को ही कानून बनाने का अधिकार है.
- इसे राष्ट्रपति की मंजूरी जरूरी - इस बिल पर राज्य सरकार के विभिन्न मंत्रालयों ने पर्याप्त परामर्श नहीं किया. दूसरे राज्यों से जुड़े मामलों पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिकूल टिप्पणी की है. इसलिए कर्नाटक सरकार को कैबिनेट की स्वीकृति के पहले इस बिल पर Advocate General और Attorney General की कानूनी राय लेनी चाहिए थी. विधानसभा में पारित होने के बाद इसे राज्यपाल की मंजूरी ज़रूरी है. आरक्षण और नागरिकता से जुड़े मसले केन्द्र सरकार के अधीन हैं. इसलिए विधानसभा में पारित होने के बाद राज्यपाल ऐसे किसी कानून को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए केन्द्र सरकार को भेज सकते हैं.
- अन्य राज्यों पर हाईकोर्ट के फैसले - साल 2019 में आन्ध्र प्रदेश ने निजी क्षेत्र में 75 फीसदी आरक्षण के लिए कानून बनाया था. उस कानून को चुनौती दिए जाने पर हाईकोर्ट के जजों ने साल 2020 में प्राथमिक तौर पर उसे असंवैधानिक बताया था. साल 2020 में हरियाणा सरकार ने 'Haryana State Employment of Local Candidates Act' पारित कर निजी क्षेत्र में 75 फीसदी आरक्षण का कानून बनाया था. साल 2023 में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने उस कानून को संविधान के Article 14 और 19 के ख़िलाफ़ मानते हुए रद्द कर दिया.
- क्षेत्र आधारित आरक्षण और मूल निवासियों में फर्क - संविधान के अनुच्छेद 371 में अनुसूचित जनजातियों और मूल निवासियों के आरक्षण के लिए प्रावधान हैं. आन्ध्र प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में मूल निवासियों के लिए कुछ अपवाद दिए गए हैं, लेकिन डोमिसाइल और भाषा के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता. देश में 'Public Employment Requirement As To Residence Act 1957' बनाया गया है. इसके अनुसार क्षेत्र के आधार पर नौकरियों में भेदभाव नहीं हो सकता. सुप्रीम कोर्ट ने साल 1994 के फैसले में राज्यों में माटी पुत्रों के आरक्षण को संविधान के अनुच्छेद 16 (2) के ख़िलाफ़ बताया था.
- आरक्षण की 50 फीसदी लिमिट - सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में सरकारी नौकरियों में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय की थी. हरियाणा, आन्ध्र प्रदेश और अब कर्नाटक ने निजी क्षेत्र में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण का जो शिगूफा छोड़ा है, उसका न्यायिक कसौटी में टिकना मुश्किल है. झारखण्ड, उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों को आरक्षण के कानून को अदालत में चुनौती मिली है. इन परिस्थितियों में निजी क्षेत्र में 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण का कानून अदालत से रद्द हो जाएगा.
- केन्द्रीय स्तर पर कम्पनी कानून - Constitution की सातवीं अनुसूची के अनुसार IT और Cyber से जुड़े मामले केन्द्र सरकार के अधीन हैं. कर्नाटक के प्रस्तावित कानून से E-Commerce, Start-Up, IT, ITES, GCC सेक्टर की कम्पनियां सबसे ज्यादा प्रभावित होंगी. यहां 11,000 से अधिक स्टार्टअप और 30 फीसदी GCC के ऑफिस हैं. कर्नाटक में Wal-Mart और Google जैसी विदेशी कम्पनियों के साथ Infosys और Wipro के बड़े ऑफिस हैं. Companies Act के तहत बेंगलुरू में रजिस्ट्रेशन कराने वाली कम्पनियों पर कर्नाटक राज्य के कानून को लागू करना अनैतिक होने के साथ गैरकानूनी है.
- जीडीपी में पूरे भारत का योगदान - भारत की GDP में कर्नाटक की 7 फीसदी हिस्सेदारी है. कर्नाटक की जीडीपी में तकनीकी सेक्टर का योगदान 25 फीसदी है. बेंगलुरू शहर कर्नाटक की इकोनॉमी में 43.86 फीसदी योगदान देता है. 2011 की जनसंख्या के अनुसार बेंगलुरू की 96 लाख आबादी में 50 फीसदी प्रवासी हैं. राज्य सरकार का यह कानून गलत और पुरानी सोच वाला है. इससे Tech इंडस्ट्री और अर्थव्यवस्था में विचलन के साथ विदेशी निवेशकों का भरोसा डगमगा सकता है. दुनिया के सबसे रईस व्यक्ति Elon Mask ने अपनी दो कंपनियों X Corp और SpaceX के मुख्यालय को कैलिफोर्निया से टेक्सास में शिफ्ट करने की धमकी दी है. उससे सबक लेते हुए कर्नाटक सरकार को ऐसे तुगलकी क़ानून बनाने से परहेज़ करना चाहिए. वैसे भी अर्थव्यवस्था, व्यापार और वाणिज्य को बाधित करने का कानून बनाने की इजाजत किसी भी राज्य सरकार को नहीं दी जा सकती.
- श्रम क़ानून और इंस्पेक्टर राज - बिल पर विवाद बढ़ने के बाद राज्य सरकार के एक मंत्री ने कहा कि यह प्रारम्भिक ड्राफ्ट था, जिस पर इंडस्ट्री के सुझावों के अनुसार नए सिरे से मंत्रिमण्डल में विचार होगा. विधानसभा में विधेयक पारित होने के बाद कानून से जुड़े अनेक नियम भी बनाने होंगे. केन्द्र सरकार Labour Code को दुरुस्त करने के बारे में कई सालों से प्रयास कर रही है. इस बिल में कानून के उल्लंघन पर ₹10,000 से लेकर ₹25,000 तक के जुर्माने का प्रावधान है, लेकिन इसके उल्लंघन पर आपराधिक मामले में जेल भेजने का फिलहाल कोई प्रावधान नहीं है. निजी क्षेत्र में आरक्षण को लागू करने के नाम पर राज्यों में इंस्पेक्टर राज बढ़ना उदारीकरण और वैश्विक अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ है. ऐसे बेतुके क़ानून बनाने की बजाय ठेके पर काम कर रहे Gig Workers को राहत देने के लिए केंद्र और राज्यों को ठोस क़ानून बनाने की ज़रूरत है.
- बेवजह की सरकारी मुकदमेबाजी - सरकारी खर्चे पर अदालतों में मुकदमेबाजी के बढ़ने से आम जनता को दोहरा नुकसान होता है. मुकदमेबाजी में बड़े वकीलों को फीस देने के नाम पर सरकारी खजाने को भारी नुकसान होता है. दूसरी तरफ सरकार की मुकदमेबाजी से आम लोगों के मुकदमों की सुनवाई और फैसलों में विलम्ब होता है. कर्नाटक जैसे विकसित राज्य डोमिसाइल आधारित आरक्षण लागू करने की सियासत कर रहे हैं, जबकि बिहार जैसे पिछड़े राज्य केन्द्रीय बजट में स्पेशल पैकेज की मांग कर रहे हैं. इन दोनों अतिवादों के बीच राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर संतुलन बनाना, युवाओं के स्किल के साथ रोजगार को बढ़ाना, कर्नाटक और हरियाणा समेत सभी राज्यों की संवैधानिक जिम्मेदारी है.
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं... साइबर, संविधान और गवर्नेंस जैसे अहम विषयों पर नियमित कॉलम लेखन के साथ इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं...
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