- बिहार के बेगूसराय को कम्युनिस्ट विचारधारा के कारण पूरब का लेलिनग्राद कहा जाता था और यहां लाल झंडे का दबदबा था.
- तेघरा विधानसभा क्षेत्र में लगभग पांच दशकों तक वामपंथ का प्रभाव रहा, लेकिन बाद में यह धीरे-धीरे कमजोर होता गया.
- 2010 में बीजेपी के ललन कुंवर ने बेगूसराय में वामपंथ को हराकर कमल का फूल खिला दिया.
बिहार के बेगूसराय को कभी पूरब का लेनिनग्राद (Begusarai Communist Politics) कहा जाता था. लेनिनग्राद यानी लेनिन का शहर,उनकी विचारधारा वाला शहर. जिसकी अगुआई कॉमरेड चंद्रशेखर किया करते थे. इसे लेलिनग्राद की यह उपाधि इसलिए दी गई थी क्यों कि एक जमाने में यहां हर जगह लाल झंडे (Leningrad of East) का कब्जा था. तेघरा विधानसभा मे 1962 से लेकर 2010 तक वामपंथियों का कब्जा रहा. पर धीरे-धीरे यह कुनवा जिले मे सिमटता गया. जिसका परिणाम यह हुआ कि साल 2010 में बीजेपी के ललन कुंवर ने लाल झंडे वाली जगह पर कमल का फूल खिलाकर कमाल कर दिया.
ये भी पढ़ें- चीन पर 50 से 100% टैरिफ लगाओ, रूसी तेल खरीदना करो बंद... ट्रंप ने नाटो देशों को लिखी चिट्ठी
बेगूसराय से वामपंथ क्यों भटक गया
बाद के दिनों मे यही हाल जिले के अन्य हिस्सों मे भी हुआ. जिसके बाद अब माना जाने लगा कि लेनिनग्राद का तिलस्म जिले से धीरे-धीरे ख़त्म हो गया. जिलाे की कुल सात विधानसभा सीटों में से आज भी दो सीटें वामपंथियों के कब्जे में हैं. हालांकि लेनिनग्राद कहे जाने वाले बेगूसराय में समय के साथ-साथ वामपंथ अपने विचारों से भटक गया. यह अब इतना कमजोर हो चुका है कि इसका नाम लेने वाले भी कुछ खास लोग ही बचे हैं.
अब सवाल यह है कि क्या बेगूसराय से वामपंथ खत्म हो जाएगा या यह एक बार फिर अपने पांव जमा लेगा. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्यों कि कभी देश मे वामपंथ का झंडा बुलंद करने वाले कन्हैया कुमार जैसे लोग कम्युनिस्ट पार्टी से मुंह मोड़कर कांग्रेस की शरण में अपना आशियाना तलाश रहे हैं.
बेगूसराय में कभी कम्युनिस्टों का था दबदबा
बिहार की राजनीति में बेगूसराय का दबदबा लंबे समय से कायम है, जो समय के साथ और मजबूत हो रहा है. यह अलग बात है कि एक भी दौर था जब यहां कम्युनिस्ट पार्टी का दबदबा था, जो सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाती थी. लेकिन आज स्थिति यहां अलग है. अब यहां कम्युनिस्ट अस्ताचल की ओर है. इसका झंडा बुलंद करने वाले कुछ कम ही बचे हैं. इसकी मुख्य वजह वामपंथ की विचारधारा का बदलना और वर्ग संघर्ष की राजनीति का तिलांजलि देना है. इस मामले में लोगो के अलग-अलग विचार हैं. कुछ लोग कम्युनिस्ट के खात्मे के पीछे इसके नेताओं का सत्ता का लालची होना बता रहे है तो कुछ गठबंधन की राजनीति को वजह बता रहे हैं.
क्यों सिमट गया वामपंथ?
बेगूसराय में करीब 24 लाख मतदाता हैं. इन सभी की अलग-अलग पसंद है. आज की तारीख में हर किसी का अपना नेता और अपना दल है, जिसे वे वोट देते हैं. लेकिन एक वक्त ऐसा भी था जब यहां पर लाल झंडे का बोलबाला था. दलित, पिछड़ा और वर्ग संघर्ष की राजनीति करने वाले इस दल की यहां तूती बोलती थी. शोषित,दलित, मजदूर और वर्ग संघर्ष की राजनीति की वजह से यह दल 1960 के दशक के बाद से यहां तेजी से उभरा. जिसकी वजह से यहां की 7 विधानसभा सीटों में से पांच पर कम्युनिस्ट नेताओं को जीत मिली. लेकिन आज के हालात यह हैं कि गठबंधन के बलबूते पर यह दो सीटों पर सिमट कर रह गया है.
कम्युनिसस्ट राजनीति के खात्मे के पीछे की वजह
इतना ही नहीं कन्हैया कुमार जैसे उभरते नेता की करारी हार ने यह बता दिया की अब कम्युनिस्ट सिर्फ नाम ही रह गया है. जानकार बताते है की कम्युनिस्ट का यह हाल कट्टर मुस्लिम छवि के कारण भी हुआ है, जिससे एक खास तबके के लोग अलग हो गए. वहीं कुछ लोग कहते हैं कि पहले कम्युनिस्ट पार्टी जिले के विकास और लोगों के लिए बढ़-चढ़ कर आंदोलन किया करती थी. लेकिन फिर इसके नेता सिद्धांत से भटक गए और पैसे के पीछे भागने लगे.
बेगूसराय में वामपंथ का इतिहास जानें
कम्युनिस्ट पार्टी के पिछले इतिहास में झांकें तो बेगूसराय को वामपंथियों का गढ़ बनाने में कॉमरेड चंद्रशेखर की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. कॉमरेड चंद्रशेखर सिंह ना सिर्फ अच्छे वक्ता थे बल्कि शोषित-पीड़ित लोगों की आवाज बनकर खड़े रहते थे. उस दौर में कॉमरेड चंद्रशेखर ने लेलिन के विचारों को जिंदा किया. जिसके कारण जिले को लेलिनग्राद कहा जाने लगा. यहां के हजारों लोग कम्युनिस्ट पार्टी के पैसे पर सोबियत रूस पड़ने जाने लगे. जब कभी भी विदेश से कोई नेता दौरे पर आता था तो वह बेगूसराय ही आता था. जिससे जिले का रिश्ता इन राजनेताओं और उन देशो से गहराता गया और कम्युनिस्ट पार्टी की स्थिति मजबूत होती गई.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं