जब हिंदी साहित्य में छलका भारत-पाकिस्तान विभाजन का दर्द

साहित्य समाज का दर्पण होता है, और उसमें अपने समय के दस्तावेजीकरण की ताकत होती है

जब हिंदी साहित्य में छलका भारत-पाकिस्तान विभाजन का दर्द

खास बातें

  • 'तमस' पर बने सीरियल ने किताब को बनाया पॉपुलर
  • विभाजन के बाद बदले समाज की कहानी है 'सूखा बरगद'
  • 'शरणदाता' में जान बचाने की जद्दोजहद है
नई दिल्ली:

आजादी की सबसे बड़ी कीमत विभाजन के तौर पर चुकानी पड़ी. इस त्रासदी के लाखों लोग शिकार हुए और उन्हें बेघर होना पड़ा. कत्लेआम हुआ और कई जिंदगियां इसकी भेंट चढ़ गईं. आज भी जब आजादी का जश्न मनाया जाता है, तो यह त्रासदी जेहन में ताजा हो जाती है. हिंदी साहित्य में भी विभाजन का विषय हमेशा आता रहा है, और लेखकों ने अपने हिसाब से इस त्रासदी को लिखा है. आइए विभाजन से जुड़ी पिछले 70 साल के हिंदी साहित्य की सात कृतियों पर नजर डालते हैः 
 

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झूठा सच, यशपाल
 हिंदी के प्रसिद्ध लेखक यशपाल का उपन्यास है जो भारत विभाजन पर अपने महाकाव्यात्मक स्वरूप में इस त्रास का उदघाटन करता है. झूठा सच दो भागों में लिखा गया है - 'वतन और देश', तथा 'देश का भविष्य'. उपन्यास की नायिका तारा का संघर्ष और दूसरे चरित्रों के मार्फ़त सामाजिक परिवर्तन को देखा गया है. कहा जा सकता है कि विभाजन का जैसा औपन्यासिक दस्तावेजीकरण यशपाल ने इस उपन्यास में संभव किया है वह किसी भी भाषा के लिए गौरव की बात है.

तमस, भीष्म साहनी
तमस की रचना कैसे हुई? भीष्म साहनी ने इस प्रश्न पर कहा है कि आजाद भारत में हुए दंगों के कारण उन्हें अपने शहर रावलपिंडी के दंगे याद आए जिनकी आग गांवों तक फैल गई थी. 1986 - 87 में दूरदर्शन पर आए फिल्मांकन के कारण यह उपन्यास एकाएक चर्चित हो उठा था लेकिन उसकी असली ताकत दंगों और घृणा के घनघोर अन्धकार में भी मनुष्यता के छोटे छोटे सितारे खोजने में है. मजे की बात यह है कि इसकी कथा विभाजन से पहले की है लेकिन इसकी सफलता और सार्थकता इस बात में है कि यह विभाजन के मूल कारणों की पड़ताल करने में पाठक को विवेकवान बनाता है.
 
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सूखा बरगद, मंजूर एहतेशाम 
नब्बे के दशक में भोपाल के मंज़ूर एहतेशाम का लिखा उपन्यास आया 'सूखा बरगद' असल में स्वातंत्र्योत्तर भारत में विभाजन के परिणामस्वरूप आए सामुदायिक जीवन के बदलाव की कथा कहता है. इसके केंद्र में भारतीय मुस्लिम समाज है जिसके अंतर्विरोध और द्वंद्व उपन्यासकार ने बेहद मार्मिक ढंग से उद्घाटित किए हैं. एक मामूली आदमी जो विभाजन को अपने मन में कभी स्वीकार नहीं करता और धार्मिक कट्टरता से दूर उसके लिए पाकिस्तान एक अजनबी देश है लेकिन तब भी उसे साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के लोगों से जूझना पड़ रहा है. असल में भारतीय सामुदायिक जीवन की बरगद जैसी बहुलता के सूखते जाने का मर्सिया है -सूखा बरगद.  

जिस लाहौर नइ वेख्या, असगर वजाहत 
यह भारत विभाजन की एक घटना पर आधारित है. भारत से पाकिस्तान गए एक मुस्लिम परिवार को एक हिन्दू परिवार की कोठी मिली है और उसमें रहने वाली बुढ़िया भारत जाने को तैयार नहीं जबकि उसके घरवाले सब चले गए हैं. धीरे-धीरे नाटक में तनाव बढ़ता है और विभाजन से उपजी कट्टरता (या कट्टरता से हुए विभाजन) के कारण वहां बुढ़िया की स्थिति बेहद उलझन पैदा कर देती है. समाज में मौजूद कट्टर और धर्म का धंधा कर रहे लोग स्थितियों को बिगाड़ते हैं. तब भी असगर वजाहत उस निराशा और अंधकार में मनुष्यता और सद्भावना का उजास खोज लाते हैं. 

सिक्का बदल गया, कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती अपने उपन्यासों के लिए चर्चित हैं लेकिन विभाजन पर लिखी उनकी कहानी 'सिक्का बदल गया' समस्या के एक पक्ष का प्रामाणिक और मार्मिक पाठ तैयार करती है. पाकिस्तान के एक मुस्लिम बहुल गांव में अकेली हिन्दू बची शाहनी की कथा एक खुद्दार और अपराजेय मनुष्य गाथा भी है. गांव की सेठानी को गांव के लोग गांव छोड़ने के लिए मजबूर कर रहे हैं. वह गांव छोड़कर कैंप जाती है लेकिन बिना कातर हुए. मुड़कर नहीं देखती. धार्मिक कट्टरता से उपजी घृणा के मध्य शाहनी का वीरता व्यक्तित्व सन्देश देता है कि मनुष्य को कोई कट्टरता झुका नहीं सकती.

शरणदाता, अज्ञेय
'शरणदाता' अज्ञेय की कहानी है. कवि अज्ञेय की कहानी. यथार्थवादी बुनियाद पर लिखी इस कहानी में देविन्दरलाल जी को घर छोड़कर जाने से रफ़ीकुद्दीन साहब रोक लेते हैं. उन्माद और तनाव के घनघोर आतंक के बीच देविन्दरलाल उनके मकान में एक सूने कोने में शरण लिए हुए हैं. हिंसा से बचकर आए देविन्दरलाल जी को यहां भी जहर दिया जाता है. लेकिन वे मरते नहीं. क्यों? इस घृणा और हिंसा में भी उनके जीवन को बचाने वाला कोई है.

मलबे का मालिक, मोहन राकेश
मोहन राकेश की कहानी 'मलबे का मालिक' विभाजन की घटना का इधर वाला पाठ है. अमृतसर गनी मियां को घर छोड़ पाकिस्तान जाना पड़ा था. पीछे रह गए परिवार को मोहल्ले के लोगों ने 'पाकिस्तान' दे दिया. अब गनी मियां का घर मलबा बन चुका है और वे हॉकी मैच देखने के बहाने आए हैं. कृष्णा सोबती की शाहनी की आंख में कातरता और आंसू नहीं हैं तो यह कहानी गनी मियां के अमिट विश्वास की गाथा है. जिस मोहल्ले में उनका परिवार था वहां कैसे उनके बेटे को मारा जा सकता है. वे पहलवान से ही पूछते हैं और हत्यारा पहलवान खामोश है. यह पराजय की खामोशी है और गनी मियां के आंसू मनुष्यता का वह अवसाद जो हमें बेचैन करता है कि आखिर धर्म की कट्टरता क्यों आदमखोर बन जाती है?  

पल्लव, दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज में अध्यापक हैं.

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(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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