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This Article is From Jan 19, 2015

शरद शर्मा की खरी खरी : केजरीवाल के पुराने दोस्त, खोलेंगे 'आप' की कौन सी पोल?

शरद शर्मा की खरी खरी : केजरीवाल के पुराने दोस्त, खोलेंगे 'आप' की कौन सी पोल?
आप पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल की फाइल तस्वीर
नई दिल्ली:

इन दिनों दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के दिल्ली के सीएम कैंडिडेट अरविंद केजरीवाल के पुराने सहयोगी रहे लोगों का बीजेपी में शामिल होने का रेगुलर कार्यक्रम चल रहा है। एक के बाद एक जो पुराना केजरीवाल का सहयोगी बीजेपी में शामिल हो रहा है वो दावा कर रहा है कि वो आप को 'एक्सपोज़' करना चाहता है या करेगा/करेगी।

सवाल है कि इन लोगों के पास ऐसा क्या है जिससे ये आप की पोल खोलेंगे? अगर है तो इन्होंने अबतक क्यों सामने नहीं रखा? और अगर अब रखेंगे तो सवाल उठेगा कि चुनाव के वक्त ही क्यों? और कितना नुकसान ये केजरीवाल के सहयोगी केजरीवाल या उनकी पार्टी को कर सकते हैं?

अरविंद केजरीवाल अपनी और अपनी पार्टी के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और शायद ये उनकी जिंदगी की अबतक की सबसे अहम और मुश्किल लड़ाई है। दिल्ली में मोदी लहर और 49 दिन में सरकार छोड़ने के फैसले से जनता में उपजी नाराज़गी से निपटने में लगे हुए थे और उनके पास सबसे बड़ा हथियार बना हुआ था बीजेपी के पास उनकी टक्कर का लोकप्रिय चेहरा न होना।

एक वक्त में ऐसा लगता था कि बीजेपी दिल्ली में बाकी सभी पार्टियों से बहुत आगे चल रही है। फिर वो समय आया कि बीजेपी के बराबरी पर आम आदमी पार्टी दिखने लगी और रामलीला मैदान की रैली से जब पीएम मोदी ने केजरीवाल पर अबतक का सबसे तीखा हमला किया तो उसके बाद एक धारणा बनती दिखी शायद आप दिल्ली में बीजेपी से आगे निकल रही है और ऐसी धारणा बनने का बड़ा कारण ये था कि केजरीवाल दिल्ली में लगातार सभी सर्वे में निर्विवाद रूप से सीएम कैंडिडेट के तौर बाकी सभी संभावित नामों से बहुत आगे दिख रहे थे।

लेकिन इस बीच देश की पहली आईपीएस किरण बेदी की बीजेपी में एंट्री से सवाल उठे कि क्या केजरीवाल ने बीजेपी को मजबूर किया बाहर से उनकी टक्कर का चेहरा लाने के लिए? क्या दिल्ली में अकेले पीएम मोदी के चेहरे से काम नहीं चल पा रहा था बीजेपी का? और क्या वाकई केजरीवाल दिल्ली में बीजेपी से आगे निकल गए थे जो बीजेपी को किरण बेदी को लाना पड़ा?

बहरहाल अब भी दिल्ली में बीजेपी और आप में कांटे की लड़ाई दिख रही है, लेकिन केजरीवाल के लिए चुनौती किरण बेदी बन गई हैं, न केवल इसलिए कि वो उनके सामने उनकी सीट नई दिल्ली से चुनाव लड़ सकती हैं या दिल्ली में बतौर सीएम उम्मीदवार प्रोजेक्ट हो रही हैं, बल्कि इसलिए भी क्योंकि किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल की पुरानी सहयोगी रही हैं और जिस लोकपाल आंदोलन से मिली नई पहचान के दम पर आज केजरीवाल, केजरीवाल हैं, किरण बेदी भी उस आंदोलन में अहम रोल निभाकर पहले से मशहूर होते हुए और भी प्रसिद्धी हासिल किए हुए हैं।

केजरीवाल की समस्या ये है कि लोकपाल आंदोलन और उसके पार्टी में शामिल रहे उनके अपने ही उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। फिर चाहे हाल ही में बीजेपी में शामिल हुई टीम अण्णा सदस्य और आप नेता रही शाज़िया इल्मी हों, या फिर विनोद कुमार बिन्नी। जिस तरह इन चुनावों में केजरीवाल के खिलाफ उनके पुराने साथी मोर्चा खोलकर उनकी मुसीबत बढ़ाने में लगे हुए है ठीक उसी तरह पिछले चुनावों में उनकी मुसीबत लोकपाल आंदोलन का चेहरा रहे अण्णा हज़ारे बढ़ाते रहे हैं।

चुनाव से कुछ दिन पहले अण्णा की चिठ्ठी आई जिसमें लोकपाल आंदोलन के दौरान आए चंदे के पैसे को लेकर विवाद था, फिर एक सीडी आई जिसमें जिसमें अण्णा हज़ारे फिर से आंदोलन के दौरान जमा हुए चंदे और उसके खर्च पर सवाल उठाते दिख रहे थे और जवाब में केजरीवाल ने कहा कि उन्होंने पैसे खर्च का ऑडिट कराया है, इससे ज़्यादा क्या कहें।

पिछली बार के चुनावों में जहां केवल अण्णा हज़ारे उनकी मुसीबत बढ़ा रहे थे इस बार किरण बेदी, शाज़िया इल्मी के साथ पार्टी के विधायक और विधानसभा स्पीकर रहे एमएस धीर, विधायक अशोक चौहान और पार्टी से निकाले गए विधायक विनोद कुमार बिन्नी बीजेपी में शामिल होकर केजरीवाल के खिलाफ़ मोर्चा खोले बैठे हैं।

हालांकि ये सब लोग आज क्यों अरविंद केजरीवाल के खिलाफ़ खड़े दिख रहे हैं उसकी भी अलग-अलग वजह हैं। जैसे कि किरण बेदी का झुकाव पहले से बीजेपी की तरफ रहा, शाज़िया पार्टी में तवज्जो न मिलने से परेशान थीं। बिन्नी के बारे में ये बात रही कि वो मंत्री पद चाहते थे और बाकी दो आप विधायक इसलिए बीजेपी में शामिल हो गए क्योंकि उनको इस बार पार्टी टिकट नहीं दे रही थी।

मैं ये नहीं कह रहा कि केजरीवाल गलत हैं या वो लोग गलत हैं जो आज अरविंद के खिलाफ़ खड़े हैं। सबकी अपनी विचारधारा, अपनी सोच, अपनी चाहत और अपना नज़रिया होता है। देखने वाले के नज़रिए के ऊपर निर्भर करता है कि वो क्या देखता हैं और कैसे देखकर अपनी क्या राय बनाता है?

बड़ी बात ये है कि जब कोई अपना सहयोगी रहकर खिलाफ खड़ा होता है, तो उससे ज़्यादा बड़ी मुसीबत कोई और नहीं हो सकता क्योंकि वो आपके काम करने के तरीके, आपके राज़, और आपके पूरे तंत्र को जानता है और ऊपर से आप उससे इमोशली भी जुड़े हो सकते हैं ऐसे में उसकी चुनौती में कुछ दम तो होता ही है क्योंकि वो जिसके साथ जाकर मिलता है, उसका फ़ायदा करे न करे उसका नुकसान ज़रूर कर सकता है जिसके विरोध में अब वो खड़ा हो गया है। साथ में बात ये भी होता है कि अगर वो आपके ऊपर आरोप लगाए तो जनता में एक संदेश ये जाता है कि ''क्या बात है आखिर जो ये इसके खिलाफ़ हो गया, पहले तो साथ था''?

जनता के मन में इससे कुछ सवाल पैदा होते हैं, शक भी होता है कि क्या जो आरोप ये लगा रहे हैं वो सही तो नहीं हैं?

सच कुछ भी हो सकता है, लेकिन कहते हैं ना कि 'बंद मुट्ठी लाख की खुल गई तो खाक की'....बात जब तक दो लोगों के बीच रहे, पार्टी और उसके नेता भी बीच में रहें तो ठीक वर्ना मामला उछला तो सवाल तो उठेंगे ही?

लेकिन कुल मिलाकर बात ये है कि मेरे हिसाब से पहले केजरीवाल के सामने मुख्य तौर पर केवल एक ही चुनौती थी वो ये कि 'दिल्ली में 49 दिन में सरकार क्यों छोड़ी?'......(पब्लिक में केजरीवाल के खिलाफ़ नाराज़गी की केवल एक वजह).....बस इसका जवाब उनको दिल्ली वालों को समझाना था.....लेकिन अब एक चुनौती और हो गई है वो हैं उनके कभी अपने रहे और उनमें भी एक नाम... किरण बेदी...

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