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This Article is From Sep 19, 2012

कब-कब कांग्रेस पर बिफरीं हैं ममता

कब-कब कांग्रेस पर बिफरीं हैं ममता
नई दिल्ली: ये पहला मौका नहीं है जब ममता बनर्जी और केंद्र सरकार के बीच ऐसे टकराव की नौबत आई है। और ऐसा भी नहीं है कि हर बार सरकार ही झुकी हो।

मुलायम के साथ ममता बनर्जी

जब राष्ट्रपति चुनाव से पहले ममता बनर्जी ने मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर संभावित उम्मीदवारों के नाम उछाले और उनमें प्रधानमंत्री का नाम भी डाल दिया तो ये सरकार की टोपी उछालने जैसा था। हड़बड़ाई कांग्रेस ने इसके फौरन बाद प्रणब मुखर्जी का नाम पेश कर दिया। ये अलग बात है कि इस मामले में आख़िरकार ममता बनर्जी झुकीं।

दरअसल, पिछले कुछ अरसे में ऐसे ढेर सारे मौके आए हैं जब सरकार और ममता के बीच टकराव दिखते रहे।

− जब सरकार ने पेट्रोल के दाम सात रुपये बढ़ाए तो ममता ने रोलबैक की मांग की। सरकार ने बात नहीं मानी ममता को ज़िद छोड़नी पड़ी।

−लेकिन रेल बजट पर ममता ने न सिर्फ काफी हद तक बढ़े किराए वापस कराए लेकिन अपना रेलमंत्री भी हटवा लिया। यहां सरकार झुकी।

−रिटेल में एफडीआई पर बहुत दिन तक सरकार ममता के दबाव में रही लेकिन आखिरकार उसने फ़ैसला कर ही लिया।

−ममता बनर्जी, हामिद अंसारी को दोबारा उपराष्ट्रपति बनाए जाने के भी ख़िलाफ़ थीं. लेकिन यहां सरकार ने अपनी चलाई।

−हालांकि, एनसीटीसी और पेंशन बिल को ममता के दबाव में सरकार ने रोक रखा है।

कुछ मामले ऐसे भी हैं जब ममता अपना रुख बदलती रही हैं

- लोकपाल के मसले पर लोकसभा में उन्होंने सरकार का साथ दिया लेकिन राज्यसभा में उसके ख़िलाफ़ खड़ी हो गईं।
- केंद्र में वह तीन कैबिनेट मंत्री बना सकती हैं, लेकिन सौगत राय अकेले कैबिनेट मंत्री हैं
- क्या इसलिए कि वह सरकार को ही नहीं पार्टी को भी अपनी मुट्ठी में रखना चाहती हैं


ममता का गुस्सा
ममता की शख्सियत का एक अहम पहलू उनका गुस्सा है। वह कब किस बात पर नाराज़ हो जाएं कौन जानता है।

अपने नागरिकों से नाराज़

- कार्टून विवाद में ममता बनर्जी के आदेश के बाद अंबिकेश महपात्रा को गिरफ्तार किया गया। फेसबुक पर एक कार्टून आगे बढ़ाना इतना महंगा पड़ेगा ये प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा ने सोचा नहीं होगा। उन्हें बाकायदा जेल की हवा खानी पड़ी।

- एक बच्ची ने ममता बनर्जी से सवा पूछा तो ममता ने उसे माओवादी करार दिया गया। ममता का ये गुस्सा उसके नागरिक झेलते हैं।

अपनी पुलिस से नाराज़

ये मसला कुछ ज़्यादा संवेदनशील है। कोलकाता में दो बच्चों की मां ने अपने साथ बलात्कार का आरोप लगाया तो ममता ने इसे पहले फर्जी कहानी करार दिया। और जब पुलिस ने ये केस सुलझा लेने का दावा किया तो ममता अपनी ही पुलिस से नाख़ुश दिखीं। कोलकाता ममता के इस रुख़ से मायूस दिखा।

लेफ्ट फ्रंट से नाराज़

राज्य में कुछ भी हो उसके पीछे या तो माओवादी होते हैं या लेफ्ट फ्रंट होता है। लेफ्ट फ्रंट जैसे हर वक़्त ममता के निशाने पर रहता है। आख़िर ममता की पूरी राजनीति लेफ्ट के विरोध से परवान चढ़ी है। इसलिए जब कोलकाता के अस्पतालों में बच्चों की मृत्यु की ख़बरें आने लगीं तो भी ममता ने इसके लिए लेफ्ट को ज़िम्मेदार ठहरा दिया।

अपनी टीम से नाराज़ ममता

ममता का गुस्सा सबसे ज़्यादा उसके अपने लोग झेलते हैं। उन्हें लोकपाल बिल को लेकर पहले शोर न मचाने पर दीदी की झिड़की सुननी पड़ती है। रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को तो रेल बजट में उनसे बिना पूछे किराया बढ़ाने की गलती की वजह से रेल मंत्रालय छोड़ना पड़ गया। ऐसी हैं ममता।

सादगी है राज़

ममता बनर्जी की शख्सियत के दूसरे पहलू कहीं ज़्यादा अहम हैं − खासकर उनकी सादगी, आम लोगों तक उनकी पहुंच और जनता से जुड़े मुद्दों पर उनकी दो टूक राय, उन्हें मौजूदा भीड़ से अलग करते रहे हैं।

पश्चिम बंगाल के लिए यह एक ऐतिहासिक घड़ी थी जब ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। 34 साल बाद राज्य किसी गैरवामपंथी सरकार को शपथ लेते देख रहा था। मां माटी और मानुष का नारा देकर ममता ने लेफ्ट फ्रंट को उखाड़ फेंका था।
दरअसल, पिछले कुछ दशकों में ममता बनर्जी अकेली नेता दिखती हैं, जिन्होंने सड़क पर उतर कर एक के बाद एक तीखी राजनीतिक लड़ाइयां लड़ीं।

इतना ही नहीं अपना लक्ष्य तय करने के लिए उन्होंने किसी की मदद लेने से गुरेज़ नहीं किया। कांग्रेस से अलग होने के बाद एनडीए से भी जुड़ीं और फिर कांग्रेस के साथ मिलकर लेफ्ट से लोहा लिया। नंदीग्राम और सिंगूर के मुद्दे को उन्होंने लेफ्ट फ्रंट के लिए जीवन−मरण का सवाल बना डाला।

सिर्फ राजनीतिक पहलकदमी के आधार पर हाल के दिनों में ऐसी शोहरत हासिल करने वाली वह अकेली नेता दिखती हैं। लेकिन, इस जुझारूपन का अपना एक वैचारिक आधार भी रहा है।

− ममता बनर्जी ने बहुत योजनापूर्वक लेफ्ट के मुद्दे उससे छीन लिए।
− उन्होंने बिल्कुल आम जन को छूने वाले मुद्दों की राजनीति की।
− तेल और महंगाई के जिन मुद्दों को कभी लेफ्ट उठाता रहा उन पर वह अपनी ही सरकार से उलझती रहीं।

उनकी अपनी सादगी ने भी उनकी इस राजनीति को साख और विश्वसनीयता दी। साधारण चप्पलों और बिल्कुल सादी साड़ी में लिपटी ठेठ बांग्ला या बांग्ला धज वाली अंग्रेजी बोलने वाली ये नेता अपनी बात लोगों तक पहुंचाने में कामयाब रही। इसलिए नाराज़ हों या ख़ुश ममता पूरे बंगाल की दीदी बनी हुई हैं।

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