विज्ञापन
This Article is From Mar 27, 2015

मणिकर्णिका महाश्मशान में धधकती चिताओं के बीच सजी नगर वधुओं की महफ़िल

वाराणसी : सती के वियोग में कभी भगवान शिव ने तांडव नृत्य किया था। और उस वक़्त यहां सती के कान की मणि गिरी थी। जिससे इसका नाम मणिकर्णिका घाट पड़ गया। इसी मणिकर्णिका घाट पर चैत्र नवरात्री के सप्तमी को नार्तकियों के पांव के घुंघरू रात भर बजते और टूट कर बिखरते रहे।

जिससे महाश्मशान में अपने परिजनों के मृत शरीर को लेकर पहुंचे लोगों के मन के विराग को इन घुंघरूओं की झंकार ज़िन्दगी के राग से भर रही थी। एक तरफ धधकती चिता की लपटें थीं तो दूसरी तरफ तबले की थाप और घुंघरूओं की झंकार मोक्ष की नगरी काशी में मौत पर भी महोत्सव की अपनी पुरानी परम्परा की लौ धधका रही थी। इस परम्परा का ये मौक़ा था हर साल होने वाले महाश्मशान महोत्सव की आखिरी निशा का।

मौत हमेशा अपने साथ मातम का सैलाब ले कर आती है पर काशी में यही मौत बहुतों के लिए मुक्ति का उत्सव भी है। जिसकी बानगी दिखी चैत्र नवरात्रि की सप्तमी के दिन तीन दिन चलने वाले महाश्मशान महोत्सव की आखिरी रात को। शाम सात बजे से ही मणिकर्णिका महाश्‍मशान में एक तरफ जहां दर्जन भर से अधिक चिताएं धधक रही थीं। तो वहीं दूसरी तरफ डोमराज की मढ़ी के नीचे नगर वधुएं मशानेश्वर को रिझाने के लिए घुंघरूओं की झंकार बिखेरने की तैयारी कर रही थी। मंच पर जाने से पहले नृत्यांगना नीतू और उसकी जोड़ीदार ने बाबा के भजन 'बम बम बोल रहा है काशी' के बोल पर अपने नृत्य  से उनकी अराधना की।

इस अराधना के बाद डोमराज की मढ़ी के नीचे मंच पर डेढ़ दर्जन नार्तकियों के पांव के घुंघरूओं ने ऐसा समा बांधा कि धधकती चिताओं के बीच शोक और प्रसन्नता का समन्वय देखते ही बनता था। शव लेकर आए लोग भी इस धारा में बहे बिना न रह सके। और नर्तकियों के लिए तो इस मंच पर आना मनो सबसे बड़ी सौगात हो।

धधकती चिताओं के बीच ये मशान कभी नामी कलाकारों की कला का साक्षी रहा है तो कभी बड़ी मैना, छोटी मैना, रसूलन बाई जैसी नृत्यांगनाएं भी बाबा को रिझाने के लिए घुंघरूओं की झंकार से होड़ किया करती थीं। आज बदले दौर में नृत्य गायन कि वो शास्त्रीय परम्परा भले ही न रही हो पर ठसक में कोई कमी नहीं थी। जहां सभी के मन में बाबा से यही चाह थी कि अगले जन्म में उन्हें ऐसी गति न मिले, वो भी समाज के सामने सर उठा के जिएं।

महाश्‍मशान में उत्सव की इस परम्परा के पीछे एक कहानी भी है। कहते हैं कि पंद्रहवीं शताब्‍दी में आमेर के राजा और अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने इस पौराणिक घाट पर भूत भावन भगवान शिव, जो इस शहर के आराध्‍य देव भी हैं, के मंदिर का जीर्णोधार कराया। और इस मौके पर वो संगीत का कार्यक्रम करना चाहते थे।

लेकिन उस वक़्त कोई भी कलाकार इस मशान में आने कि हिम्मत नहीं कर सका। तब नगर वधुओं को बुलाया गया। इन लोगों ने उस समारोह में बेहिचक शिरकत की। श्मशान घाट पर संगीत की चुनौती को नगर वधुओं द्वारा स्वीकार करने के बाद अब यह धीरे धीरे परंपरा में तब्दील हो गई। यहां नगर वधुओं को काफी सम्मान मिलने लगा और नवरात्री की सप्तमी को सजने लगी इस तरह ये संगीत की महफ़िल।

श्मशान घाट पर सजने वाली संगीत साधना की इस महफ़िल की प्रसिद्धी इतनी हो गई है कि अब तो मुम्बई से बार बालाएं भी यहां आने लगी हैं क्योंकि मान्यता बन गयी है कि जो तवायफ यहां बाबा श्मशान नाथ के दरबार में नृत्य साधना करेगी उसका अगला जन्म इस नारकीय रूप में नहीं होगा और आज भी यहां आना हर नर्तकी अपना सौभाग्य समझती है।

वैसे भी काशी मोक्ष की नगरी मानी जाती है। मान्यता है कि यहां शारीर छोड़ते वक़्त इंसान के कानों में खुद भगवान् शंकर उसे तारक मंत्र सुनाते हैं। जिससे वो जन्‍म मरण के चक्र से छुटकारा पा जाता है। और इसकी ख़ुशी भी शव ले जाते वक़्त रास्ते में नाचते गाते परिजनों और नगाड़ों के ढोल में देखी और सुनी जा सकती है।

मौत पर इस नाच को देख आप चौंक भी सकते हैं। पर काशी के फक्कड़पन में इस तरह की मस्ती आम बात है। और शायद यही फक्कड़पन मोक्ष के अंतिम बिन्दु तक पहुंचाता है। लिहाजा आप कह सकते हैं कि अपने परिजनों की धधकती चिताओं के पास शोकमग्न बैठे लोगों के बीच नगर वधुओं के थिरकते पांव के घुंघरूओं के बोल भी शायद मुक्ति के इसी उत्सव की एक कड़ी हैं।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
मणिकर्णिका घाट, महाश्‍मशान महोत्‍सव, नगरवधु, बनारस, वाराणसी, Maha Shamshan Festival, Manikarnika Ghat, Varanasi, Nagar Vadhu
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com