बिहार में मतदान के दो चरण हो चुके हैं. इन दोनों चरणों के मतदान के रुझान के बाद NDA हो या फिर महागठबंधन दोनों पक्षों के नेताओं ने अपने-अपने गठबंधन के बेहतर प्रदर्शन का दावा किया है. हालांकि इस बार साल 2014 के चुनाव की तुलना में राजनीतिक गणित बिल्कुल अलग है. इस बार नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाईटेड बीजेपी के साथ गठबंधन में है और पिछली बार के बीजेपी के साथी अब लालू यादव की आरजेडी के साथ हैं. बिल्कुल अलहदा बात यह भी है कि बीजेपी इस बार बिहार में उतनी ही सीटों पर चुनाव लड़ रही है जितनी सीटों पर जेडीयू चुनाव मैदान में है. जहां तक प्रचार अभियान की बात है तो जमीन पर एक ही मुद्दा हावी है. जहां मोदी समर्थकों के लिए मोदी को फिर वापस लाना है, वहीं मोदी विरोधियों के लिए मोदी को किसी भी हाल में रोकना है. लेकिन 2014 में एक ही मुद्दा था एक बार मोदी को आजमाकर देखो. बिहार में एनडीए और महागठबंधन के नेता हों या कार्यकर्ता दोनों अपने-अपने पक्ष में जीत की उम्मीद में पीठ थपथपा रहे हैं. हालांकि किसका दावा सही है, इसका पता 23 मई को ही चल पाएगा.
बिहार में हुए मतदान की 10 प्रमुख बातें
- बिहार में ज़मीन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अभी भी अंडर करेंट है. हालांकि NDA के नेता और कार्यकर्ता दोनों मानते हैं कि 2014 की तरह कोई राजनीतिक सुनामी नहीं है, लेकिन एनडीए उम्मीदवारों को जो वोट मिल रहे हैं वो पीएम मोदी की वजह से ही मिल रहे हैं.
- इस चुनाव में एनडीए के साथ एक बार फिर नीतीश के आने का असर भी साफ़ दिख रहा है. एक संसदीय क्षेत्र से दूसरे संसदीय क्षेत्र में अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) वोटों का एनडीए के पक्ष में ध्रुविकरण स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है और हर कोई यह मानता है कि यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमर की वजह से है.
- 2014 की तरह मोदी लहर इस बार नहीं है, लेकिन अगर मोदी का समर्थन है तो महागठबंधन के नेतृत्व में मोदी का विरोध भी दिख रहा है. इसलिए अगर एनडीए में बीजेपी, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान हैं, विपक्षी दलों के पास भी राजद के तेजस्वी यादव, कांग्रेस, उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी और मुकेश निषाद हैं.
- एनडीए का चुनाव प्रचार भी बहुत तेज और व्यवस्थित है. विपक्षी दलों की तरह नहीं जहां तेजस्वी यादव और राहुल गांधी अभी तक एक मंच पर नजर नहीं आए हैं, वहीं नीतीश कुमार बीजेपी के सुशील मोदी और लोजपा के रामविलास पासवान के साथ मंच पर नजर आते हैं और इसका वांछित परिणाम भी शायद दिख रहा है. माना जाता है कि जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ने गया और भागलपुर जैसे शहरी क्षेत्रों में जो कि परंपरागत रूप से बीजेपी का गढ़ माने जाते हैं, अच्छा प्रदर्शन किया है.
- नीतीश को मालूम है कि भाजपा के वोटोरों में उनको लेकर एक अविश्वास का माहौल रहता है. इसलिए जिन विवादास्पद मुद्दों पर गांव देहात में बहस हो उसे उभारने की कोशिश नहीं होती. यही कारण है कि नीतीश ने अपना मैनिफ़ेस्टो जारी करने का कार्यक्रम इस महीने के अंत तक टाल दिया है क्योंकि राम मंदिर, 370, सिटिजनशिप बिल पर उनका स्टैंड भिन्न है लेकिन इसे फ़िलहाल वो तूल नहीं देना चाहते.
- नीतीश कुमार अपने भाषणों में बालाकोट, कश्मीर और आतंकवाद जैसे सभी विवादास्पद विषयों से दूर रहते हैं और अपने 13 वर्षों काम के आधार पर वोट मांगते हैं और तेजस्वी व उनके परिवार को निशाना बनाते हैं.
- विपक्षी दलों के लिए जो राहत की बात है कि 2014 से उलट इस बार यादव-मुस्लिम वोट बैंक एकजुट दिख रहे हैं, साथ ही ऐसा लग रहा है कि कुशवाहा, निषाद और मांझी की पार्टियों के अतिरिक्त वोट भी उनके खाते में जुड़ रहे हैं.
- जब आंतरिक कलह, विद्रोही उम्मीदवारों से निपटने और असंतोष की बात आती है तो इसमें एनडीए ने विपक्षी गठबंधन को मात दी है. भाजपा और जनता दल बांका की पुतुल देवी के एक अपवाद को छोड़कर अपनी पार्टी के अंदर के विरोध को आपसी बातचीत से सुलझा पाने में जितना कामयाब रहे हैं उसकी तुलना में राजद, कांग्रेस या उपेन्द्र कुशवाहा नहीं. केवल एक सीट मिलने से नाराज भूमिहार मतदाताओं के मामले में बीजेपी नेताओं ने तेजी से प्रतिक्रिया दी और सतीश दुबे और सच्चिदानंद राय जैसे विद्रोही नेताओं को विशेष विमान से पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से मिलने भुवनेश्वर ले जाया गया. लेकिन महागठबंधन इसमें पिछड़ गया, जिसकी मिसाल है मधेपुरा और मधुबनी की सीट. जहां एक ओर पप्पू यादव और दूसरी तरफ़ मधुबनी में शकील अहमद और अब अली अशरफ़ फ़ातमी बाग़ी बनकर चुनाव मैदान में हैं. जिसका चुनाव में सीधा फ़ायदा वहां एनडीए प्रत्याशियों को मिल सकता है. बेगूसराय एक और चुनाव क्षेत्र है जहां राजद के उम्मीदवार को लेकर तेजस्वी हमेशा सवालों के घेरे में रहे.
- शुरू में लग रहा था तेजस्वी मुद्दों पर चुनाव को ले जाने में कामयाब रहेंगे लेकिन ज़मीन पर उनके उठाये मुद्दों से ज़्यादा एनडीए की उपलब्धियां जनता की ज़ुबान पर होती हैं.
- वोटों के प्रबंधन में भी एनडीए अपने वरिष्ठ नेताओं के अनुभव और केंद्र और राज्य में सरकार का पूरा फ़ायदा उठा सकती है. जैसे कुशवाहा वोटर के बीच संदेश देने के लिए नीतीश कुमार ने उन दो अधिकारियों के निलम्बन पिछले हफ़्ते वापस ले लिया जिनके ऊपर उनकी ख़ुद की सरकार ने आय से अधिक संपत्ति का मामला शुरू किया था. जबकि नीतीश हमेशा कहते रहते हैं कि भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता और अपराध से कभी समझौता नहीं किया जाएगा.