नई दिल्ली:
हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के साहित्य की सामाजिकता के बाद व्यक्ति के 'निजत्व' की कमी खलने लगी थी, जिसे जैनेंद्र ने पूरी की. इसलिए उन्हें मनोविश्लेषणात्मक परंपरा का प्रवर्तक माना जाता है. वह हिंदी गद्य में 'प्रयोगवाद' के जनक भी थे. जैनेंद्र का जन्म 2 जनवरी, 1905 को अलीगढ़ के कौड़ियागंज गांव में हुआ था.
बचपन में उनका नाम आनंदीलाल था. उनके जन्म के दो वर्ष बाद ही उनके पिता चल बसे. उनका लालन-पोषण उनकी मां और मामा ने किया. जैनेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर में उनके मामा के गुरुकुल में हुई. उनका नामकरण 'जैनेंद्र कुमार' इसी गुरुकुल में हुआ.
हिंदू विश्वविद्यालय से प्राप्त की उच्च शिक्षा
जैनेंद्र ने अपनी उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय से प्राप्त की. वह कुछ समय तक लाला लाजपत राय के 'तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में भी रहे. 1921 में पढ़ाई छोड़कर वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े. उस दौरान ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने लेखन कार्य शुरू किया.
जैनेंद्र ने अपनी रचनाओं में मुख्यपात्र को रूढ़ियों, प्रचलित मान्यताओं और प्रतिष्ठित संबंधों से हटकर दिखाया, जिसकी आलोचना भी हुई. जीवन और व्यक्ति को बंधी लकीरों के बीच से हटाकर देखने वाले जैनेंद्र के साहित्य ने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी.
जैनेंद्र की प्रसिद्ध रचनाएं
जैनेंद्र ने 1929 में अपनी पहली कहानी संग्रह 'फांसी' की रचना की, जिसने इनको प्रसिद्ध कहानीकार के रूप में स्थापित किया. उसके बाद उन्होंने कई उपन्यासों की रचना की. 1929 में 'परख', 1935 में 'सुनीता', 1937 में 'त्यागपत्र' और 1939 में 'कल्याणी' की रचना की. इसके बाद 1930 में 'वातायन', 1933 में 'नीलम देश की राजकन्या', 1934 में 'एक रात', 1935 में 'दो चिड़िया' और 1942 में 'पाजेब' कहानी संग्रह की रचना की.
जैनेंद्र के अन्य महत्वपूर्ण उपन्यासों में 'विवर्त', 'सुखदा', 'व्यतीत', 'जयवर्धन' और 'दशार्क' शामिल हैं. 'प्रस्तुत प्रश्न', 'जड़ की बात', 'पूर्वोदय', 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', 'मंथन', 'सोच-विचार', 'काम और परिवार', 'ये और वे' इनके निबंध संग्रह हैं. जैनेंद्र ने रूस के प्रसिद्ध लेखक लियो टॉलस्टॉय की रचनाओं का अनुवाद भी किया है. 'समय और हम' प्रश्नोत्तर शैली में जैनेन्द्र को समझने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्ववपूर्ण पुस्तक है.
जैनेंद्र को मिल चुके हैं ये सम्ममान
जैनेंद्र को उनकी रचनाओं के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. 1929 में 'परख' उपन्यास के लिए हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 1966 में लघु उपन्यास 'मुक्तिबोध' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. भारत सरकार ने 1974 में उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित किया.
वह पहले ऐसे लेखक हुए, जिन्होंने हिंदी कहानियों को मनोवैज्ञानिक गहराइयों से जोड़ा. हिंदी गद्य की नई धारा शुरू करना सरल कार्य नहीं था. मगर उन्होंने यह कर दिखाया. कहा जा सकता है कि जैनेंद्र हिंदी गद्य को प्रेमचंद युग से आगे ले आए.
हिंदी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी
प्रसिद्ध लेखक रवींद्र कालिया का कहना है कि जैनेंद्र ने हिंदी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी, एक नया तेवर दिया, एक नया 'सिंटेक्स' दिया. आज के हिंदी गद्य पर जैनेंद्र की अमिट छाप है.
अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में गोपाल राय ने लिखा है, "जैनेंद्र के पात्र बने-बनाए सामाजिक नियमों को स्वीकार कर, उनमें अपना जीवन बिताने की चेष्टा नहीं करते, बल्कि उन नियमों को चुनौती देते हैं. यह चुनौती प्राय: उनकी नायिकाओं की ओर से आती है जो उनकी लगभग सभी रचनाओं में मुख्यपात्र भी हैं."
जैनेंद्र ने मनोवैज्ञानिक सत्य पर लाने का प्रयास किया
कई आलोचकों का मानना है कि जैनेंद्र ने कहानी को 'घटना' के स्तर से उठाकर 'चरित्र' और 'मनोवैज्ञानिक सत्य' पर लाने का प्रयास किया. उन्होंने कथावस्तु को सामाजिक धरातल से समेट कर व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक भूमिका पर प्रतिष्ठित किया.
जैनेंद्र के उपन्यासों और कहानियों में 'व्यक्ति की प्रतिष्ठा' हिंदी साहित्य में नई बात थी, जिसने न केवल व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों की नई व्याख्या की, बल्कि व्यक्ति के मन को उचित महत्ता भी दी. जैनेंद्र के इस योगदान को हिंदी साहित्य कभी भुला न पाएगा.
बचपन में उनका नाम आनंदीलाल था. उनके जन्म के दो वर्ष बाद ही उनके पिता चल बसे. उनका लालन-पोषण उनकी मां और मामा ने किया. जैनेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर में उनके मामा के गुरुकुल में हुई. उनका नामकरण 'जैनेंद्र कुमार' इसी गुरुकुल में हुआ.
हिंदू विश्वविद्यालय से प्राप्त की उच्च शिक्षा
जैनेंद्र ने अपनी उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय से प्राप्त की. वह कुछ समय तक लाला लाजपत राय के 'तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में भी रहे. 1921 में पढ़ाई छोड़कर वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े. उस दौरान ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने लेखन कार्य शुरू किया.
जैनेंद्र ने अपनी रचनाओं में मुख्यपात्र को रूढ़ियों, प्रचलित मान्यताओं और प्रतिष्ठित संबंधों से हटकर दिखाया, जिसकी आलोचना भी हुई. जीवन और व्यक्ति को बंधी लकीरों के बीच से हटाकर देखने वाले जैनेंद्र के साहित्य ने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी.
जैनेंद्र की प्रसिद्ध रचनाएं
जैनेंद्र ने 1929 में अपनी पहली कहानी संग्रह 'फांसी' की रचना की, जिसने इनको प्रसिद्ध कहानीकार के रूप में स्थापित किया. उसके बाद उन्होंने कई उपन्यासों की रचना की. 1929 में 'परख', 1935 में 'सुनीता', 1937 में 'त्यागपत्र' और 1939 में 'कल्याणी' की रचना की. इसके बाद 1930 में 'वातायन', 1933 में 'नीलम देश की राजकन्या', 1934 में 'एक रात', 1935 में 'दो चिड़िया' और 1942 में 'पाजेब' कहानी संग्रह की रचना की.
जैनेंद्र के अन्य महत्वपूर्ण उपन्यासों में 'विवर्त', 'सुखदा', 'व्यतीत', 'जयवर्धन' और 'दशार्क' शामिल हैं. 'प्रस्तुत प्रश्न', 'जड़ की बात', 'पूर्वोदय', 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', 'मंथन', 'सोच-विचार', 'काम और परिवार', 'ये और वे' इनके निबंध संग्रह हैं. जैनेंद्र ने रूस के प्रसिद्ध लेखक लियो टॉलस्टॉय की रचनाओं का अनुवाद भी किया है. 'समय और हम' प्रश्नोत्तर शैली में जैनेन्द्र को समझने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्ववपूर्ण पुस्तक है.
जैनेंद्र को मिल चुके हैं ये सम्ममान
जैनेंद्र को उनकी रचनाओं के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. 1929 में 'परख' उपन्यास के लिए हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 1966 में लघु उपन्यास 'मुक्तिबोध' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. भारत सरकार ने 1974 में उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित किया.
वह पहले ऐसे लेखक हुए, जिन्होंने हिंदी कहानियों को मनोवैज्ञानिक गहराइयों से जोड़ा. हिंदी गद्य की नई धारा शुरू करना सरल कार्य नहीं था. मगर उन्होंने यह कर दिखाया. कहा जा सकता है कि जैनेंद्र हिंदी गद्य को प्रेमचंद युग से आगे ले आए.
हिंदी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी
प्रसिद्ध लेखक रवींद्र कालिया का कहना है कि जैनेंद्र ने हिंदी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी, एक नया तेवर दिया, एक नया 'सिंटेक्स' दिया. आज के हिंदी गद्य पर जैनेंद्र की अमिट छाप है.
अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में गोपाल राय ने लिखा है, "जैनेंद्र के पात्र बने-बनाए सामाजिक नियमों को स्वीकार कर, उनमें अपना जीवन बिताने की चेष्टा नहीं करते, बल्कि उन नियमों को चुनौती देते हैं. यह चुनौती प्राय: उनकी नायिकाओं की ओर से आती है जो उनकी लगभग सभी रचनाओं में मुख्यपात्र भी हैं."
जैनेंद्र ने मनोवैज्ञानिक सत्य पर लाने का प्रयास किया
कई आलोचकों का मानना है कि जैनेंद्र ने कहानी को 'घटना' के स्तर से उठाकर 'चरित्र' और 'मनोवैज्ञानिक सत्य' पर लाने का प्रयास किया. उन्होंने कथावस्तु को सामाजिक धरातल से समेट कर व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक भूमिका पर प्रतिष्ठित किया.
जैनेंद्र के उपन्यासों और कहानियों में 'व्यक्ति की प्रतिष्ठा' हिंदी साहित्य में नई बात थी, जिसने न केवल व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों की नई व्याख्या की, बल्कि व्यक्ति के मन को उचित महत्ता भी दी. जैनेंद्र के इस योगदान को हिंदी साहित्य कभी भुला न पाएगा.
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