जब बात छिड़ी हो यायावर यानी घुमक्कड़ी की और साथ में जुड़ा हो 'स्त्री' शब्द तो यह विषय एक विस्तृत चर्चा की मांग करता है. एक स्त्री के घूमने निकल पड़ने और उससे जुड़े अनुभवों से पैदा हुए कई विचारों और सवालों पर नज़र डालता शंपा शाह द्वारा संपादित ‘कथादेश' का विशेषांक 'यायावर स्त्री'. इस विशेषांक में कई महिला लेखकों के यात्रा वृत्तांत शामिल किए गए हैं. इनमें महादेवी वर्मा, फ़हमीदा रियाज़, ममता कालिया, गगन गिल सहित कई लोग शामिल हैं.
पहले शंपा शाह के संपादकीय की बात करते हैं. ‘नानी बा, आज तो असों मन करे के क्याईं चली जाऊं... दूर...' अगर अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ये कड़वा सच हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि जिस देश में लड़ाई स्त्रियों के अस्तित्व की रही हो, वहां स्त्रियों का घुमक्कड़ी करना आसान तो नहीं रहा है. कई बंधनों और तंज़ों की बाढ़ें आती देखी गई हैं. इसके पीछे पुरुषवादी समाज और तथाकथित महान लोगों ने कहीं ज़ोर-जबरदस्ती से काम लिया है और कहीं चालाकी से, कहीं तो इन बंधनों को सही ठहराया है और कहीं कभी न ख़त्म होने वाली एक लंबी चुप्पी साध ली है.
अंक शंपा शाह के अंतर्दृष्टिपूर्ण संपादकीय से शुरू होता है. वे इस बात की ओर ध्यान खींचती हैं कि स्त्रियों की गुलामी तो इतनी संपूर्ण रही है कि उसमें उसका अपना ‘मन' होने का सवाल नहीं उठता, लेकिन फिर भी वे जाग रही हैं, अपने सपने देख रही हैं. इस संपादकीय के दो हिस्से इस सिलसिले में उद्धृत किए जा सकते हैं. एक जगह वे लिखती हैं- ‘दुनिया भर में और हर काल में ऐसी स्त्रियां हुई हैं, जिन्होंने अपने को दोयम दर्जे का या कमतर आंके जाने से इनकार किया है और भयानक लड़ाइयां लड़ी हैं. समाजों ने सुनियोजित ढंग से उनके काम, उनके स्वप्नों, उनकी मेहनत, उनके माद्दे को छुपाया-मिटाया है, ताकि उनका कोई साक्ष्य ही न बन सके. ताकि स्त्रियों की समाज में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक भूमिकाएं लोगों की, बल्कि उनकी अपनी नज़र से ओझल रहें, ताकि यह भ्रम बना रहे कि उनका काम संतति चलाना है और यही वे करती आई हैं.‘
मगर इसके बावजूद स्त्रियां अपनी बौद्धिक-मानसिक ग़ुलामी से लड़ती भी रहीं और बाहर भी आईं. संपादकीय में एक कहानी का ज़िक्र करते हुए इस विषय पर ख़ास ज़ोर दिया गया है कि एक स्त्री का घर के खूंटे से बंधे होना क्या होता है, लेकिन स्त्री अपने मन का क्या करे, मन कहां बंधता है! कहानी का ज़िक्र करते हुए बीच में शंपा शाह स्त्री के प्रति समाज के नज़रिए को दर्शाते-दर्शाते रुकती हैं और लिखती हैं-‘बल के इस विध्वंसक स्वरूप के विस्तार में जाने में यहां मूल विषय से भटके जाने का ख़तरा है, इसलिए फ़िलहाल इस बात को यहीं छोड़ कहानी पर लौटते हैं.'
दरअसल यहां विषय से भटके जाने का ख़तरा नहीं है क्योंकि जड़ में तो यही सब है जिसे कहने से रुका जा रहा है, स्त्रियों के प्रति सोच की अनंत कहानियां जिनके तार आपस में बुरी तरह उलझे हुए जुड़े हैं, क्योंकि जब बात किसी के कहीं दूर निकल जाने पर की जा रही है तो हम यह याद रखें कि उसके पीछे कहीं बहुत देर तक रुक जाने या रोके जाने का इतिहास धंसा हुआ है, एक क़ैद छिपी हुई है जिसे आज़ादी की बू तक का एहसास नहीं है.
अंक का पहला लेख महादेवी वर्मा का है और सहसा हम पाते हैं कि जिसे हम छायावादी कवि कहते थे, वह छायाओं के पार बिल्कुल ठोस यथार्थ तक भी पहुंचती रही हैं. उनका यात्रा वृत्तांत ‘सुई दो रानी' बहुत सूक्ष्मता से रानी कहलाने और सुई मांगने की विडंबना से जुड़ता है और हम पाते हैं किस तरह एक कहानी एक नई नजर जोड़ दे रही है. वे सूक्ष्म नहीं स्थूल को भी देखती हैं और बद्रीनाथ जैसे ऐतिहासिक तीर्थ स्थान के इर्द-गिर्द तमाम तरह की दुर्व्यवस्थाओं का ज़िक्र करते हुए कहती हैं कि हम इस दुर्व्यवस्था के कारणों पर विचार क्यों नहीं करते? फहमीदा रियाज़ की नॉर्वे यात्रा ‘शीशा-ए-दिल (चंद रोज़ नॉर्व में) एक लंबा वृत्तांत है जिसमें सभ्यताओं के कशमकश पर दिलचस्प ढंग से चर्चा मिलती है. नार्वे के बारे में दक्षिण एशियाई मुल्कों की राय और दक्षिण एशियाई मुल्कों के बारे में नार्वे की राय- इन दोनों के बीच एक स्त्री-पुरुष का संवाद, उनकी सहयात्रा- यह सब एक अनूठा माहौल रचते हैं.
अपनी किस्सागोई के लिए मशहूर ममता कालिया का ‘हंगरी का सफ़रनामा' उनके बाक़ी लेखन की तरह ही बहुत दिलचस्प है, जिसमें भूल-चूक, उत्सुकता, उत्साह और पहली विदेश यात्रा की घबराहट सब शामिल हैं- लेकिन स्त्री होने का एहसास नहीं. दिलचस्प ये है कि सफ़र के लिए निकलती स्त्री को उसके बच्चे भी टोकते हैं कि वह सब कुछ भूल न जाए, कहीं कुछ छोड़ न दे, लेकिन जब वह निकल पड़ती है तो फिर सब सहेज लेती है. इसके अलावा अंक में कई महिला लेखकों के यात्रा वृतांत तेज़ दौड़ती और ठहरी हुई नज़रों के बीच के ख़ालीपन को भरते हुए काफ़ी कुछ कह डालते हैं. नवनीता देवसेन, गगन गिल, सारा राय, मनीषा कुलश्रेष्ठ, प्रियंका दुबे, पूर्वा नरेश जैसी अलग-अलग पीढ़ियों की लेखिकाओं ने अपने संस्मरणों से इस अंक को समृद्ध बनाया है.
इन पढ़ी-लिखी महिलाओं की ये यात्राएं अलग-अलग विचारों को जन्म देती हैं. कहीं चिंता है, कहीं उत्सुकता है, कहीं बेचैनी है, तो कहीं बस यात्रा को जीने का एहसास, लेकिन ये तो वो महिलाएं हैं, जिन्होंने बहुत हिम्मत और हौसला दिखाकर किसी न किसी तरह से अपनी आवाज़ को सुने जाने लायक बनाया है. उन महिलाओं का क्या जो घर के बाहर अपनी गली तक भी नहीं झांक सकती. सफ़र तो असल में घर से गली तक झांकने का ही है, लेकिन यह सफ़र इतना लंबा क्यों लगता है? कथादेश के इस विशेषांक के ज़रिए इस मुद्दे की ओर मेरा ख़ास ध्यान गया. लोग भले ही कहते हों कि अब स्थिति पहले जैसी नहीं है, लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी चली सोच इतनी आसानी से ख़त्म नहीं होती, उसकी गूंज रहती है, लंबे समय तक और वो गूंज हल्के स्वर में ही सही लेकिन मौजूद है. स्त्रियों के घुमंतु होने के विचार मात्र को ही हम सबने अपने दिलो-दिमाग पर इतना हावी कर दिया है कि कभी-कभी तो बस ये कहना कि ‘जा रही हूं घूमने'... यह वाक्य ही आज़ादी सा लगता है.
अगर कोई कहे कि स्त्रियों की आज़ादी की यह लड़ाई तो लंबी चलने वाली है, हां... बिल्कुल, लेकिन मैं तो बस यही पूछूंगी कि महिलाओं से जुड़े विषयों पर बातों को हंसी-ठिठोली में टरकाने देने वाला हमारा महान समाज क्या इसे सच में लड़ाई मानता भी है?
मगर उसके मानने न मानने का क्या मतलब है? अगर उसी की मान्यता पर चलना होता तो ये सारे बदलाव कहां आते? इस अंक को देखिए तो पता चलेगा कि लड़कियां समंदर छान रही हैं, पहाड़ों पर चढ़ रही हैं, सात समंदर पार कर रही हैं, अपने मन की भी प्रदक्षिणा कर रही हैं, उनके सपने हैं और उनकी उड़ान नई मंज़िलों की तलाश में है. इस अंक का हासिल यही है- यह घुमक्कड़ औरतें जैसे हाथ बढ़ा कर कह रही हैं- चलो हमारे साथ.
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