नई दिल्ली:
युवा लेखक पुष्यमित्र का नया उपन्यास 'रेडियो कोसी' लगभग भूल चुके त्रासदी को उजागर करता है. लेखक ने बिहार की कोसी नदी तटबंध के अंदर रह रहे लाखों लोगों को विषय बनाया है, उन्हें हर कोई भूल चुका है. अपना देश, अपना राज्य, अपना समाज हर कोई-यह भयावह सत्य है. त्रासदी को थोड़ी बहुत आवाज मिली, जब 2008 की भयानक बाढ़ आई. उसके भी पीछे का कारण यह था कि तटबंध के बाहरी इलाके को भी कोसी ने अपने जबड़े में जकड़ लिया था.
उपन्यास के नायक और नायिका प्रहलाद और दीपा हैं. दोनों रेडियो के माध्यम से अलग थलग पड़े समाज में सूचना क्रांति लाते हैं, लेकिन बाजारीकरण के दौर में कोई भी अछूता नहीं हैं फलस्वरूप उनके द्वारा चलाए गए रेडियो प्रोग्राम को अवैध घोषित कर दिया जाता है. फिर यहीं से शुरू होता है प्रशासनिक अत्याचार का दौड़.
लेखक का कोई धर्म नहीं होता: नासिरा शर्मा
उपन्यास प्रश्न के साथ ही खत्म हो जाता है. 'रेडियो कोसी' का सबसे बड़ा सवाल है कि विकास किसके लिए हो रहा है और विकास के नाम पर विस्थापित लोगों के लिए सरकार और समाज का सरोकार क्या है? विकास के नाम पर बने कोसी बांध का विकास से दूर-दूर का नाता भी नहीं है. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बड़े बांधों को आधुनिक भारत का मंदिर कहा था. यहां तक कि नेहरू ने हीराकुंड बांध के निर्माण के दौरान विस्थापित लोगों को भावुकता पूर्ण भाषण में समझाया था कि देशहित में आपको बलिदान देना ही होगा.
सबसे बड़ा सवाल है कि बदले में देश से उन्हें क्या मिलता है : मुट्ठी भर आश्वासन और आवाज उठाने पर प्रशासनिक कहर. लेखक ने उपन्यास भूमिका में ही कोसी बांध के औचित्य पर सवाल उठाए हैं. तथ्यों के आधार पर वे बांध के बनाए जाने वाले कारणों को बेमानी साबित करते हैं.
यदि पाठक कोसी के इलाके के हैं तो पढ़ने का अपना आनंद है : सहरसा है, महिषी है, कारू-खिरहर है-उनको लगेगा कि सिनेमा चल रहा है. नायिका का निष्कपट प्रेम है, जो कि अमीरी गरीबी के परे है. अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने की जिद भी है और प्रकृति से अपना प्रेम भी. उपन्यास नौकरी की तलाश में पंजाब, दिल्ली, गुजरात की ओर पलायन को भी दर्शाता है.
उपन्यास की अपनी कमजोरी भी है. उपन्यास में कुछ और पन्ने जुड़ने चाहिए थे. फलक थोड़ा बड़ा होना चाहिए था.
कहीं-कहीं लेखक अपने अंदर के पत्रकार को अपने लेखनी पर हावी होने देते हैं. अमिताभ घोष अपनी नई रचना 'द ग्रेट डिऐरेजमेंट' में पर्यावरण के साथ हो रहे छेड़छाड़ पर चेतावनी देते हैं. यह किताब अपनी विचारोत्तेजना के कारण दुनिया भर में प्रसिद्ध हुआ है. उसी समय पुष्यमित्र की 'रेडियो कोसी' ने लोगों को स्मृति पटल से लगभग भुला दिए गए तटबंध के अंदर के लाखों बेबस लोगों की कहानी को दुनिया के सामने लाकर बहुत बड़ा काम किया है.
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उपन्यास के नायक और नायिका प्रहलाद और दीपा हैं. दोनों रेडियो के माध्यम से अलग थलग पड़े समाज में सूचना क्रांति लाते हैं, लेकिन बाजारीकरण के दौर में कोई भी अछूता नहीं हैं फलस्वरूप उनके द्वारा चलाए गए रेडियो प्रोग्राम को अवैध घोषित कर दिया जाता है. फिर यहीं से शुरू होता है प्रशासनिक अत्याचार का दौड़.
लेखक का कोई धर्म नहीं होता: नासिरा शर्मा
उपन्यास प्रश्न के साथ ही खत्म हो जाता है. 'रेडियो कोसी' का सबसे बड़ा सवाल है कि विकास किसके लिए हो रहा है और विकास के नाम पर विस्थापित लोगों के लिए सरकार और समाज का सरोकार क्या है? विकास के नाम पर बने कोसी बांध का विकास से दूर-दूर का नाता भी नहीं है. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बड़े बांधों को आधुनिक भारत का मंदिर कहा था. यहां तक कि नेहरू ने हीराकुंड बांध के निर्माण के दौरान विस्थापित लोगों को भावुकता पूर्ण भाषण में समझाया था कि देशहित में आपको बलिदान देना ही होगा.
सबसे बड़ा सवाल है कि बदले में देश से उन्हें क्या मिलता है : मुट्ठी भर आश्वासन और आवाज उठाने पर प्रशासनिक कहर. लेखक ने उपन्यास भूमिका में ही कोसी बांध के औचित्य पर सवाल उठाए हैं. तथ्यों के आधार पर वे बांध के बनाए जाने वाले कारणों को बेमानी साबित करते हैं.
यदि पाठक कोसी के इलाके के हैं तो पढ़ने का अपना आनंद है : सहरसा है, महिषी है, कारू-खिरहर है-उनको लगेगा कि सिनेमा चल रहा है. नायिका का निष्कपट प्रेम है, जो कि अमीरी गरीबी के परे है. अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने की जिद भी है और प्रकृति से अपना प्रेम भी. उपन्यास नौकरी की तलाश में पंजाब, दिल्ली, गुजरात की ओर पलायन को भी दर्शाता है.
उपन्यास की अपनी कमजोरी भी है. उपन्यास में कुछ और पन्ने जुड़ने चाहिए थे. फलक थोड़ा बड़ा होना चाहिए था.
कहीं-कहीं लेखक अपने अंदर के पत्रकार को अपने लेखनी पर हावी होने देते हैं. अमिताभ घोष अपनी नई रचना 'द ग्रेट डिऐरेजमेंट' में पर्यावरण के साथ हो रहे छेड़छाड़ पर चेतावनी देते हैं. यह किताब अपनी विचारोत्तेजना के कारण दुनिया भर में प्रसिद्ध हुआ है. उसी समय पुष्यमित्र की 'रेडियो कोसी' ने लोगों को स्मृति पटल से लगभग भुला दिए गए तटबंध के अंदर के लाखों बेबस लोगों की कहानी को दुनिया के सामने लाकर बहुत बड़ा काम किया है.
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