प्रतीकात्मक तस्वीर
नई दिल्ली:
भारतीय सेना द्वारा 50 हजार जीवन रक्षक बुलेटप्रूफ जैकेटों की खरीद से जुड़े 120 करोड़ रुपये के कॉन्ट्रैक्ट को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाने के कारण अब सेना के अधिकारियों और जवानों को अपनी जरूरत से आधे से भी कम बुलेटप्रूफ जैकेटों से काम चलाना पड़ेगा। आपको बता दें कि सेना को करीब 3.5 लाख बुलेटप्रूफ जैकेटों की आवश्यकता है और इसमें भारी कमी को साल 2009 में ही जाहिर कर दिया गया था।
NDTV को पता चला है कि रक्षा मंत्रालय ने दो भारतीय कंपनियों को चिन्हित कर और उनके साथ कीमत भी तय कर ली थी ताकि 50 हजार बुलेटप्रूफ जैकेटों की आपात अंतरिम खरीद की जा सके, लेकिन करीब 5 महीने बीत जाने के बाद भी कॉन्ट्रैक्ट साइन नहीं हो सके।
दो कंपनियां, कानपुर आधारित एमकेयू और टाटा एडवांस मैटेरियल्स जिन्हें 25-25 हजार बुलेटप्रूफ जैकेटों की आपूर्ति करनी थी, दोनों ने सौदे के लिए अंतिम बातचीत के बाद औपचारिक पत्र सौंप दिए थे। लेकिन कॉन्ट्रैक्ट साइन होने में देरी को लेकर उन्हें किसी भी तरह की का कोई ब्योरा नहीं दिया गया। एक बुलेटप्रूफ जैकेट की कीमत 24000 रुपये तय हुई थी।
रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के दिसंबर में संसद में बयान देने के बावजूद सेना मुख्यालय से देर हो रही है। पर्रिकर ने कहा था, 'वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (वीसीओएएस) की वित्तीय शक्तियों में एक बार के लिए छूट दी गई है ताकि 50 हजार बुलेटप्रूफ जैकेटों की खरीद की जा सके।' इसका मतलब था कि सेना सरकार के उपलब्ध आंतरिक फंड का उपयोग ऑर्डर देने के लिए कर सकती थी। तीन महीने के बाद भी बुलेटप्रूफ जैकेटों की खरीद से जुड़ी फाइल एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर तक घूमती रही क्योंकि सेना चाहती थी कि कॉन्ट्रैक्ट में किसी भी तरह की कोई खामी ना रह जाए।
यह आश्चर्यजनक है कि तत्काल अधिग्रहण के मामले में खरीद को अंतिम रूप देने में इतनी देर हो रही है। इसका सीधा मतलब है कि युद्ध की स्थिति में अग्रिम पंक्ति में तैनात सेना के अधिकारियों और सैनिकों को भयानक स्थिति का सामना करना पड़ेगा क्योंकि बुलेटप्रूफ जैकेट जंग के मैदान में तैनात हर सैनिक के बेसिक किट का हिस्सा माने जाते हैं।
खरीद में हो रही इस देरी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भारतीय सेना में इनफैंट्री के पूर्व डायरेक्टर जनरल लेफ्टिनेंट जनरल शंकर प्रसाद (रिटायर्ड) ने एनडीटीवी से कहा, 'मैं हैरान हूं।' आपकी तरह ही एक पत्रकार ने 2001 में मुझसे यही सवाल पूछा था जब मैं सेना में था। और मेरी रिटायरमेंट के 14 साल बाद भी इसी सवाल का जवाब देना दयनीय है कि भारतीय इनफैंट्री आज भी बेसिक बुलेटप्रूफ जैकेट से महरूम है।'
50000 बुलेटप्रूफ जैकेटों की तत्काल आधार पर खरीद का फैसला इसलिए लेना पड़ा क्योंकि सेना की कुल जरूरतों को पूरा करने के लिए 1.86 लाख बुलेटप्रूफ जैकेटों का ऑर्डर अस्तित्व में नहीं आ सका क्योंकि पिछले साल सेना के ट्रायल में कोई भी प्रतिभागी खरा नहीं उतर सका। सेना के अनुसार 4 प्रतिभागियों में से केवल एक ही ट्रायल का पहला राउंड पार कर सका। ट्रायल में जैकेटों को .30 कैलिबर की कवचभेदी गोलियों के सामने अलग अलग परिस्थितियों में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करना था। जिस उत्पादक ने पहला राउंड पार किया था वो अगले दौर में फेल हो गया।
इस ऑर्डर की शर्तों को पूरा करने वालों में से कुछ जांच के तरीकों से नाखुश हैं। वे जोर देकर कहते हैं कि अगर ट्रायल में उन्हें सेना की अपेक्षाओं के बारे में ज्यादा साफ तरीके से बता दिया गया होता तो वे अंतरराष्ट्रीय स्तर के बुलेटप्रूफ जैकेट के लिए सेना की जरूरतों को आसानी से पूरा कर सकते थे। ट्रायल में नाकाम रहने वाले एक वेंडर के मुताबिक सेना ने यूनाइटेड स्टेट्स नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ जस्टिस (NIJ) के लेवल 4 ब्यौरों को बदल दिया और ट्रायल प्रोसेस में 'अजीब कार्य पद्धति' का इस्तेमाल किया। उन्होंने जोर देकर कहा कि सेना द्वारा ज्यादा पारदर्शिता बरतने से यह सुनिश्चित हो सकता था कि बुलेटप्रूफ जैकेट के उत्पादनकर्ता जरूरत के स्तर या फिर उससे बेहतर प्रोडक्ट के साथ आते।
एनआईजी लेवल 4 के स्तर के जैकेट हासिल करने में नाकाम रहने का मतलब हुआ कि 50,000 जैकेटों के ऑर्डर में सेना को मौजूदा जैकेटों के मुकाबले सेना को कम प्रतिरोधक जैकेट लेना होगा। पिछले साल के नाकाम ट्रायल से यह बात भी साफ हुआ कि सेना को बाकी के 1.3 लाख जैकेटों के लिए गुणात्मक जरूरत को दोबारा तय करना होगा और फिर से ट्रायल करना होगा, वेंडर छांटने होंगे, उनसे बातचीत करनी होगी और तब संभवत: कॉन्ट्रैक्ट साइन करना होगा। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अब तक काफी धीमा रही है। लेफ्टिनेंट जनरल प्रसाद कहते हैं, आज भी ऐसे उपकरण जो जीवन रक्षक हैं, उनके अभाव में अपने लड़कों को मरते देखने से ज्यादा मेरे लिए गुस्से की कोई और वजह नहीं है। क्या बुलेटप्रूफ जैकेट खरीदना इतना बड़ा काम है? यह एक कड़वी हकीकत है कि सरकार ने साल 2009 में स्वीकार किया कि सेना को 1.86 लाख बुलेटप्रूफ जैकेटों की जरूरत है, लेकिन 2016 तक ऐसा कोई जैकेट उपलब्ध नहीं हो पाया है।
NDTV को पता चला है कि रक्षा मंत्रालय ने दो भारतीय कंपनियों को चिन्हित कर और उनके साथ कीमत भी तय कर ली थी ताकि 50 हजार बुलेटप्रूफ जैकेटों की आपात अंतरिम खरीद की जा सके, लेकिन करीब 5 महीने बीत जाने के बाद भी कॉन्ट्रैक्ट साइन नहीं हो सके।
दो कंपनियां, कानपुर आधारित एमकेयू और टाटा एडवांस मैटेरियल्स जिन्हें 25-25 हजार बुलेटप्रूफ जैकेटों की आपूर्ति करनी थी, दोनों ने सौदे के लिए अंतिम बातचीत के बाद औपचारिक पत्र सौंप दिए थे। लेकिन कॉन्ट्रैक्ट साइन होने में देरी को लेकर उन्हें किसी भी तरह की का कोई ब्योरा नहीं दिया गया। एक बुलेटप्रूफ जैकेट की कीमत 24000 रुपये तय हुई थी।
रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के दिसंबर में संसद में बयान देने के बावजूद सेना मुख्यालय से देर हो रही है। पर्रिकर ने कहा था, 'वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (वीसीओएएस) की वित्तीय शक्तियों में एक बार के लिए छूट दी गई है ताकि 50 हजार बुलेटप्रूफ जैकेटों की खरीद की जा सके।' इसका मतलब था कि सेना सरकार के उपलब्ध आंतरिक फंड का उपयोग ऑर्डर देने के लिए कर सकती थी। तीन महीने के बाद भी बुलेटप्रूफ जैकेटों की खरीद से जुड़ी फाइल एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर तक घूमती रही क्योंकि सेना चाहती थी कि कॉन्ट्रैक्ट में किसी भी तरह की कोई खामी ना रह जाए।
यह आश्चर्यजनक है कि तत्काल अधिग्रहण के मामले में खरीद को अंतिम रूप देने में इतनी देर हो रही है। इसका सीधा मतलब है कि युद्ध की स्थिति में अग्रिम पंक्ति में तैनात सेना के अधिकारियों और सैनिकों को भयानक स्थिति का सामना करना पड़ेगा क्योंकि बुलेटप्रूफ जैकेट जंग के मैदान में तैनात हर सैनिक के बेसिक किट का हिस्सा माने जाते हैं।
खरीद में हो रही इस देरी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भारतीय सेना में इनफैंट्री के पूर्व डायरेक्टर जनरल लेफ्टिनेंट जनरल शंकर प्रसाद (रिटायर्ड) ने एनडीटीवी से कहा, 'मैं हैरान हूं।' आपकी तरह ही एक पत्रकार ने 2001 में मुझसे यही सवाल पूछा था जब मैं सेना में था। और मेरी रिटायरमेंट के 14 साल बाद भी इसी सवाल का जवाब देना दयनीय है कि भारतीय इनफैंट्री आज भी बेसिक बुलेटप्रूफ जैकेट से महरूम है।'
50000 बुलेटप्रूफ जैकेटों की तत्काल आधार पर खरीद का फैसला इसलिए लेना पड़ा क्योंकि सेना की कुल जरूरतों को पूरा करने के लिए 1.86 लाख बुलेटप्रूफ जैकेटों का ऑर्डर अस्तित्व में नहीं आ सका क्योंकि पिछले साल सेना के ट्रायल में कोई भी प्रतिभागी खरा नहीं उतर सका। सेना के अनुसार 4 प्रतिभागियों में से केवल एक ही ट्रायल का पहला राउंड पार कर सका। ट्रायल में जैकेटों को .30 कैलिबर की कवचभेदी गोलियों के सामने अलग अलग परिस्थितियों में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करना था। जिस उत्पादक ने पहला राउंड पार किया था वो अगले दौर में फेल हो गया।
इस ऑर्डर की शर्तों को पूरा करने वालों में से कुछ जांच के तरीकों से नाखुश हैं। वे जोर देकर कहते हैं कि अगर ट्रायल में उन्हें सेना की अपेक्षाओं के बारे में ज्यादा साफ तरीके से बता दिया गया होता तो वे अंतरराष्ट्रीय स्तर के बुलेटप्रूफ जैकेट के लिए सेना की जरूरतों को आसानी से पूरा कर सकते थे। ट्रायल में नाकाम रहने वाले एक वेंडर के मुताबिक सेना ने यूनाइटेड स्टेट्स नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ जस्टिस (NIJ) के लेवल 4 ब्यौरों को बदल दिया और ट्रायल प्रोसेस में 'अजीब कार्य पद्धति' का इस्तेमाल किया। उन्होंने जोर देकर कहा कि सेना द्वारा ज्यादा पारदर्शिता बरतने से यह सुनिश्चित हो सकता था कि बुलेटप्रूफ जैकेट के उत्पादनकर्ता जरूरत के स्तर या फिर उससे बेहतर प्रोडक्ट के साथ आते।
एनआईजी लेवल 4 के स्तर के जैकेट हासिल करने में नाकाम रहने का मतलब हुआ कि 50,000 जैकेटों के ऑर्डर में सेना को मौजूदा जैकेटों के मुकाबले सेना को कम प्रतिरोधक जैकेट लेना होगा। पिछले साल के नाकाम ट्रायल से यह बात भी साफ हुआ कि सेना को बाकी के 1.3 लाख जैकेटों के लिए गुणात्मक जरूरत को दोबारा तय करना होगा और फिर से ट्रायल करना होगा, वेंडर छांटने होंगे, उनसे बातचीत करनी होगी और तब संभवत: कॉन्ट्रैक्ट साइन करना होगा। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अब तक काफी धीमा रही है। लेफ्टिनेंट जनरल प्रसाद कहते हैं, आज भी ऐसे उपकरण जो जीवन रक्षक हैं, उनके अभाव में अपने लड़कों को मरते देखने से ज्यादा मेरे लिए गुस्से की कोई और वजह नहीं है। क्या बुलेटप्रूफ जैकेट खरीदना इतना बड़ा काम है? यह एक कड़वी हकीकत है कि सरकार ने साल 2009 में स्वीकार किया कि सेना को 1.86 लाख बुलेटप्रूफ जैकेटों की जरूरत है, लेकिन 2016 तक ऐसा कोई जैकेट उपलब्ध नहीं हो पाया है।
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