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This Article is From Mar 22, 2015

याद-ए-बिस्म्मिल्लाह : उस्ताद की जन्म शताब्दी पर हुए कई कार्यक्रम

वाराणसी : 21 मार्च को उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के जन्म दिन पर उनके अपने शहर बनारस में सुर, लय और ताल के साथ उनके प्रिय वाद्य यंत्र शहनाई की धुनों के बीच उनके चाहने वाले और कलाकारों ने उन्हें याद करते हुए उनका जन्म दिन मनाया।

सुबह अस्सी घाट पर गंगा आरती उस्ताद के नाम रही, तो हमेशा से बनारस में गंगा-जमुनी तहजीब के वाहक रहे उस्ताद के जन्म दिन पर आरती के बाद वैदिक मंत्रोच्चार हुआ फिर शहनाई ने वो धुन छेड़ी, जो उस्ताद वर्षों तक गंगा के किनारे बैठ कर सुनाया करते थे। ये धुन थी "गंगा द्वारे बधाईयां बाजे"। इसके बाद तो सुबहे बनारस का पूरा नज़ारा उस्ताद की यादों में लिपटा दिखा।

उस्ताद बिस्म्मिल्लाह खान को बनारस की बालूशाही मिठाई बहुत पसंद थी, लिहाजा जन्म दिन के मौके पर बड़े से बालूशाही को केक का शक्ल देकर काटा गया। उस्ताद की मानस पुत्री सोमा घोष ने उनके साथ बनारस घराने के जिन गीतों के साथ कभी जुगलबन्दी की थी, उसकी प्रस्तुति की।

सुबह के इस कार्यक्रम के बाद अस्सी घाट के इसी मंच पर शाम को एक बार फिर महफ़िल जुटी, जिसमें सबसे पहले सात शहनाई के सुर के बीच दीप प्रज्वलन हुआ। उसके बाद बनारस के अलग-अलग कलाकारों ने अपने राग के जरिये उस्ताद को जन्म दिन की बधाई दी। इस मौके पर तबले और सितार की भी जुगलबंदी हुई, जिसमें तबले पर उस्ताद के साथ बजाने वाले उनके अपने बेटे नाजिम हुसैन थे, तो सितार पर पंडित शिवनाथ मिश्र और देवव्रत मिश्र थे।

बात उस्ताद बिस्म्मिल्लाह के जन्म दिन की हो और उनकी विरासत सहेजे उनके बेटे जामिन हुसैन बिस्म्मिल्लाह की शहनाई न गूंजे ये कैसे हो सकता था। लिहाजा उनके बेटे ने सबसे पहले गंगा के द्वार पर उस्ताद का वही धुन छेड़ा, जो उस्ताद गंगा को सुनाया करते थे और बदले में गंगा ने भी उनके सुरों में अपनी मिठास घोली थी।

कार्यक्रम में उस्ताद बिस्म्मिल्लाह के जन्म से लेकर उनके संगीत के सफर पर आधारित एक लघु फिल्म भी दिखाई गई। इस अवसर पर बनारस के लगभग सभी संगीतज्ञ उपस्थित थे, जिन्होंने कभी ड्योढ़ी के बाहर बजने वाले वाद्य यंत्र को अपनी फूंक से इतनी ऊंचाई दी कि वो आज लोगों के घरों के आंगन की शोभा बन गई है। पर ऐसे वाद्य यंत्र का किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में न होने का अफ़सोस ज़रूर नज़र आया। शास्त्रीय गायक पंडित राजेश्वर आचार्या ने कहा कि ये अफ़सोस की बात है कि जिस वाद्य यंत्र को बिस्म्मिल्लाह इतनी ऊंचाई पर ले गए थे, वो आज आज किसी भी यूनिवर्सिटी में सिखाई नहीं जाती।

बहरहाल सरकारें भले न ध्यान दे, लेकिन उस्ताद तो लोगों के दिलों पर राज करते थे। वो बनारस के कण-कण में रचे-बसे थे, लिहाजा उनके अपने शहर बनारस ने उन्हें जन्म दिन पर न सिर्फ बधाईयां दीं, बल्कि जम कर उनकी याद में जिया भी।  आज उस्ताद भले ही हमारे बीच नहीं है पर वो अपनी शहनाई हमारे पास छोड़ गए हैं, जिससे निकलने वाली हर धुन हमारे आसपास हमारे अपने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के होने का एहसास कराती हैं

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