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This Article is From Jan 25, 2015

परमाणु करार पर अब भी कतरा सकती हैं अमेरिकी कंपनियां

परमाणु करार पर अब भी कतरा सकती हैं अमेरिकी कंपनियां
बराक ओबामा और पीएम नरेंद्र मोदी
नई दि्ल्ली:

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान भारत-अमेरिका परमाणु करार को पूरी तरह लागू करने में 'अड़चनों' को दूर कर लिया गया है। ऐसा दावा किया जा रहा है और कहा जा रहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए भारत की ओर एक और कदम बढ़ाया है ताकि एटमी डील को पूरी तरह क्रियान्वित किया जा सके लेकिन सवाल अब भी बना है कि अमेरिकी कंपनियां क्या भारत के साथ हो रही सौदेबाज़ी में अपना नुकसान तो नहीं देख रही हैं।

भारत-अमेरिका परमाणु करार एटमी ऊर्जा के लिये हुआ था ताकि भारत अपने परमाणु संयंत्रों में यूरेनियम के इस्तेमाल से बिजली बनाए, इन संयंत्रों का इस्तेमाल देश की तरक्की में हो।

भारत के साथ अमेरिकी करार मुमकिन करने के लिए अमेरिका ने अपने संविधान की अड़चनों को पार करने के लिए दिसंबर 2006 में एक कानून पास करवाया जिसे हाइड एक्ट कहा जाता है। इसके बाद परमाणु करार तो हो गया, लेकिन भारत के दो दर्जन से अधिक रियेक्टर परमाणु संयंत्रों की चौकीदारी करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन आईएईए की निगरानी में हैं। दुनिया के कई देश भारत को अब भी यूरेनियम की सप्लाई नहीं कर रहे है।

भारत के सामने फिलहाल परमाणु बिजलीघरों को चलाने के लिए दो मुख्य दिक्कतें हैं।
1) परमाणु ईंधन यानी यूरेनियम की सप्लाई
2) न्यूक्लियर रियेक्टर यानी परमाणु भट्टियों की खरीद

अमेरिका चाहता था कि वह जो यूरेनियम भारत को सप्लाई करे उसके इस्तेमाल से लेकर री-साइकिलिंग स्टेज तक हर वक्त उसकी निगरानी का अधिकार भी उसे दिया जाये। भारत का तर्क है कि आईएईए पहले ही निगरानी कर रहा है और ईंधन देने के बाद अमेरिका की निगरानी करना अनावश्यक है। इस बिंदु पर कहा जा रहा है कि अमेरिका राष्ट्रपति ओबामा ने अपनी ताकत का इस्तेमाल कर भारत को ये भरोसा दे दिया है अमेरिका संयंत्रों में इस्तेमाल हो रहे यूरेनियम की निगरानी की मांग नहीं करेगा। इसे भारत के लिहाज से बड़ी उपलब्धि कहा जा रहा है।

दूसरा सवाल, परमाणु बिजलीघरों के लिए भट्टियां खरीदने का है। साल 2010 में बना भारत का न्यूक्लियर लाइबिलिटी कानून कहता है कि अगर परमाणु बिजलीघर में कोई हादसा होता है और परमाणु रियेक्टर में कोई खोट इसके लिए ज़िम्मेदार है तो इन परमाणु भट्टियों को सप्लाई करने वाली कंपनी से भी मुआवज़े की मांग की जा सकती है। अमेरिकी कंपनियां भारतीय कानून के इस क्लॉज को मानने को तैयार नहीं हैं।

भारत और अमेरिका के वार्ताकारों के बीच पिछले दिनों इस मुताल्लिक़ कई दौर की बात हुई। कहा जा रहा है कि अब मुआवज़े की राशि को लेकर एक वृहद फंड बनाने की बात हुई है। भारतीय बीमा कंपनियों की मदद से कोई 750 करोड़ का एक फंड बनेगा जिसमें इतनी ही राशि भारत सरकार भी जमा करेगी ताकि हादसा होने की स्थिति में प्रभावितों के लिए राशि का इंतज़ाम हो सके, लेकिन सवाल उठ रहा है कि क्या ऐसा फंड बनाने से भारतीय जनता का पैसा मुआवज़े के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा? इस बारे में अभी सरकार ने कोई ब्लूप्रिंट आधिकारिक रूप से नहीं बताया है, लेकिन एक सवाल ये है कि क्या भारत बीमा कंपनियों के लिए इसके आर्थिक बोझ को झेलना मुमकिन होगा?

जानकार कहते हैं कि भले ही इस मामले में दोनों सरकारों के स्तर पर एक कामयाबी हासिल कर ली गई हो तो भी अमेरिकी कंपनियां भारत को परमाणु रियेक्टर बेचेंगी इसमें शक है, क्योंकि इन भट्टियों को बेचते वक्त उन्हें मुआवज़े के लिए प्रीमियम का कुछ हिस्सा ज़रूर देना पड़ेगा। ऐसे में अमेरिकी कंपनियों को अगर लगा कि सौदे की कीमत काफी ऊंची हो रही है तो वह पीछे हट सकती हैं।

वैसे ये बात भी समझने की है कि रूस और फ्रांस जैसे देश भारत के लाइबिलिटी कानून से खुश न होने बावजूद हमें परमाणु रियेक्टर बेचने को तैयार हैं। फिर हम अमेरिकी कंपनियों से रियेक्टर खरीदने के लिए दबाव क्यों झेल रहे हैं। इसकी वजह ये भी है कि अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार के कुछ समझौते और भी हुए हैं जिनके तहत भारत को अमेरिका से अगले कुछ सालों में दस हज़ार मेगावॉट के परमाणु उपकरण खरीदने हैं। इसी से सवाल उठ रहा है कि अगर कंपनियां भारत को परमाणु रियेक्टर नहीं बेचेंगी तो क्या डॉ मनमोहन सिंह सरकार के वक्त हुई डील अधूरी रह जाएगी।

राजनीतिक रूप से भी सरकार को इस पर प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि वामपंथी पार्टियां तो पहले से खुलकर इसका विरोध कर रही हैं कुछ सवाल कांग्रेस और दूसरी पार्टिंया भी उठाएंगी। यूपीए सरकार के वक्त जिस तरह से एक मज़बूत लाइबिलिटी कानून के लिए बाकी दलों के साथ बीजेपी ने भी संसद में आवाज़ उठाई थी इससे इस मुद्दे का गरमाना तय है।

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