बिहार में आए तूफान की तबाही झेल रहे एक किसान गिरीन्द्र का मार्मिक ब्लॉग, रवीश कुमार की जुबानी
किसान गिरीन्द्र का पूरा ब्लॉग पढ़ें
मैं गिरीन्द्र। दो साल पहले तक दिल्ली और कानपुर में खबरों की दुनिया में रमा रहने वाला एक शख्स, जिसके लिए खबर की दुनिया ही रोजी रोटी थी, लेकिन उसके भीतर अपना एक गांव था, जिसमें रेणु की एक बस्ती थी...उनका मैला आंचल था...परती परिकथा थी।
उसी गांव ने मुझे महानगरीय जीवन से कोसों दूर अपनी परती जमीन की ओर ले जाने का काम किया और पेशे से पत्रकार गिरीन्द्र पहुंच गया सूबा बिहार के पूर्णिया जिला। अपने गाम-घर। खेती बारी करने। वही पूर्णिया जिला, जो इन दिनों तूफान की तबाही के कारण आप लोगों के जेहन में है। जहां के बारे में फणीश्वर नाथ रेणु कहते थे- आवरन देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैय्या रहे चदरवा तान.. । यह सब एक झटके में नहीं हुआ था, इसके पीछे मन से हमने पांच साल तक लड़ाई लड़ी। तब जाकर मन राजी हुआ, गांव लौटने के लिए।
अब तो किसानी करते हुए दो साल हो गए हैं, मतलब कुल जमा 730 दिन। गिनती के इन दिनों में हमने ढेर सारे उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन साल 2015 मेरे जैसे किसानी कर रहे लोगों की परीक्षा ले रहा है। मार्च के अंत में हमने बिन मौसम बारिश का तांडव देखा। गेंहू और सरसों की फसलों को आंखों के सामने तबाह होते देखा, लेकिन पिछले मंगलवार को यानी 21 अप्रैल को प्रकृति की मार ने हमारी रही सही कमर भी तोड़ दी।
तूफान की चपेट में हमने सब कुछ गंवा दिया। मक्का की फसल चौपट हो गई। कहते हैं कि पूर्णिया जिले में घासफूस के घर में रहने वाले किसान मक्का की फसल से पक्का मकान का सफर तय करते हैं। खूब आमदनी होती है इसकी खेती से, लेकिन वक्त के आगे किसी की नहीं चलती है।
मंगल की रात आधे घंटे का तूफान ने हमारी जिंदगी को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है, जिसके आगे घुप्प अंधेरा है। पिछले चार दिनों से बिजली हमसे दूर है। बिजली जो रोशनी देती है, वह भी हमसे दूर हो गई है। पता नहीं किसानी की किस्मत का गणित जोड़ घटाव करते हुए कैसे सब कुछ बांट देता है। गणित के उस सवाल की तरह जिसमें भाग करते हुए हमारे हिस्से में केवल शून्य ही नसीब होता है। शायद यही जीवन है। किसानी करते हुए हमने जीवन का इतना उलझा गणित नहीं देखा था।
कल तक जिस खेत में मक्के का जवान पौधा अपनी जवानी पर इठला रहा था, उसे हमने अपनी नजरों के आगे धरती मैया के गोद में रोते बिलखते देखा। खेती करते हुए हमने जाना कि हर फसल हमारे लिए संतान है। धान मेरे लिए बेटी की तरह है तो मक्का मेरा बेटा है, जो मुझे साल भर का राशन पानी देता है। उस मक्के को जब मैंने खेत में लुढके देखा तो मन के सारे तार एक साथ टूट गए।
जब मैं वातानुकूलित कैबिन वाले ऑफिस में पत्रकारिता किया करता था तो लंच टाइम में हम गांव देहात की बातें करते थे। आह ग्राम्य जीवन! जैसे जुमले से गांव घर की बातें करते थे। हमारे लिए गांव उस वक्त एक ऐसी दंतकथा की तरह था, जिसमें केवल सुख ही सुख होता है। हम अंचल की सांस्कृतिक स्मृति में हरी दूब की तलाश किया करते थे, लेकिन जब किसानी करने धरती पर उतरे तो जान गया कि इस धरती पर किसानी ही एक ऐसा पेशा है जहां हम सौ फीसदी प्रकृति पर निर्भर होते हैं और यहां सुख की तलाश में दुख से रोज मिलनाजुलना होता है।
प्रकृति की बदौलत दौलत बनाते हैं और उसी की बदौलत दौलत को पानी में बहते भी देखते हैं। गाम की सुलेखा काकी का आंगन मंगल की रात तबाह हो गया। आंगन के चूल्हे में रात में रोटी पकी थी, दूध उबला था। खाने के बाद सब जब सोने गए तभी हवा का जोर बारिश के संग तबाही की पटकथा लिखकर आ चुका था और आंगन-घर सब कुछ उड़ाते हुए निकल गया और छोड़ दिया सुलेखा काकी को बस रोने के लिए।
सूबे के मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से ऊपर से देखकर निकल लिए। मुआवजा की मौखिक बारिश करते हुए वे शांत-चित्त मुद्रा में अखबारों –चैनलों पर अवतरित हुए लेकिन सुलेखा काकी जैसे लोगों का दुख बांटने जमीन पर कोई नहीं आना चाहता। गाम के अलाउद्दीन चच्चा कहते हैं-“ तुम तो खेती किसानी करते हुए लिखते पढ़ते भी हो न! तब तो तुम्हें पता होना चाहिए कि सूबे में चुनाव होने वाले हैं। अब तो तूफान भी सियासी करने वालों के लिए वक्त पर आने लगा है...। “ इतना कहने के बाद चच्चा की आंखें भर आईं और वे मुझे अपनी बंसबट्टी दिखाने लगे जहां बांस उखड़े पड़े हैं..।
किसानी करते हुए हम सुनहरे भविष्य का सपना देखते रहते हैं। फसल बेचकर जीवन की गाड़ी को और आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं। देखिए न, इस बार उम्मीद थी कि फसल अच्छी होगी तो बाबूजी को एक बार फिर दिल्ली ले जाएंगे। वहां किसी अनुभवी न्यूरो सर्जन से दिखाएंगे। इस आशा के साथ कि वे फिर खड़े हो जाएं और मुझे समझाएं कि फलां खेत में आलू लगाना तो पूरब के खेत में गरमा धान। बाबूजी की तबीयत को लेकर मैं खुद को एक भरम में रखता आया हूं इस आशा के साथ कि वह ठीक हो जाएंगे। पिछले दो साल से मक्का की फसल मेरे उस भरम को मजबूत करता रहा है, लेकिन इस बार वो भरम भी टूट गया।
ये अनुभव केवल मेरा नहीं बल्कि मेरे जैसे सैंकड़ों किसानों का होगा, जिसने इस बार तूफान की तबाही को भोगा है। कल रात रेडियो पर सुना कि लोकसभा में शून्यकाल के दौरान संसद में तूफान से हुई तबाही का मुद्दा छाया रहा। मेरे जैसे किसान की गुजारिश बस इतनी है कि किसानी-मुद्दे को राजनीति की किताब का कवर पेज न बनाया जाए। पूर्णिया और प्रभावित जिले के किसानों तक सहायता पहुंचे।
उस किसान के बारे में दिल्ली में बैठे लोग सोचने की कोशिश करें, जिनके घर में मातम फैला है, उन घरों के बारे में सोचें जहां कि छत हवा में उड़कर कहीं दूर चली गई और बिलखते बच्चे धूप में रो रहे हैं। यह सब आंखों से देख रहा हूं। कैमरे का लैंस तस्वीरें लेने से मना कर रहा है।
मन के भीतर बैठा खुद का संपादक दुख की मार्केटिंग करने से मना कर रहा है, वह कहता है शब्दों के जरिये लोगों तक अपनी बातें पहुंचाओ। शब्द की ताकत ऐसी होती है कि वह दिल को छू लेता है। मन की बात सुनकर मैं सहम जाता हूं और एक नजर फिर अपने खेत की ओर देता हूं और फिर मुड़कर बिछावन पर लेटे बाबूजी को देखने लगता हूं। सोचता हूं कि यदि वे ठीक रहते तो मुझे समझाते- “डरो मत, लड़ो। किसानी करते हुए लड़ना पड़ता है और फिर वे कुछ मुहावरा सुनाते और कहते कि जाओ घुमो और तबाही के मंजर को महसूस करो ताकि तुम्हें अपना दुख कम दिखने लगे क्योंकि तुमसे भी ज्यादा क्षति और लोगों की हुई है।“
किसानी करते हुए खुद का दुख मैं शब्दों के जरिये बयां करता हूं। इस बार की तबाही मुझे सुखर कर रही है। तबाही का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। किसानी के मुद्दों से राजनीति की रोटी सेंकने वाले लोगों से डर भी लग रहा है। मुआवजा का बंदरबांट होना अभी बाकी है। लोगों तक मुआवजे की राशि कब पहुंचेगी या कितनी पहुंचेगी, ये भी एक कहानी होगी। हम सब उस कथा के चरित्र होंगे, जिसे बाद हर कोई हमें भूला देगा। लेकिन याद रखिए, रोटी के लिए गेहूं , चावल के लिए धान और मल्टीप्लेक्स में आपके पॉपकार्न के लिए मक्का हम सब ही उपजाते हैं। यदि एक आंधी हमें बरबाद कर सकती है तो याद रखिए एक अच्छा मानसून हमें बंपर फसल भी देगा। हम हार नहीं मानेंगे। हम जानते हैं कि हमारे हाथ में केवल बीज बोना है। फसल की नियति प्रकृति के हाथों में हैं। आंधी और बारिश की मार से हम हार नहीं मानेंगे। सरकारी मुआवजा हमारे बैंक-खातों में कब पहुंचेगा ये तो हमें पता नहीं, लेकिन इतना तो जरूर पता है कि अगली फसल के लिए हमें खूब मेहनत करनी है। मौसम की मार सहने के बाद हिम्मत जुटाकर फिर से खेतों में लग जाना है। केवल अपने और परिवार के पेट के लिए नहीं बल्कि आप सबों के डाइनिंग टेबल के लिए भी।
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मैं गिरीन्द्र। दो साल पहले तक दिल्ली और कानपुर में खबरों की दुनिया में रमा रहने वाला एक शख्स, जिसके लिए खबर की दुनिया ही रोजी रोटी थी, लेकिन उसके भीतर अपना एक गांव था, जिसमें रेणु की एक बस्ती थी...उनका मैला आंचल था...परती परिकथा थी।
उसी गांव ने मुझे महानगरीय जीवन से कोसों दूर अपनी परती जमीन की ओर ले जाने का काम किया और पेशे से पत्रकार गिरीन्द्र पहुंच गया सूबा बिहार के पूर्णिया जिला। अपने गाम-घर। खेती बारी करने। वही पूर्णिया जिला, जो इन दिनों तूफान की तबाही के कारण आप लोगों के जेहन में है। जहां के बारे में फणीश्वर नाथ रेणु कहते थे- आवरन देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैय्या रहे चदरवा तान.. । यह सब एक झटके में नहीं हुआ था, इसके पीछे मन से हमने पांच साल तक लड़ाई लड़ी। तब जाकर मन राजी हुआ, गांव लौटने के लिए।
अब तो किसानी करते हुए दो साल हो गए हैं, मतलब कुल जमा 730 दिन। गिनती के इन दिनों में हमने ढेर सारे उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन साल 2015 मेरे जैसे किसानी कर रहे लोगों की परीक्षा ले रहा है। मार्च के अंत में हमने बिन मौसम बारिश का तांडव देखा। गेंहू और सरसों की फसलों को आंखों के सामने तबाह होते देखा, लेकिन पिछले मंगलवार को यानी 21 अप्रैल को प्रकृति की मार ने हमारी रही सही कमर भी तोड़ दी।
तूफान की चपेट में हमने सब कुछ गंवा दिया। मक्का की फसल चौपट हो गई। कहते हैं कि पूर्णिया जिले में घासफूस के घर में रहने वाले किसान मक्का की फसल से पक्का मकान का सफर तय करते हैं। खूब आमदनी होती है इसकी खेती से, लेकिन वक्त के आगे किसी की नहीं चलती है।
मंगल की रात आधे घंटे का तूफान ने हमारी जिंदगी को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है, जिसके आगे घुप्प अंधेरा है। पिछले चार दिनों से बिजली हमसे दूर है। बिजली जो रोशनी देती है, वह भी हमसे दूर हो गई है। पता नहीं किसानी की किस्मत का गणित जोड़ घटाव करते हुए कैसे सब कुछ बांट देता है। गणित के उस सवाल की तरह जिसमें भाग करते हुए हमारे हिस्से में केवल शून्य ही नसीब होता है। शायद यही जीवन है। किसानी करते हुए हमने जीवन का इतना उलझा गणित नहीं देखा था।
कल तक जिस खेत में मक्के का जवान पौधा अपनी जवानी पर इठला रहा था, उसे हमने अपनी नजरों के आगे धरती मैया के गोद में रोते बिलखते देखा। खेती करते हुए हमने जाना कि हर फसल हमारे लिए संतान है। धान मेरे लिए बेटी की तरह है तो मक्का मेरा बेटा है, जो मुझे साल भर का राशन पानी देता है। उस मक्के को जब मैंने खेत में लुढके देखा तो मन के सारे तार एक साथ टूट गए।
जब मैं वातानुकूलित कैबिन वाले ऑफिस में पत्रकारिता किया करता था तो लंच टाइम में हम गांव देहात की बातें करते थे। आह ग्राम्य जीवन! जैसे जुमले से गांव घर की बातें करते थे। हमारे लिए गांव उस वक्त एक ऐसी दंतकथा की तरह था, जिसमें केवल सुख ही सुख होता है। हम अंचल की सांस्कृतिक स्मृति में हरी दूब की तलाश किया करते थे, लेकिन जब किसानी करने धरती पर उतरे तो जान गया कि इस धरती पर किसानी ही एक ऐसा पेशा है जहां हम सौ फीसदी प्रकृति पर निर्भर होते हैं और यहां सुख की तलाश में दुख से रोज मिलनाजुलना होता है।
प्रकृति की बदौलत दौलत बनाते हैं और उसी की बदौलत दौलत को पानी में बहते भी देखते हैं। गाम की सुलेखा काकी का आंगन मंगल की रात तबाह हो गया। आंगन के चूल्हे में रात में रोटी पकी थी, दूध उबला था। खाने के बाद सब जब सोने गए तभी हवा का जोर बारिश के संग तबाही की पटकथा लिखकर आ चुका था और आंगन-घर सब कुछ उड़ाते हुए निकल गया और छोड़ दिया सुलेखा काकी को बस रोने के लिए।
सूबे के मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से ऊपर से देखकर निकल लिए। मुआवजा की मौखिक बारिश करते हुए वे शांत-चित्त मुद्रा में अखबारों –चैनलों पर अवतरित हुए लेकिन सुलेखा काकी जैसे लोगों का दुख बांटने जमीन पर कोई नहीं आना चाहता। गाम के अलाउद्दीन चच्चा कहते हैं-“ तुम तो खेती किसानी करते हुए लिखते पढ़ते भी हो न! तब तो तुम्हें पता होना चाहिए कि सूबे में चुनाव होने वाले हैं। अब तो तूफान भी सियासी करने वालों के लिए वक्त पर आने लगा है...। “ इतना कहने के बाद चच्चा की आंखें भर आईं और वे मुझे अपनी बंसबट्टी दिखाने लगे जहां बांस उखड़े पड़े हैं..।
किसानी करते हुए हम सुनहरे भविष्य का सपना देखते रहते हैं। फसल बेचकर जीवन की गाड़ी को और आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं। देखिए न, इस बार उम्मीद थी कि फसल अच्छी होगी तो बाबूजी को एक बार फिर दिल्ली ले जाएंगे। वहां किसी अनुभवी न्यूरो सर्जन से दिखाएंगे। इस आशा के साथ कि वे फिर खड़े हो जाएं और मुझे समझाएं कि फलां खेत में आलू लगाना तो पूरब के खेत में गरमा धान। बाबूजी की तबीयत को लेकर मैं खुद को एक भरम में रखता आया हूं इस आशा के साथ कि वह ठीक हो जाएंगे। पिछले दो साल से मक्का की फसल मेरे उस भरम को मजबूत करता रहा है, लेकिन इस बार वो भरम भी टूट गया।
ये अनुभव केवल मेरा नहीं बल्कि मेरे जैसे सैंकड़ों किसानों का होगा, जिसने इस बार तूफान की तबाही को भोगा है। कल रात रेडियो पर सुना कि लोकसभा में शून्यकाल के दौरान संसद में तूफान से हुई तबाही का मुद्दा छाया रहा। मेरे जैसे किसान की गुजारिश बस इतनी है कि किसानी-मुद्दे को राजनीति की किताब का कवर पेज न बनाया जाए। पूर्णिया और प्रभावित जिले के किसानों तक सहायता पहुंचे।
उस किसान के बारे में दिल्ली में बैठे लोग सोचने की कोशिश करें, जिनके घर में मातम फैला है, उन घरों के बारे में सोचें जहां कि छत हवा में उड़कर कहीं दूर चली गई और बिलखते बच्चे धूप में रो रहे हैं। यह सब आंखों से देख रहा हूं। कैमरे का लैंस तस्वीरें लेने से मना कर रहा है।
मन के भीतर बैठा खुद का संपादक दुख की मार्केटिंग करने से मना कर रहा है, वह कहता है शब्दों के जरिये लोगों तक अपनी बातें पहुंचाओ। शब्द की ताकत ऐसी होती है कि वह दिल को छू लेता है। मन की बात सुनकर मैं सहम जाता हूं और एक नजर फिर अपने खेत की ओर देता हूं और फिर मुड़कर बिछावन पर लेटे बाबूजी को देखने लगता हूं। सोचता हूं कि यदि वे ठीक रहते तो मुझे समझाते- “डरो मत, लड़ो। किसानी करते हुए लड़ना पड़ता है और फिर वे कुछ मुहावरा सुनाते और कहते कि जाओ घुमो और तबाही के मंजर को महसूस करो ताकि तुम्हें अपना दुख कम दिखने लगे क्योंकि तुमसे भी ज्यादा क्षति और लोगों की हुई है।“
किसानी करते हुए खुद का दुख मैं शब्दों के जरिये बयां करता हूं। इस बार की तबाही मुझे सुखर कर रही है। तबाही का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। किसानी के मुद्दों से राजनीति की रोटी सेंकने वाले लोगों से डर भी लग रहा है। मुआवजा का बंदरबांट होना अभी बाकी है। लोगों तक मुआवजे की राशि कब पहुंचेगी या कितनी पहुंचेगी, ये भी एक कहानी होगी। हम सब उस कथा के चरित्र होंगे, जिसे बाद हर कोई हमें भूला देगा। लेकिन याद रखिए, रोटी के लिए गेहूं , चावल के लिए धान और मल्टीप्लेक्स में आपके पॉपकार्न के लिए मक्का हम सब ही उपजाते हैं। यदि एक आंधी हमें बरबाद कर सकती है तो याद रखिए एक अच्छा मानसून हमें बंपर फसल भी देगा। हम हार नहीं मानेंगे। हम जानते हैं कि हमारे हाथ में केवल बीज बोना है। फसल की नियति प्रकृति के हाथों में हैं। आंधी और बारिश की मार से हम हार नहीं मानेंगे। सरकारी मुआवजा हमारे बैंक-खातों में कब पहुंचेगा ये तो हमें पता नहीं, लेकिन इतना तो जरूर पता है कि अगली फसल के लिए हमें खूब मेहनत करनी है। मौसम की मार सहने के बाद हिम्मत जुटाकर फिर से खेतों में लग जाना है। केवल अपने और परिवार के पेट के लिए नहीं बल्कि आप सबों के डाइनिंग टेबल के लिए भी।
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